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महात्मा गाँधी, मजदूर की विपन्नता और विदेशी अर्थशास्त्रीय अवधारणा

महात्मा गाँधी, मजदूर की विपन्नता और विदेशी अर्थशास्त्रीय अवधारणा
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मजदूरों की दशा और दिशा पर चिंतन करने के लिए भी हमने एक दिन निश्चित कर दिया है. इस नियत दिन मजदूर भी खुश हो जाता है. बड़ी-बड़ी कल्पनाएँ करता है, और उन कल्पनाओं को पंख देने का काम करते हैं मजदूर नेता और वर्तमान सरकारें. जैसे-जैसे समय बीतता गया, मजदूरों की दशा दयनीय होती गईं. उसकी वेशभूषा में जरूर परिवर्तन आया, वह सायकिल चलाने के बजाय शहर में, गाँव में चलने वाले सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करने लगा. उसे भी सायकिल चलाने में शर्म महसूस होने लगी. उसके हाथ में भी मोबाइल आ गया. उसके हर बच्चे के हाथ में भी मोबाइल सुशोभित हो रहा है. दुनियां कहाँ की कहाँ पहुँच गयी, और मजदूर आज भी वहीँ हैं, बल्कि उसकी दशा पहले से ज्यादा कठिन हो गयी. जिस भारतीय समाज में श्रम का मूल्य होता था, उसका भी दिन ब दिन अवमूल्यन होता गया. मजदूर भी कामचोरी करने लगा. पहले की तरह ही वह आज भी गलत आदतों के कारण परेशान रहता है. शराब और अन्य नशे का सबसे अधिक शिकार तो मजदूर ही होता है. आज भी सभी उसकी ओर हिकारत की दृष्टि से ही देखते हैं. समाज में उसे जो सम्मान मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पा रहा है. आज की बाजार व्यवस्था ने मजदूर को ही मजदूर का प्रतिद्वंदी नहीं, दुश्मन बना दिया. मेहनतकश के साथ सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि वह जागता नहीं है, और जब जागता है तो इतनी देर हो गयी होती है, कि उस जागने का कोई मतलब नहीं होता है.

महात्मा गाँधी ने अपने जीवन में शरीर श्रम को बहुत महत्त्व दिया. उन्होंने कहा कि शरीर श्रम मनुष्यमात्र में लिए अनिवार्य है. यह बात उनके गले से तालस्ताय का एक निबंध पढने के बाद समझ में आयी. इसकी झलक गीता के तीसरे अध्याय में भी उन्हें देखने को मिली. महात्मा गाँधी ने मेहनत और मेहनतकश की प्रतिष्ठा स्थापित करने के लिए शरीर श्रम न करने वाले को खाने का क्या अधिकार है? यह प्रश्न ही उठा दिया. उस समय शिक्षित और बुद्धिमान समझे जाने वाले अंग्रेजों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि बाइबिल कहती है कि अपनी रोटी तू अपना पसीना बहा कर कमाना और खाना. करोडपति भी अपने पलंग पर लेटा रहे और मुंह में किसी के खाना डाल देने पर खाए, तो वह बहुत दिनों तक नहीं खा सकेगा. उसमें उसके लिए आनंद भी न रह जाएगा. इसलिए वह कसरत वगैरह करके भूख उत्पन्न करता है और खाता है तो अपने ही हाथ-मुह हिलाकर. तो यह प्रश्न स्वभावत: उठता है कि यदि इस तरह राजा रंक सभी को किसी न किसी रूप में व्यायाम करना ही पड़ता है. तो रोटी पैदा करने की कसरत सब लोग क्यों न करें? किसान से कसरत करने और हवा खाने को कोई नहीं कहता, और संसार के नब्बे प्रतिशत से अधिक लोगों का निर्वाह रोटी से होता है. शेष दस प्रतिशत आदमी भी इसका निर्वाह करें तो संसार में सुख, शांति और आरोग्य का का प्रतिशत बढ़ जाए. इसके आलावा यदि शरीर श्रम के इस निरपवाद नियम को सभी मानने लगे, तो ऊंच-नीच का भेद दूर हो जाए. इस देश में जहाँ ऊंच-नीच की गंध न थी, वहां भी वह वर्ण व्यवस्था में भी घुस गयी, जिससे मालिक और मजदूर का भेद सर्वव्यापक हो गया और गरीब अमीर से ईर्ष्या करने लगा. यदि सब अपनी रोटी के लिए मेहनत करें, तो ऊंच-नीच का भेद दूर हो जाए. और फिर जो धनी वर्ग रह जाएगा, वह अपने को मालिक न मानकर उस धन का केवल रक्षक या ट्रस्टी मानेगा, और उसका उपयोग मुख्यत: सेवा के लिए करेगा.

यदि सब अपने ही श्रम की रोटी खाएं, तो सबके लिए पर्याप्त भोजन और पर्याप्त अवकाश उपलब्ध हो जाएगा. तब न तो अधिक आबादी की चिल्लाहट मचेगी, न कोई रोग फैलेगा और न चारो ओर जैसा हम देखते हैं, वैसी कोई विपत्ति सतावेगी. ऐसा श्रम ऊँचें से ऊँचे प्रकार का यग्य होगा. बौद्धिक श्रम से अपनी आजीविका कमाने वाले प्रश्न का जवाब देते हुए महात्मा गाँधी कहते हैं कि केवल मानसिक और बौद्धिक श्रम आत्मा के लिए और स्वयं अपने ही संतोष के लिए हैं. उसका पुरस्कार कभी नहीं माँगा जाना चाहिए. आदर्श राज्य में डॉक्टर, वकील और ऐसे ही दूसरे लोग केवल समाज के लाभ के लिए काम करेंगे, अपने लिए नहीं. शारीरिक श्रम से धर्म का पालन करने से समाज की रचना में एक शांति क्रांति हो जायेगी. मनुष्य की विजय इसमें होगी कि उसने जीवन संग्राम के बजाय परस्पर सेवा के संग्राम की स्थापना कर दी. पशु धर्म के स्थान पर मानव धर्म कायम हो जाएगा. बौद्धिक कार्य को महत्त्वपूर्ण मानते हुए महात्मा गाँधी कहते हैं कि बौद्धिक कार्य महत्त्वपूर्ण है और जीवन की योजना में उसका निश्चित स्थान है. परन्तु मेरा आग्रह शरीर श्रम की आवश्यकता पर है. मेरा दावा है कि किसी भी आदमी को इस दायित्व से मुक्त नहीं होना चाहिए. इससे उसके बौद्धिक कार्य की श्रेष्ठता बढ़ जायेगी.

महात्मा गाँधी इस सत्य को भी बहुत ही बेबाकी से स्वीकार करते हैं कि श्रमिकों के श्रम का उपयोग करके पूजीपतियों ने बहुत सा धन इकट्ठा किया है. इसके लिए होड़ मच गयी और देश में आर्थिक असमानता अधिक बढ़ गयी. इसीलिए महात्मा गाँधी न्यायपूर्ण मजदूरी की हिमायत करते हुए कहते हैं कि यदि मैं अपने आदमी को उचित मजदूरी देता हूँ, तो मैं अनावश्यक धन नहीं जमा कर सकूंगा. भोग- विलास पर रुपया बर्बाद नहीं कर सकूंगा. जिस मजदूर को मुझसे अधिक मजदूरी मिलती है, वह अपने मातहतों के साथ न्याय का व्यव्हार करेगा. इस प्रकार न्याय की धारा सूख नहीं जायेगी, परन्तु जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, वैसे-वैसे बल संचय करेगी. और जिस राष्ट्र में ऐसी भावना होगी, वह सुखी और खुशहाल होगा.

इस प्रकार हम देखते हैं कि अर्थशास्त्री यह सोचने में भूल करते हैं कि किसी राष्ट्र के लिए स्पर्धा या होड़ अच्छी है. स्पर्धा से सिर्फ खरीददार को मजदूर की मजदूरी अन्यायपूर्ण ढंग से सस्ती मिल जाती है. नतीजा यह होता है कि धनवान अधिक धनी और निर्धन अधिक गरीब बनते हैं. अंत में इसका परिणाम राष्ट्र के लिए विनाशकारी ही हो सकता है. मजदूरों को अपनी योग्यता के अनुसार न्यायपूर्ण मजदूरी मिलनी चाहिए. तब भी एक प्रकार की स्पर्धा तो होगी ही, परन्तु लोग सुखी और कुशल होंगे. क्योंकि उन्हें मजदूरी पाने के लिए एक दूसरे से कम से कम दर पर काम नहीं करना पड़ेगा. बल्कि उन्हें रोजगार हासिल करने के लिए नए-नए कौशल प्राप्त करने होंगे.

जो अर्थशास्त्र धन की पूजा करना सिखाता है और कमजोरों को हानि पहुंचा कर सबलों को दौलत जमा करने देता है, वह झूठा और भयानक अर्थशास्त्र है. वह मृत्यु का दूत है. इसके विपरीत सच्चा अर्थशास्त्र सामाजिक न्याय की हिमायत करता है, वह सबकी जिनमे दुर्बल से दुर्बल भी शामिल है समान रूप से भलाई चाहता है, और सभ्य जीवन के लिए अनिवार्य है.

मजदूरों के वर्तमान हालत के लिए उद्योगवाद जिम्मेदार है. महात्मा गाँधी भी इसे अभिशाप मानते हैं. वे कहते हैं कि मुझे भय है कि उद्योगवाद मानवजाति के लिए अभिशाप बन जाने वाला है. उद्योगवाद सर्वथा इस बात पर निर्भर है कि आप में शोषण करने की कितनी शक्ति है, विदेशी मंडियां आपके लिए कहाँ तक खुली हैं और प्रतिस्पर्धियों का कितना आभाव है. पूँजी और श्रम को एक दूसरे का पूरक मानते हुए महात्मा गाँधी कहते हैं कि अगर पूँजी ताकत है, तो श्रम भी ताकत है. दोनों ही ताकतों का विनाश या निर्माण के लिए उपयोग किया जा सकता है. दोनों एक दूसरे पर निर्भर हैं. ज्यों ही मजदूर अपने बल का अनुभव् कर लेता है, उसकी स्थिति पूंजीपति का गुलाम रहने के बजाय उनका साझीदार बन जाने की हो जाती है. अगर उसका उद्देश्य अकेले ही उद्योग का मालिक बन जाने का हो, तो वह बहुत करके सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को मार डालने का काम करेगा.

मजदूर अपनी आर्थिक स्थिति ठीक तो करे, पर वह छोटे मजदूरों का शोषक न बन जाए, इसका संकल्प ले, तो मजदूरों का आधे से अधिक शोषण आज ही समाप्त हो जाएगा, बाकी सरकारे भी उनके प्रति इधर संवेदनशील दिख रही हैं, उनके भले के लिए कई हितकारी योजनायें चला रही हैं, उसका भी लाभ लेकर वह अपनी स्थिति में सुधार कर सकता है. यह बात तो सही है कि जो कुछ कारण है खुद मजदूर को ही करना है, दूसरे प्रकार की मदद तो सिर्फ उत्प्रेरक का ही काम कर सकती हैं.

(नोट : यह मेरा मौलिक लेख है, बिना अनुमति के इसके किसी भी अंश का प्रकाशन आपको कानूनी पचड़ों मे उलझा सकता है, यदि आप इसको प्रकाशित करना चाहते हों, तो जनता की आवाज की अनुमति प्राप्त कर लेखक के नाम के साथ प्रकाशित करें )

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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