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"कै अट्ठे बीस और कै सवाई पन्द्रह" जैसे सवाल की कड़वी यादें : नीरज मिश्र
BY Suryakant Pathak11 Feb 2017 12:55 PM GMT
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Suryakant Pathak11 Feb 2017 12:55 PM GMT
मेरे बचपन की सबसे कड़वी यादें मेरे स्कूल और पढ़ाई से जुडी है। तब मैं 12 साल का था और बालों में तेल लगाकर स्कूल जाता था। घर से निकलते ही, कुछ दूर चलते ही, रस्ते में था उनका घर। उनका मतलब चौबे बाबा का घर। जब मैं उनके घर के सामने से गुज़रता तो वो अक्सर कोई किताब पढ़ते हुए नज़र आते थे। और जैसे ही उनकी नज़र मुझ पर पड़ती उनकी आँखे में एक हिंसक चमक आ जाती थी। उसके बाद सवालों की श्रृंखला शुरू हो जाती। सवाल भी ऐसे जिनका ज़वाब देने में पसीने छूट जाये। कभी मुझसे 34 का पहाड़ा पूछते तो कभी ढाई और डेढ़ का। "कै अट्ठे बीस और कै सवाई पन्द्रह" जैसे सवाल इसके बाद पूछे जाते। अक्सर वो ट्रांसलेशन भी पूछा करते थे। एक बार तो उन्होंने पूछ लिया कि "खोंच लगने से पियर धोती चर्र से फट गयी" इसको इंग्लिश में ट्रांसलेट करो। हम भकुआये से उनका मुंह देखते रह गए। हेंगा और लेहना जैसे विशुद्ध भोजपुरी शब्दों की इंग्लिश भी वो पूछते थे। और जवाब न देने के अपराधबोध के कारण हम दिन भर अवसाद में रहते और हमें अपनी पढ़ाई पर शंका होने लगती थी।
वो इतनी आसानी से छोड़ते भी नही थे। जब उन्हें ज़वाब नही मिलता था तो तमाम तरह के जीव-जन्तुओं से हमारी तुलना की जाती थी।और मेरे सामने मेरे अंधकारमय भविष्य की ऐसी काली तस्वीर पेश की जाती थी कि हमारा मन रोने रोने को हो आता।
बाबा के सनक भरे सवालों से एक समूची पीढ़ी त्रस्त थी। उनका दहशत और खौफ इस कदर था कि लड़कों ने उस रास्ते से जाना ही बन्द कर दिया और आधा किलोमीटर का चक्कर लगा कर खेत-मार्ग से स्कूल जाने लगे थे। अब बाबा उम्र में बड़े थे इसलिए उनको कुछ बोल पाना सम्भव और उचित न था।
पर हर लड़का हमारी तरह संस्कारी नही होता। कुछ धुंधकारी भी होते है। रवि ऐसे ही योद्धा थे। उनकी उमर 13 थी, शरीर 16 के जैसा था और हरकतें 18+ के जैसी। बचपन से ही उन्होंने गाली-उत्सर्जन में ऐसी दक्षता हासिल कर ली थी कि छात्रों के दो गुटो में जब लड़ाई होती थी तो लड़के उन्हें बॉरो (Borrow) करके ले जाते थे। इधर कुछ दिनों से उन्होंने जेब में एक जंग लगा चाकू भी रखना शुरू कर दिया था जिससे पका केला भी नही काटा जा सकता था पर कमज़ोर दिल वाले लौंडों में उनका भौकाल ज़रूर जम गया था। एक बार एक कुत्ते ने उन्हें काट लिया था। उसके बाद रवि ने मौत और आतंक का ऐसा तांडव किया कि गांव के कुत्तों ने इलाका ही छोड़ दिया।20 साल की उमर तक आते आते उनकी ख्याति आसपास के 10 गाँवों तक फ़ैल चुकी थी और उनकी कहानियाँ मिथकीय रूप ले चुकी थी।
तो हुआ ये कि रवि बाबू भी रोज़ रोज़ के इस इंटरव्यू से तंग आ गए थे। काफी दिनों तक सोचने के बाद उन्होंने एक आइडिया ढूंढ निकाला। अगले दिन वो बस स्टैंड जाकर 64 पेज और पीले पन्नों वाली किताब खरीद लाये। उस वक़्त मोबाइल का चलन नही था जिसके कारण ये किताबें युवाओं में काफी लोकप्रिय थी। फिर उस किताब को उन्होंने बाबा को दे दिया और आश्वस्त हो गए। उन्हें पूरी उम्मीद थी कि इस किताब को बाबा इस तरह खुलेआम तो पढ़ेंगे नही, अंदर ही जाकर बांचेंगे। इस तरह कुछ दिनों के लिए उनका बाहर बैठना भी बन्द हो जाएगा और जब इस किताब को ये पूरी तरह याद कर लेंगे तो नई किताब दे दी जायेगी।
(इस आईडिया से पाठक गण रवि की बुद्धि की प्रखरता का अंदाजा लगा सकते है।)
पर बाबा को वो पुस्तक पसन्द नही आई। (शायद किताब में हुई स्पेलिंग मिस्टेक्स के कारण) और उन्होंने वो ग्रन्थ रवि के पिताजी को सौंप दिया। बाकी की कहानी इतिहास है। रवि के पिताजी चमरौंधा जूता पहनते थे। पूरे 45 मिनट तक रवि का शुद्धीकरण चलता रहा।जब यह प्रक्रिया समाप्त हुई तब रवि को ऐसा लगा जैसे वो फूल से हल्के हो गए है।
खैर इसके बाद तो जैसे रवि को मार खाने का रियाज़ हो गया और फिर हर 15-20 दिन बाद उनका Renewal होता रहा।
नीरज मिश्र
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