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व्यंग ही व्यंग

सामयिक हास्य-व्यंग्य रचना रो....ना....धो....ना......और कोरोना!

सामयिक हास्य-व्यंग्य रचना   रो....ना....धो....ना......और कोरोना!
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- रेजी लारेंस राॅस

ये कहाँ आ गये हम! जहाँं विज्ञान के अनन्त रास्ते खुलते हैं और फिर भी एक नये बंधन में जकड़ गये हैं। अजब है ये आधुनिक बेबसी, जहाँ बड़े से बड़ा ज्ञानी-पुजारी, धनी-ध्यानी, चिंतक-दार्शनिक, बुद्धिजीवी, कवि, गायक-नायक, महानायक, आम ओ ख़ास सब कोरोना का ही राग अलाप रहे हैं। तो ऐसे समय में हमने भी सोचा चलो, कुछ बातें रोने रुलाने के अलावा भी कर ली जाए। एक तरफ विचार हैं, सोच है दूरदर्शिता है तो दूसरी तरफ है महज एक भेड़चाल। मजे की बात यह है कि क्या बड़ा- क्या छोटा, क्या अमीर क्या गरीब, सब एक समान, एक कतार में, कमोबेश लगभग एक ही ख्वाहिश के साथ रोज दिन काट रहे हैं कि आखिर कब ख़त्म होगा ये लाॅकडाउन! गृहस्थी की गाड़ी तो खींचनी ही खींचनी है तो जैसे तैसे घड़े में कंकड़ डाल-डाल के लाॅकडाउन के दिन कट ही रहे हैं ये। कहीं भीतर एक डर का काला नाग भी कुण्डली मारे बैठा है....जो गाहे-बगाहे फन काढ़ता है, कि बचेंगे या इस बार बचेंगे ही नहीं।

अच्छा, फलसफा छोड़ें, थोड़ी दुनियादारी की बात की ली जाए। पेशानी पर कम से कम दिन में एक बार ये सोच के माथे पर शिकन जरूर ख़िंच आती है कि कितने दिनों तक की रसद या यूँ कहे घर का राशन बचा हुआ है! कमबख़्त नामुराद नुमाइंदों ने भी समय रहते बाजार लूटने का सुनहरा अवसर जो खो दिया था। अब तो बाजार से भी सैनेटाइज़र, डिटाॅल, मास्क सभी आउट ऑफ स्टॉक हो गया है। ज्योतिषशास्त्र के पंडित भी आशंकित हैं, कि इस लाॅकडाउन में न किसी को चूना लगा सकते न ही रोब जमा सकते हैं। पता नहीं कब खुद ही कोरोना पॉजिटिव डिक्लेयर कर दिये जाएँ। माननीय नेताजी भी अपने आलीशान दड़बों में सोशल डिस्टेन्स के नाम पर दुबके हुए इंतजार कर रहे हैं कि कब कोई बड़ी समाजसेवी या वल्र्ड बैंक जैसी संस्था से सैनेटाइज़र, और मास्क वगैरह की लम्बी-चैड़ी खेप आए तो उसे अपने क्षेत्र के बहुउपयोगी, बहुउद्देष्यीय सामूहिक कल्याण मंडप यानी साफ़तौर पर कहें तो निजी फार्म हाउस अथवा गोदान में ट्रान्सफर करवा दें।

हम खुद भी किसी से कम थोड़े ही हैं, इधर मन में आया और उधर मैंने भी फौरन हमेशा मित्रवत रहने वाले प्रभु कृष्ण से डाइरेक्ट हाॅटलाइन पर काल की- ' सच-सच बताओ भला ये सिलसिला कब तक चलेगा?' वो ज़रूर चिरपरिचित अंदाज़ में मुस्कराये होंगे। अपने मुस्कराने भर के पाॅज़ के बाद प्रभु तत्काल बोले- 'बेवजह की बातों में वक़्त न गवां नादान, जा फौरन चौराहे जा, ठेले पर से दो किलो प्याज़ - दो किलो और आलू भागकर ले आ......तू इधर कोरोना का रोना रोयेगा और ठेले पर प्याज़ के छिलके और आलुओं से निकली मिट्टी भर रह जायेगा।.....नहीं तो फिर उपदेश सुन- नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः.......'।

'जा रहा हूं...जा रहा हूं......'- मेरी सारी बेतकल्लुफी धरी की धरी रह गई नटखट नंदकिशोर के आगे। ये यशोदा का लाल अबतक बड़ा न हुआ। या तो गोपी समझ ठिठोली करता है या फिर अर्जुन जान उपदेश झाड़ना शुरू कर देता है। इससे ज्यादा की उम्मीद करना भी बेईमानी होती क्योंकि मैं तो आखिर उनके सामने ठहरा 'सुदामा'।

वक़्त कितना भी क्यूँ न बदल गया हो, ज़माना भले ही कितना भी माडर्न क्यूँ न हो गया हो पर सुदामा निर्धन था, है और निर्धन ही रहेगा। मानो निर्धनता का तो सुदामा के पास सतयुग से कलयुग और युगों युग तक का कॉपीराइट सुरक्षित है। मैंने भी अपने सखा की बात गांठ बांध ली और झोला उठाकर बाहर की ओर लपका ही था कि श्रीमतीजी चिल्लायी- 'अरे दुपट्टा तो लेते जाओ, मास्क का काम यही करेगा। मैं भी आज्ञाकारी पति कि तरह वापस मुड़ पड़ा, कि चलो थैला अगर भर भी जाये तो नींबू, मिर्चे, अदरक, धनिया-पुदीना बांधने के भी काम आएगा ये दुपट्टा।

तो जनाब सामाजिक दृष्टि से इस कठिन समय में मैं भी एक ज़िम्मेदार नागरिक कि तरह सारी लेटैस्ट एडवाईजरीज़ का पालन करते हुए दिखना चाहता हूं। डरते-सहमते, मुंह-छिपाते मैं चौराहे की ओर बढ़ा हालांकि, मुंह छिपाने की ज़रूरत कतई नहीं थी। दुपट्टे में हर बाला दस्युसुंदरी की मानिंद दिखती है तो मेरा मुंह भी एक वीर बाला के दुपट्टे ने इस कदर दबोचा हुआ था कि खुद मैं अगर अपने को अपने मोबाइल फोन के कैमरे में देखूं तो डपट बैठूंगा- 'क्यों बे! जब चेहरा नहीं दिखाना था तो वाॅइस काल करता, वीडिये काल क्यों की?'

बहरहाल, मुहल्ले की गलियां सूनी थीं, हां मेरे जैसे चंद आज्ञाकारी पति ज़रूर झोला लिए मेरी प्रतिस्पर्धा में चैराहे तक बढ़ चुके थे। मैं वीरों कि तरह जैसे ही सब्जी वाले के पास पहुंचा कि वह बोल पड़ा,- 'भैया आप लेट हो गए या यूँ समझे कि बहुत ही लेट'। मैं तो चौराहे पर ही लेट गया, जब वह बोला- 'क्या बतायें भैयाजी अपने दबंग नेता जी के गुर्गे आलू प्याज की पूरी कैरट ही ले गए।' यह सुनकर मैं तो चौराहेे पर ही प्रसून जोशी के गीत की तरह 'छम से बिखर' गया। मुझ दीन हीन सुदामा के लिए मानो यह लाकडाउन 21 दिन न होकर, 21 महीनों बनाम 21 सालों का हो गया। फिर भी सखा कृष्ण न याद आए सामने आया मुझे खाली थैला लाते देख श्रीमती का चेहरा! हां बैकग्राउण्ड में जरूर रसखान का कवित्त चल रहा था- '......देख सुदामा की दीन दशा.......' हाय-हाय! मैं ग़रीब सुदामा तो बीच बाजार में ही लूट गया था, दिन के उजियाले में भी बिना किसी अपील के ब्लैकआउट हो गया था। फिर अचानक ही अंतर में व्हाट्एप भगवान जगे- और इस कोरोना काल का एक संगीतमय आडियो-वीडियो मैसेज फूट पड़ा- 'दिया जलाओ-दिया जलाओ......'

चेतना लौटी तो विचार उठा कि ढाई इंच जुबान और शारीरिक भोग विलास के लिए हम इंसानों ने प्रकृति के संसाधनों का अनावश्यक दोहन किया, उसे कुरूप किया। इसी का ही नतीजा है, कि आज प्रकृति अपने खूंख्वार विकराल रूप में सारे मानव समाज को जवाब दे रही है, सवाल दर सवाल कर रही है। सोचिए, ईश्वर ने हमें क्या बनाया था और हम क्या से क्या बन गए! और हम आज हम कहाँ खड़ा हैं!! क्या यही विकास, आधुनिकता, और सफलता का पैमाना और फसाना है, कि आज हर तरफ कोरोना का ही रोना-धोना है!.....मगर इम्तिहान कैसा भी होना हो, हमें नहीं रोना है....इसे धोना है।

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