निर्णय में कमी की बलि चढ़ी मुंबई :अनिल गलगली
मुंबई सहित महाराष्ट्र और भारत में कोरोना अपना पैर पसारने में कामयाब हुआ हैं। महाराष्ट्र और खासकर मुंबई में 1 लाख से अधिक कोरोना मरीज पाए गए हैं। लॉकडाउन और जनता पर पाबंदियों का प्रहार भी कोरोना रोक नहीं पाया। नियोजन की कमी और अतिआत्मविश्वास ने कोरोना की लड़ाई को बेकार सा कर दिया हैं। वहीं दूसरीओर सरकार और अफसरशाही घर-घर में जांच की आसान और सरल प्रक्रिया को नजरअंदाज करने से मरीजों की संख्या और मौत के आंकड़े बढ़ते ही जा रहे हैं।
22 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जनता कर्फ़्यू के बाद महाराष्ट्र की ठाकरे सरकार ने आननफानन में लॉकडाउन की घोषणा की। जल्दबाजी और अध्ययन के बिना लागू किया लॉकडाउन के दौरान जो एहतियात बरतनी चाहिए थी उसे नजरअंदाज किया। महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री राजेश टोपे प्रतिदिन अपनी संघर्ष की गाथाएं तो बया कर रहे थे लेकिन जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं थे। मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे अफसरों की ब्रीफिंग कर आगे बढ़ते नहीं दिखाए दिए। इसे पहले कुछ दिनों तक लोगों ने सराहा और सरकारी प्रयास को शाबासकी दे डाली। लेकिन दुर्भाग्य से कोरोना का ग्राफ बढ़ रहा था और बढ़ते-बढ़ते 1 लाख पार हो गया वहीं मुंबई में यहीं आंकड़ा 55 हजार के पार हुआ।
महाराष्ट्र सरकार कोई जादूगर नहीं हैं ना इनसे कोई चमत्कार की अपेक्षा कर रहा हैं। लेकिन जो मूल चीजें थी जिसे पूर्ण कर शहर और राज्य को कोरोना मुक्त करना इतना कठीन भी नहीं था। सरकार ने राज्य और मनपा के डॉक्टरों पर भरोसा कायम करने के बजाय एक ऐसा टास्क फोर्स बनाया जो कोरोना को रोकने के बजाय गलत निर्णय और कुंठित मानसिकता की बलि चढ़ गया। एक निजी अस्पताल के सीईओ को फोर्स का मुखिया बनाकर सरकार ने गलतियों का सिलसिला शुरु कर दिया। टास्क फोर्स ने मुंबई के हालत और मौजूदा स्थितियों का अध्ययन किए बिना एक के बाद एक सभी अस्पतालों को कोविडमय बनाकर मुंबई की स्वास्थ्य सेवा को पंगु बना दिया। जिससे कोविड न होते हुए भी आम नागरिकों को अन्य बीमारियों के लिए मनपा और सरकारी अस्पताल में पाबंदी लगी। कोविड और नॉन कोविड का चकल्लस से स्वास्थ्य सेवा चरमराई गई और लोगों के अलावा सरकारी अधिकारियों और कमर्चारियों में भी भय का माहौल बन गया।
मुंबई, पुणे जैसे शहरों में अस्पताल और बेड को लेकर मारामारी मच गई। लेकिन सरकार ने यह जानकारी को ऑनलाइन करने के बजाय ऑफलाइन कर मौत का आमंत्रित किया। पहले एम्बुलेंस और बाद में बेड के लिए कोविड मरीजों को चप्पा- चप्पा तलाश करने की स्थिती बन गई। दूसरी बात 22 मार्च से लेकर अबतक मुंबई हो या पुणे में कोविड मरीजों को तलाशने और उसका इलाज करने की मुहिम को नजरअंदाज किया गया। आज भी पल्स पोलियो हो या राष्ट्रीय जनगणना अभियान, घर-घर जाकर लोगों से सरकार रुबरु होती हैं। लेकिन कोविड के मामले में इस शानदार और प्रभावशाली परंपरा को त्यागने का काम सरकार और मनपा ने किया।
निर्णय और कार्यान्वयन में सरकार से चूक हो गई हैं। हाफ़कीन जैसी संस्था कोविड की 24 रिपोर्ट को एक घंटे में देनेवाली मशीन को लेकर इतना आगे आया ही नहीं। बाद में विवाद होने पर टेंडर खुल गया लेकिन अबतक यह मशीन विदेश से आई नहीं हैं। मास्क,वेंटिलेटर, ऑक्सीजन और दवाओं को ख़रीदने में चला भाई-भतीजावाद किसी से छिप नहीं पाया हैं। अब कौन टोपी पहना रहा हैं या कमिशन खोरी के प्रयास में जनता के जीवन से खेल रहा था, इसका हिसाब विधाता लेकर ही रहेंगा।
मुंबई में स्वास्थ्य सेवा और उससे जुड़े स्टाफ की कहानियां अलग हैं। कुछ अफसरों ने बेड्स पर बेड्स बनाने का धंदा ही शुरु किया जबकि पहले लॉकडाउन में घर-घर जांच कर मुंबई के 227 वार्ड में घुसकर काम हो सकता था जिससे कोविड मरीज को बाहर निकालकर उसका इलाज और बाद में तंदुरुस्त बनाया जा सकता था। वरली और धारावी में यही प्रक्रिया अपनाकर मनपा ने कोरोना को नियंत्रित किया हैं। बेड्स बनाए तो गए लेकिन देखरेख के लिए डॉक्टर्स और नर्स की कमी से यह व्यवस्था बेकार साबित हुई। इससे कोविड का इलाज करनेवाले डॉक्टर और स्टाफ पर क्षमता से अधिक मरीजों की जिम्मेदारी थोपी गई।
लॉकडाउन कोई अंतिम विकल्प नहीं हैं। लॉकडाउन में घर-घर घुसकर शत प्रतिशत लोगों की जांच संभव होती हैं। दुर्भाग्य से सरकार, अफसर और जनप्रतिनिधियों से यह संभावना छूट ही गई।लॉकडाउन को संभावना में तब्दील कर मुंबई सहित महाराष्ट्र को कोरोना मुक्त करने का सपना फिलहाल पूरा होता नहीं दिख रहा हैं लेकिन निश्चित तौर पर वैश्विक पटल पर महामारी के तौर पैर पसारे कोरोना का अंत होगा ही, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती हैं।