बाथरूम की राजनीति या राजनीति का बाथरूम – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

बाथरूम, एक कामन शब्द, जिसका उपयोग हर शहरी व्यक्ति दिन मे न जाने कितने बार करता है। कभी लड़कों के बहाने, कभी खुद के बहाने, और कभी नहाने-धोने के बहाने। घर की एक ऐसी सुरक्षित जगह जिस तरफ लोग अपनी नजरें भी उठा कर नहीं देखते हैं। जरूरत पड़ने पर पहले पूछ लेते हैं, या किसी और तरह से जानने के बाद भी उस ओर जाते हैं। बाथरूम के शाब्दिक अर्थ की बात करें, तो यह नहाने की जगह होती है। जहां हर सुबह लोग अपने शरीर का प्रक्षालन करते हैं। उस समय उनके शरीर पर नाममात्र के कपड़े होते हैं। हमारे यहाँ बिना कपड़ों के नहाने की परंपरा भगवान श्री कृष्ण ने एक प्रसंग से समाप्त कर दी है। लेकिन पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव मे आकार मेट्रोपॉलिटन सिटीज मे बिना कपड़ों के नहाने का चलन भी बढ़ रहा है। खैर कोई कैसे नहाए, इससे किसी को क्या मतलब ? होना भी नही चाहिए, क्योंकि यह एक अत्यंत व्यतिगत मामला होता है।
पहले लोगों के पास-पड़ोस के घरों मे कान लगाने, उनके यहाँ क्या हो रहा है, यह जानने की कोशिश करना एक आम आदत की तरह लोगों की आदतों मे शुमार था। इसके बाद यह गुण पत्रकारिता मे आया, और पत्रकार ने अपनी सूघने की शक्ति मे इजाफा किया, और कौन किस साबुन का इस्तेमाल करता है, सिर्फ इसका पता लगाया। लेकिन उसने भी बाथरूम मे झाँकने की कोशिश नही की। सिर्फ एक खबर के लिए जितना जरूरी था, उतना ही लिया। बाकी छोड़ दिया। लेकिन राजनेता ने तो हद ही पार कर दी। उसका भी पता तब लगा, जब एक वरिष्ठ नेता ने संसद से एक दूसरे वरिष्ठ नेता के बाथरूम का आंखो देखा वृतांत सुना दिया। इसके बाद इस देश के नागरिकों को पता चला की इस देश के नेता सिर्फ देश ही नहीं चलाते हैं, बल्कि एक –दूसरे के बाथरूम मे भी कुछ ऐसा फिट करवा देते हैं, जिससे बाथरूम का सजीव चित्र देख सकें। यह इसलिये भी कह रहा हूँ कि उस वरिष्ठ नेता को यह कैसे पता चला कि अमुक वरिष्ठ नेता रेनकोट पहन का नहाता है।
इस समय नेताओं मे इसमें खूब बहस हो रही है। गरमा-गरम बहस हो रही है। एक पक्ष इसे कहने की शैली या प्रतीक और बिम्ब से जोड़ने का प्रयास कर रहा है, तो दूसरा इसे दूसरे की निजता मे इस स्तर तक गिरावट निरूपित कर रहा है, जिससे इस बयान का राजनीतिक फायदा मिल सके। करे भी क्यों न ? इस देश मे नेता ऐसा कुछ भी नहीं करता, जिससे उसे लाभ न हो। लेकिन मात्र राजनीतिक लाभ के लिए वह इतना नीचे गिर जाएगा, यह उम्मीद नहीं थी।
खैर राजनीति इस समय फिसलन भरे बाथरूम की शक्ल लेती जा रही है, जहां जाने पर किसी के भी फिसलने का खतरा विद्यमान रहता है। यदि ऐसा व्यक्ति जिसने राजनीति मे कदम रखने के पहले बड़ा त्याग किया हो। समाजसेवा के लिए घर-बार सब कुछ छोड़ दिया हो, लेकिन राजनीति मे आते ही वह फिसल जाये, तो इसको क्या कहेंगे। वाणी से ही आदमी का व्यक्तित्व निखरता है। तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद जो शब्दों की लक्षमण रेखा नहीं लांघता है, उसी सनातन प्रशंसा होती है। लेकिन यदि ऐसा नेता बाथरूम के संकरेपन का शिकार हो गया, तो और लोग जिनकी मानसिकता ही संकरी हो, यदि वे कल से बाथरूम मे झाँकने लगेंगे तो इस देश की राजनीति का वह बाथरूम ऐसे गंदे बाथरूम का प्रतीक हो जाएगा जहां लोग लघुशंका भी करने से बचते फिरेंगे ।
इसलिए राजनीतिक गलियारा बदबूदार, गंदगीयुक्त बाथरूम मे परिवर्तित हो जाए, इसके पहले ही इसकी सफाई का जतन भी राजनेताओं को ही करना पड़ेगा। नहीं तो इस देश का सिर्फ बाथरूम ही नहीं, लोकतन्त्र भी खतरे मे पड़ जाएगा ।
- प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार