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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और श्रीमुख "बिरहिन दिन अगम अपारे"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  बिरहिन दिन अगम अपारे
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बिरनाबन गोकुल तन आवत, सघन तिरनन के छांवsss
ए ऊधो बाबा, मोहि बृज बिसरत नाहि...

सारंगी टेर कर सूरदास का भजन गाते जोगी को रमौतिया ने जैसे ही देखा, उसका कलेजा धक से हो गया। मन केे किसी कोने से आवाज निकली- वही है। बीस बरस क्या, बीस जनम बाद भी उसको देख कर रमावती से पहचानने में गलती नही हो सकती। कितना भी भेख क्यों न बदल ले, रमावती की आँखे धोखा नही खा सकती है।
रमावती चाह कर भी खुद को रोक नही पायी, दौड़ कर जोगी के पास पहुँची और पूछ पड़ी- तुम गोधन हो न?
जोगी ने तनिक आश्चर्य के साथ उसकी ओर देखा और कुछ देर तक देखता रहा। फिर धीरे से मुस्कुरा कर बोला- तोहे भ्रम हुआ है मलकिनी, हम कवनो गोधन ना हैं, हम जोगी गोबर्धननाथ हैं।
रमावती ने झिड़की दी- अरे जा, भेख बदल कर झूठ बोल रहे हो तुम। हम खूब चिन्ह रहे हैं तुमको, तुम गोधन ही हो। आये हो महतारी से भिच्छा लेने।
जोगी मुस्कुरा उठा; बोला- जोगी के लिए हर इस्त्री महतारी ही होत है मलकिनी। हर भिच्छा महतारी का भिच्छा ही होत है।
- अरे बस भी करो। जोगी बने हो तो जोगी का धरम भी निबाहो। तुम का जानो कि तुम्हारे घर से भाग कर जोगी बनने के बाद से काकी कइसे जी रही है। अब आये हो महतारी से भिच्छा ले कर मुक्ति पाने। जान लो; तुम जैसे जोगियों को कभी मुक्ति नही मिलेगी।
जाने क्यों रमावती की आवाज भारी हो उठी थी।
जोगी ने सूखे स्वर में कहा- काहे जोगी को श्राप देती हो मलकिनी, हमने तुम्हारा का बिगाड़ा है। जाओ अपना काम देखो।
जोगी भजन गाते हुए आगे बढ़ गया। रमावती समझ नही पायी कि उसे खुश होना चाहिए या दुखी। वह उदास सी घर लौट पड़ी, पर शाम तक पूरा गांव जान गया कि मुखिया जी के बथान में जिस जोगी का डेरा पड़ा है वह गनेश भगत का बड़का बेटा गोधन है।
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आज खेत में सोहनी करती रमावती बड़ी खुश थी। रोज की तरह आज भी सभी जनियों ने उसे झूमर गाने के लिए उकसाया तो बिना ना नुकुर के मान गयी; और झूम कर कढ़ाया-
साईकिल के टूटल बा चएनवा
त गिरल बा सजनवा ए सखी...
रमावती बिधवा है। आज किसी को याद हो न हो; पर आज से बीस साल पहले सारा गांव जानता था सनकनटोली की सबसे सुंदर लड़की मन ही मन गनेश भगत के गवैये लड़के गोधन पर रिझी हुई है। प्रेम को नीचता समझने वाले गंवई माहौल ने भी तब उनके नाम की कोई कहानी नही बनाई थी, क्योंकि उन दोनों को एकसाथ देख कर किसी के मन में पाप नही आता था। सबने मान लिया था कि रमावती जैसी लड़की के लिए गोधन जैसा ही लड़का मिलना चाहिए। पर सबके मान लेने से क्या होता है, जिसको मानना चाहिए वही माना। भारत में बेटे का प्रेम छाती उतान करने का मौका दे भी दे, बेटी का प्रेम तो सर ही झुकवाता है।रमावती के बाबू अपनी मोछ के पक्के थे। बेटी ने प्रेम का पाप किया तो उन्होंने झट से पाप धोने का इंतजाम कर दिया। चार दिन के अंदर उन्होंने अपनी मोछ की ताव बचाने के लिए रमावती का ब्याह एक पैतालीस साल के बुड्ढे से तय कर दिया, और दो दिन के अंदर ही रमावती की मांग में सिंदूर भी पड़ गया। उसी रात को गोधन भी जाने कहाँ गायब हो गया। तबसे अब तक कुछ पता नही चला।
इधर शादी के छः महीने बाद ही रमावती के ससुराल से खबर आई कि पाहून को मलेरिया ले डूबा। गौना के पहले ही बिधवा हुई रमावती कभी खुश नही दिखी, पर खेतों में काम करते समय उसके गीतों की बड़ी धूम होती थी। शायद उसके गले में उसकी और गणेश, दोनों की लोच उतर आई थी।
पिछले बीस साल में कभी वह आज की तरह खुश नही दिखी थी। उसने बतौना बता कर गीत आगे बढ़ाया-
अरे ससुरा में रहितीं त झाड़ के उठइतीं,
नइहर में लागेला सरमवा कि गिरल बा सजनवा, ए सखी...
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शाम को मुखिया जी के बथान में गांव भर की बुढियों की भीड़ लग गयी थी। सबने एक सुर में सकार लिया कि जोगी कोई और नहीं गोधन ही है। पर जोगी माने तब न! गोधन की माँ तो फूट फूट कर रो उठी थी। बार बार कहती गयी- अरे मान जा बेटा, सबकी आँखे धोखा खा जाएँ पर माँ की आँखे धोखा नही खा सकतीं। काहे नही मान जाता बेटा कि तू मेरा ही बेटा है। अरे मैं तुम्हे रोकूंगी नहीं, बस मरते मरते संतोष रहेगा कि बेटा सलामत है। लेकिन जोगी तनिक भी नही पसीजा।वह मुस्कुरा कर इतना ही कहता रहा- तुमको भ्रम है माइ, हम गोधन नही हैं। हमारा जनम तो आसाम में हुआ था।
अंत में बुढ़िया खिसिया कर बोली- तो मेरी भी सुन ले बेटा, मैं भी तुझे भिच्छा नही दूंगी। मुझे पता है कि जबतक माँ से भिच्छा न मिले, तबतक जोगी की मुक्ति नही होती। मैं भी तुझे मुक्ति न मिलने दूंगी।
जोगी की मुस्कुराहट गायब हो गयी। लोग भी धीरे धीरे अपने घर लौट गए।
जोगी रोज पुरे गांव का फेर लगाता रहा। कभी सूरदास का भजन गाता तो कभी कबीर का निर्गुन। पंद्रह दिन बाद उसने भिच्छा लेना सुरु किया। सारे गांव ने भिच्छा दिया पर न दिया तो गोधन की माँ ने। रोज जोगी उसके दुआर पर सारंगी बजा कर टेर लगाता, पर बुढ़िया घर से न निकलती।
धीरे धीरे महीना पूरा होने को आ गया था। जोगी किसी गांव में महीना पूरा नही करते, सो वह भी लौटने को तैयार हो गया था। सिर्फ एक घर बचा था गोधन का, जहां से भिच्छा नही मिली थी, सो आजकल वह उस दुआर का दिन में तीन फेरा लगाता था, पर बुढ़िया ने जैसे ठान लिया था कि भिच्छा नही देगी।
आखिर एक दिन जोगी ने अलख लगाई- बाबा कल जा रहे हैं माइ, अब तो भिच्छा दे दो।
बुढ़िया निकल कर गरजी- नही दूंगी रे झूठे।मुझे रुला कर मुक्ति चाहता है न, वो तुझे कभी नही मिलेगी।
जोगी उदास डेरे पर लौट चला।
शाम को जोगी समान समेट रहा था तभी डेरे पर रमावती आई और जैसे झनक कर बोली- मान क्यों नही जाते गोधन। का मिलेगा तुम्हे काकी को रुला कर।
जोगी उदास था। बिना मुस्कुराये बोला- भरम में पड़ी हो मलकिनी, हम गोधन नहीं है। तुमलोग ब्यर्थ में हमे दुःख दे रहे हो। इस दुनिया में गोधन जैसे अभागों की कोई कमी थोड़ी है।
रमावती खीज उठी। बोली- अरे जाओ भी। किसको सजा दे रहे हो? मेरे बाबू के पाप की सजा तो बीस साल से मैं झेल ही रही हूँ, अब और क्या दुःख दोगे।
जोगी देर तक उदास, सोचता रहा। फिर रमावती के चेहरे पर आँख गड़ा कर बोला- रुक भी जाऊं तो क्या पा लेगी रमावती? दुःख ही न..
रमावती उसकी ओर देखती रह गयी। उसके मुह से बोल न फूटे।
अगली सुबह जब जोगी गांव से जाने लगा तो देखा- हाथ में अनाज की डलिया और एक धोती लिए गनेश की माँ खड़ी है। बुढ़िया बोली- माफ़ करना बेटा, मैंने झूठ मुठ ही तुमको दुःख दिया। मुझे रात को रमावती ने बताया कि तुम्हारी पीठ पर वह दाग नही है जो गोधन की पीठ पर था। भिच्छा ले लो बेटा। तुम जिसके भी लाल हो, मुझे भी अपनी माँ ही समझना। जाओ तुम्हे मुक्ति मिले।
जोगी ने भिच्छा लिया और लगे हाथ बुढ़िया के पैर छू लिया। कुछ बोला नहीं, उसकी आवाज जैसे बैठ गयी थी।
पीछे खड़ी रमावती ने मुस्कुरा कर कहा- जाओ जोगी बाबा, खुश रहो। फिर कभी तुम्हे इस गांव में आने की जरूरत नही पड़ेगी।
जोगी सारंगी बजाते गोरखपुर लौट चला।
उस दिन खेत में सोहनी करते करते रमावती ने बिना किसी के कहे गीत कढ़ाया- बिरहिन दिन अगम अपारे जी...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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