हे संत वेलेनटाइन!......... सर्वेश तिवारी श्रीमुख
BY Suryakant Pathak14 Feb 2017 2:21 PM GMT
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Suryakant Pathak14 Feb 2017 2:21 PM GMT
आप धन्य थे। आपके प्रणयोत्सुक वैराग्य पर लहालोट होने वाले परेमियों की संख्या इतनी भी हो जाएगी, इसकी तो आपने भी कल्पना नही की होगी। आपकी कर्मभुमि से सहस्त्रो योजन दूर आर्यावर्त तक आपकी धाह पहुंच गई यह आपकी दिव्यता दर्शाती है।
पर हे जयदेवनंदन, हे कामावतार, हे गंधर्वराज, एक सप्ताह मे ही प्रेम के "परम" को "चरम" तक पहुंचा देने वाली "लिल्ला" हम देहातियों को आकर्षित नही करती। हम तो किसी के पायल से घायल हो जाने वाले और किसी के झुमके, किसी की टिकुली, और ज्यादा से ज्यादा किसी की आंखों पर ही जान मरवा लेने वाले प्रेमी ठहरे। हमारे बुजुर्ग यहाँ तक कह गये कि
" साकी मेरे पास न आना मै पागल हो जाउंगा,
प्यासा ही मै मस्त मुबारक हो तुझको यह मधुशाला"
हम तो उन्हे देख देख कर काव्य रचने, कृष्णपक्षी रात मे जोन्ही गिनने, उनके घर बिना जरुरत के मरिचा मांगने जाने,रो रो कर तकिया भिगोने, और अंत मे उनकी बारात मे हरकेस्टा वाली गाडी के पीछे डांस करने मे ही अपनी इति श्री कर लेते हैं।
हमारे यहां के उत्साही प्रेमी प्रेयसी के पीछे दौड़ते दौड़ते भले 'हग दें", पर उनके प्रेमकाल में "हग डे" नही आता। हमारा प्रेम जब अंग्रेजी की किताब में मुह छुपा कर ताकने और भीतर ही भीतर मुस्कियाने से सुरु होता है, तो हमारा मन उस दिन "हुदूर-बुदुर डे" मनाता है। उसके बाद तमाम झंझावातों को झेलते हुए पोखर, तालाब, ऊँख, मूज लांघते हैं, और मोबाईल को ही प्रेयसी समझ कर उसके स्क्रीन को चूम चूम के दिन भर "किस डे" मनाते हैं। फिर दो-चार-दस बार जम के कुटाने के बाद साल दो साल में जब हम "रोज डे" तक पहुँचते हैं, तो उसके डेढ़ महीने बाद ही हमे प्रेयसी के पति को जीजाजी कहना पड़ता है। एक आप हैं कि सीधे रोज से सुरु कर हप्ते भर में ही विजयी हो जाते हैं। इधर एक हम हैं जिन्हें एक हप्ता तो सिर्फ प्रेयसी की मुस्कान देख कर यह सोचने में लग जाता है, कि प्यार से मुस्कुरा रही है या हमारा हलमान-कट हेयर स्टाइल देख कर हँस रही है।
सो हे प्रणयातुर आत्मा! इस जन्म मे हमे छिमा करो, अगले जनम मे सोचेंगे।
आपको छोड़ कर सबका,
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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