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उत्तर प्रदेश

क्या समाजवादी कुनबे में फूट का फायदा उठाने की फ़िराक में हैं शाह?

हाल ही में समाजवादी पार्टी के महासचिव और अखिलेश के सबसे खास चाचा रामगोपाल यादव के संसदीय जीवन के 25 साल पूरे होने पर नरेश अग्रवाल ने दिल्ली के एक 5 सितारा होटल में कार्यक्रम आयोजित किया था. कार्यक्रम में पीएम और बीजेपी के तमाम नेता तो नज़र आये लेकिन यादव परिवार ही गायब रहा. इस दरार को बीजेपी बारीकी से देख रही है.

क्या समाजवादी कुनबे में फूट का फायदा उठाने की फ़िराक में हैं शाह?
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क्या ये समाजवादी कुनबे में फूट से बिखरे यादव मतदाताओं को बीजेपी की तरफ मोड़ने का अमित शाह की नई सोशल इंजीनियरिंग है? बीजेपी ने यूपी में पिछड़े मतदाताओं में से सबसे समृद्ध यादव मतदाताओं को 2019 से पहले अपने पक्ष में करने के लिए क्या रणनीति तैयार की है.
निश्चित ही अमित शाह का रुख अब यूपी के बड़े वोट बैंक यादवों की तरफ है. एक स्थानीय बीजेपी नेता कहते हैं कि" यादव मतदाताओं को सपा का वोट बैंक मान के छोड़ देने से हम सिर्फ समाजवादी पार्टी की ही मदद करेंगे". अमित शाह एक ऐसा वोट बैंक तैयार करना चाहते हैं जो दशकों तक पार्टी के साथ रहे.
यूपी में समाजवादी पार्टी के बनने के बाद से ही यादव मतदाता चट्टान की तरह मुलायम के पीछे खड़ा रहा है. लेकिन पिछले साल घर में पड़ी फूट और चाचा भतीजे की जंग ने बीजेपी को एक मौका दे दिया है. झगड़े के बाद अलग हुए मुलायम के पास कद है लेकिन पार्टी नहीं. जबकि अखिलेश का पास पार्टी का संगठन है लेकिन ऐसा कद नहीं कि यादव वोटर आंख बंद करके उनके पीछे चले. शिवपाल यादव भी बीजेपी की तरफ हाथ बढ़ा रहे हैं. उनके मेंटर अमर सिंह प्रधानमंत्री की तारीफों के पुल बांधते नहीं थकते. शिवपाल किसी ठिकाने की तलाश में हैं तो क्या बीजेपी उनके लिए एक विकल्प हो सकता है?
इस वक़्त यूपी में सक्रिय किसी भी पार्टी के पास यादव चेहरा नहीं है सिवाय समाजवादी पार्टी के. कभी कांग्रेस में चंद्रजीत यादव जैसे कद्दावर नेता हुआ करते थे, बसपा में भी ज़िला स्तर पर कुछ बड़े नाम थे लेकिन अब दोनों ही दलों में यादव नेतृत्व नहीं के बराबर है.
ऐसे में बीजेपी भूपेंद्र यादव का चेहरा आगे कर के यादव वोटरों को रिझाने की कोशिश करेगी. भूपेंद्र यादव राष्ट्रीय स्तर की राजनीती के ज़रिए ही यूपी के यादव मतदाताओं को रिझाने की कोशिश करेंगे.
भूपेंद्र यादव को गुजरात जैसे अहम राज्य की जिम्म्मेदारी दी गई है. पीएम और अमित शाह के गृह राज्य की जिम्मेदारी मिलना बताता है कि यादव पर बीजेपी के शीर्ष नेतृत्व का कितना भरोसा है. राज्य सभा में हर दूसरी बहस की शुरुआत वही करते हैं.
2019 के लिए बीजेपी की रणनीति है की यादव और दलित समाज को ये एहसास कराया जाये की पहले वो हिंदू हैं और फिर उनकी जाति आती है. और ये भी की वो प्रधानमंत्री चुन रहे हैं न कि मुख्यमंत्री. माया या अखिलेश दोनों में से फिलहाल कोई भी पीएम की कुर्सी का दावेदार नहीं है. बीजेपी बताएगी की इनको वोट देना मतलब कांग्रेस को वोट देना होगा.
यूपी में लगभग 12 फीसदी यादव वोट बैंक है. यादव परिवार में फूट के बाद ये वोटर एकजुट तो कत्तई नहीं हैं. हाल ही में समाजवादी पार्टी के महासचिव और अखिलेश के सबसे खास चाचा रामगोपाल यादव के संसदीय जीवन के 25 साल पूरे होने पर नरेश अग्रवाल ने दिल्ली के एक 5 सितारा होटल में कार्यक्रम आयोजित किया था. कार्यक्रम में पीएम और बीजेपी के तमाम नेता तो नज़र आये लेकिन यादव परिवार ही गायब रहा. इस दरार को बीजेपी बारीकी से देख रही है.
हालांकि लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने ये बात ज़ोर शोर से कही थी कि ओबीसी आरक्षण का सबसे ज्यादा फायदा यादवों ने ही उठाया है. यादवों की दबंगई को भी मुद्दा बनाया गया था. यही नहीं योगी ने भी लोक सेवा आयोग में यादव जाति के लोगो की भर्ती का आरोप लगाते हुए जांच की घोषणा भी की है. ऐसे में यादव समाज क्या बीजेपी का भरोसा कर पायेगा? और क्या यादव विरोध के नाम पर बीजेपी से जुड़ा पिछड़ा वर्ग यादवों को बर्दाश्त कर पायेगा? ये सब एक सवाल भी हैं और अमित शाह की असली चुनौती भी.
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