चरम पर था बसपा सरकार में भ्रष्टाचार
बहुजन समाज का सबसे बड़ा हितैषी बताने वाली मायावती के झांसे में आकर उत्तर प्रदेश की जनता ने उन्हें कई बार प्रदेश की बागडोर सौपीं. अपराध नियंत्रण को छोड़ दें, ऐसी कोई उल्लेखनीय घटना नहीं है, जिसका जिक्र यहाँ किया जा सकता है. पूरा प्रशासन और शासन भ्रष्टाचार में आकंठ में डूबा रहा. जिसकी खबरें अक्सर अखबारों की सुर्खियाँ बनी. प्रदेश को खुलेआम लूटने की छूट देने से इनकार कर दिया. विधान सभा चुनाव में एक बड़ी शिकस्त दी. लोकसभा चुनाव में उस पर मुहर लगा दी.
रिटायर्ड आफिसर ने अपनी किताब 'भ्रष्टाचार के भगवान्' में इस बात का खुलासा किया है. इस किताब में ऐसी कोई बात नहीं कही गयी है,जिसकी चर्चा समाज में न होती रही हो. सभी बातों की सत्यता पर कोई सवालिया निशान नहीं है. उन्होंने लिखा है कि ' मैंने उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार के अलग-अलग स्तर देखे हैं. यहाँ कई मिनिस्टर हिस्ट्रीशीटर हैं. मंत्रियों को भी बाहुबली मंत्री कहा जाता था. चीफ मिनिस्टर और मिनिस्टरों को जैसे ही यह पद मिलता है, रातोरात करोडपति हो जाते हैं. लोग उनके पास आते हैं और बिना किसी हिचक के पूछते हैं कि अमुक काम का क्या रेट चल रहा है. ख़ुशी के साथ उस रेट का भुगतान करते हैं, और अपना काम करा कर चले जाते हैं. प्रदेश का हर ठेकेदार एक निश्चित राशि मंत्रियों के माध्यम से मुख्यमंत्री को पहुचती है. यह सुनकर और जानकार उसकी हद का आप पता लगा सकते हैं, इन भ्रष्टाचारियों ने नोट गिनने की मशीन तक लगा रखी है. यादव सिंह इसका उदाहरण है. जो बसपा सरकार की देन है. उसकी पहुँच और उच्चतर स्तर पर पहुँच बसपा के शासन काल में ही बनी. इतनी गोपनीयता और संगठित होकर ये लोग काम करते हैं कि उत्तर प्रदेश की वर्तमान सरकार को दो साल तक इसकी हवा तक नहीं मिली.
बसपा सरकार की पूरी व्यवस्था कुछ मंत्रियों और अधिकारियों के हाथ में होती है. वे ही पूरा शासन और प्रशासन चलते हैं. बाकी के मंत्री तो केवल नाम के होते हैं. सिर्फ सरकारी सुविधाओं का उपभोग करते हैं, एक अदना सा काम कराने की भी उनकी हैसियत नहीं होती है. यदि कोशिश भी करते हैं, तो उसका अप्रूवल भी इन्हीं मंत्रियों और अधिकारियों से लेना पड़ता है. बड़ी मिन्नतें और दुहाई देने पर वे कोई छोटा-मोटा काम करा पाते हैं. ऐसे अधिकारियों और मंत्रियों के पास दर्जन भर विभाग होते हैं. प्रदेश में उनकी हनक का एहसास जनता को भी दीखता है. वे ही सरकार होते हैं, और उनका आदेश ही क़ानून होता है. उसके इतर कुछ भी नहीं.
उन्होंने ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि गलत को गलत कहने की सजा दी जाती थी. चाहे वह किसी विभाग का मंत्री हो, या आधिकारी. अक्सर उसकी बेइज्जती कर दी जाती थी. तत्कालीन कैबिनेट सचिव शशांक शेखर तो मायावती के नाक के बाल थे. वे चाहे जो निर्णय लें, चाहे जो करें, उन्होंने उनकी हर हाँ में हाँ मिलाई. अपने साथ घटी घटना का उल्लेख करते हुए उन्होंने लिखा है कि उन्होंने लिखा, 'जब मैंने ज्वाइन किया तो मेरे नीचे एक सेक्शन अफसर तैनात था. मैंने वहां स्वतंत्र सचिव के रूप में काम किया. इतने छोटे समय में ही खेल विभाग का चार्ज जो शशांक शेखर से ले लिया गया था उन्हें एक बार फिर खेल विभाग का प्रमुख सचिव बना दिया गया था. मेरे ट्रांसफर का कोई ऑर्डर भी जारी नहीं किया गया था. उनके नीचे मुझे काम करना स्वीकार नहीं था. मैंने इसे उत्पीड़न के तौर पर पाया। अपने बीस साल की सर्विस में खेल से भी महत्वपूर्ण विभागों में मैंने स्वतंत्र अफसर के तौर पर काम किया, लेकिन ऐसे प्रमुख सचिव के नीचे काम नहीं करना चाहती थी, जिसके पास कोई काम का अनुभव नहीं था सिवाय उनके राजनितिक रिश्तों के. तब मैंने चीफ सेक्रेटरी और यूपी आईएएस एसोसिएशन को पत्र लिखकर पूछा कि वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी के तौर पर काम कर चुकी अधिकारी का शशांक शेखर के नीचे काम करने का क्या मतलब है. इसमें मैंने कुछ और बिंदु उठाए- ऐसे कितने अधिकारी हैं जिनके पास एक विभाग का चार्ज है जबकि शशांक के पास तीन विभागों का चार्ज था. मैंने उनसे निवेदन किया की शशांक को प्रमुख सचिव बनाने का ऑर्डर कैंसिल कर दे। बड़ी कठिनाइयों के बाद यह ऑर्डर कैंसिल किया. शशांक कभी इसके लिए मुझे माफ नहीं कर सके। यहां तक कि जब वह 2007 में कैबिनेट सेक्रेटरी बने,उन्हीं की वजह से मुझे सितंबर 2012 में सस्पेंड कर दिया गया.
जिस अधिकारी या मंत्री ने मायावती की लीक से अलग हट कर चलने या कुछ करने की कोशिश की, उसका हश्र क्या हुआ, यह किसी से छिपा नहीं है.
इस किताब के आने के बाद भी बसपा और उससे जुड़े अधिकारियों के चेहरे पर जरा सी भी सिकन नहीं है. इस खुलासे को भी वे पुरस्कार के रूप में देखते हैं. उनका मानना है कि जब बसपा सरकार आएगी, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा. और उन्हें फिर से मलाईदार पद मिलेगी. पहले की तरह फिर उनकी ही तूती बोलेगी. कई अधिकारी तो समाजवादी सरकार में भी उच्च पदों पर बैठे हुए है, मलाई भले ही नहीं काट पा रहे हैं, पर धमक तो कायम ही है. वर्तमान अखिलेश सरकार को इस पर ध्यान देना चाहिए. और ऐसे अधिकारियों को ऐसे विभागों का प्रमुख नहीं बनाना चाहिए, जिनके कारण प्रदेश के समाजवादी विचारधारा के लोगों को लखनऊ के चक्कर लगाने पड़े.
प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार