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भोजपुरी कहानिया

स्वामी आलोकदेव, एक संघर्ष...

स्वामी आलोकदेव, एक संघर्ष...
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बागी बलिया की धरती,और बीसवीं शताब्दी का सातवां दशक। यह वह कालखण्ड था जब 'तीन' वाले ब्राह्मण 'तेरह' वाले ब्राह्मणों का जम के शोषण करते थे। दुष्ट मिसीर,तिवारी और शुकुल मिल कर पाण्डेय लोगों पर इतना अत्याचार करते कि उसके आगे मुगलों का अत्याचार भी कम लगने लगता। मिसिरों के लड़के खेल-खेल में ही पाण्डेय लड़कों को पकड़ कर पीटने लगते और पाण्डेय कुछ नहीं कर पाते। गुल्ली डंडे के खेल में भले कोई हारे, पादना पाण्डेय लोगों को ही पड़ता था। अगर कोई पाण्डेय मिसिरों के टोले से गुजर भी जाता तो हरामखोर मिसीर उसे पकड़वा कर सौ सौ कोड़े लगवाते। कोड़े मारने की एक अद्भुत विधि तैयार की थी क्रूर मिसिरों ने। जिस पाण्डेय को कोड़ा मारना होता उसे उल्टे घड़े पर खड़ा करा दिया जाता था, उसके बाद कोई मिसीर उसके पृष्ट भाग पर सटासट कोड़े मारता। इस प्रक्रिया का सबसे काला पक्ष यह था कि यदि कोड़े मारते समय पाण्डेय का पैर घड़े पर से नीचे उतर जाय, या घड़ा फूट जाय तो नए घड़े पर खड़ा कर गिनती दुबारा एक से प्रारम्भ की जाती थी। बस यूं समझिए कि मिसिरों के आतंक के कारण पाण्डेय लोगों का जीवन नरक हो गया था।,
शोषण के ऐसे कालखण्ड में बलिया के रतसड गांव के एक सामान्य पाण्डेय परिवार में एक असामान्य बालक का जन्म हुआ। माता पिता ने बड़े प्रेम से उसका नाम रखा आलोक, पर आलोक नाम पर गांव में बवाल हो गया। गांव के दुष्ट मिसीर कहने लगे कि "पाण्डेय हो के आलोक नाम रखेगा? इसका नाम तिमिर रखो।"
पर उस अद्भुत बालक के माता पिता ने उसका नाम नहीं बदला, वे उसे आलोक ही कहते। धीरे धीरे आलोक बड़े होने लगे। वे बचपन से ही अत्यंत मेधावी छात्र थे। जिस आयु में बच्चे अपनी क्लास टीचर से "मे आई गो आउट मीस" कहने में कांपते हैं, उस आयु में ही आलोक उन्हें निःसंकोच "आई लभ यू डार्लिंग" कह देते।
आलोक जब पाँचवी कक्षा में पहुँचे तो उन्हें एक कन्या से प्यार हो गया। फिर क्या था, गांव के सारे मिसीर पिनिक गए। कहने लगे, पाण्डेय हो के प्यार करने की इसकी हिम्मत कैसे हुई? पाण्डेय के लिए तो 'प्यार' का नाम लेने से पूर्व भी किसी मिसीर से अनापत्ति प्रमाण पत्र लेने का विधान है। क्षण भर में ही सारे मिसिरों ने उन्हें पकड़ कर पेंड से बांध दिया। उसके बाद सब ने मिल कर सजा पर निर्णय लिया कि आलोक के पृष्ट भाग पर एक सौ एक कन्याओं से एक सौ एक-एक कोड़ा लगवाया जाय। आलोक कोंय कोंय करते रहे पर उन्हें कुल 10201 कोड़े खाने पड़े। आलोक शरीर से तनिक हष्ट-पुष्ट थे, सो 101 कोड़ा प्रति कन्या की दर से कुल 101 कन्याओं से मार खाने के पश्चात भी वे खड़े रहे, अड़े रहे।
इस घटना ने आलोक के बालमन पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा। उनके हृदय में विरोध के अंकुर तब ही फूट पड़े। इस घटना के वर्ष भर बाद आलोक के साथ एक और घटना घटी जिसने उनका जीवन ही बदल दिया। हुआ यह कि एक दिन आलोक अपनी कक्षा में काला चश्मा पहन कर चले गए। काले चश्मे के कारण वे तनिक अधिक स्मार्ट लगने लगे थे, सो क्लास के सभी मिसीर जल गए। इसी जलन के कारण एक मिसीर ने उनके चश्मे का एक सीसा निकाल लिया। आलोक को यह बात पता नहीं चली पर अब उनके चश्मे में एक आंख पर काला सीसा था, जबकि दूसरी आंख खाली थी। देखने वालों को उनकी एक आंख दिख रही पर दूसरी नहीं दिख रही थी। कुछ समय बाद जब उनकी पलक झपकी तो उनके बगल में बैठी कन्या को लगा कि आलोक उसे आँख मार रहे हैं। हालांकि आलोक ने अपनी दोनों पलकें झपकाई थी, पर कन्या को तो मात्र एक आंख का बन्द होना ही दिखा था। तुरंत पूरे विद्यालय में शोर मच गया कि छठी कक्षा में एक पाण्डेय ने कन्या को आँख मार दिया। पल भर में ही सारे शोषक मिसीर जुट गए, और आलोक की मुश्कें कस दी गईं। आँख मारने के मिथ्या आरोप में आलोक को पुनः सौ कोड़े की सजा हुई, और इस बार कोड़े मारने की जिम्मेवारी अरुण कुमार शुक्ला नाम के एक क्रूर शुकुल को मिली। क्रूर अरुण इतना सिद्धहस्त था कि कोड़े एक इंच भी इधर उधर नहीं गिरते थे। एक ही स्थान पर सौ कोड़े खाने के बाद आलोक के मुह पर बामपंथी आभा उभर आई, और वे चिल्ला उठे- लाल सलाम!
क्रूर मिसीर शुकुल जब उनके सलाम को लाल कर के चले गए, तब आलोक ने अपने दशों द्वारों को साक्षी मान कर प्रण लिया- जिस आँख मारने के मिथ्या आरोप के कारण मेरे पाकिस्तान को चीन बनाया गया है, उस आँख मारने की कला में प्रवीण हो कर ही चैन से बैठूंगा।
अगले दिन से आलोक पूरी तैयारी के साथ आँख मारने लगे। वे इतनी सफाई से आँख मारते थे कि पीड़ित को पता नहीं चलता था कि कोई उसे आँख मार रहा है। और यदि कभी पीड़ित उन्हें आँख मारते देख भी लेती तो उसे क्रोध नहीं आता था, क्योंकि आलोक आँख मारने के समय सलवार सूट पहना करते थे सो पीड़ित उन्हें लड़का नहीं लड़की समझ लेती थी। यदि कभी पीड़ित उन्हें ध्यान से देख कर पहचानने का प्रयास करती तो वे सटाक से भाग खड़े होते। पर यह चोरी आखिर कब तक चलती? एक दिन यूँ ही सलवार पहन कर भागते वक्त कुछ मिसिरों ने उन्हें पहचान लिया। पल भर में ही उन्हें पकड़ लिया गया और इस बार मिसिरों ने उल्टे घड़े वाली सजा सुनाई। इस बार 100 कोड़े मारने का जिम्मा शोषित वर्ग के ही एक दूसरे पाण्डेय नरेन्द्र को दिया गया। नरेन्द्र पाण्डेय जाने क्यों हमेशा आलोक से चिढ़े रहते थे, सो इस बार उन्होंने अपनी चिढ़ निकाल लेने का मन बनाया। उल्टे घड़े पर खड़े आलोक के पाकिस्तान पर कोड़ा मारते नरेंद्र जब 98 पर पहुँचे तो जानबूझ कर 99वां कोड़ा उन्होंने आलोक के पैर पर मार दिया। आलोक का पैर कोड़ा खा कर हिला और घड़े से उतर गया।
अब फिर से नया घड़ा मंगाया गया और कोड़े की गिनती एक से प्रारम्भ हुई। फिर जैसे ही गिनती 98 पर पहुँची, नरेन्द्र ने एक कोड़ा पैर पर लगाया और आलोक का पैर उतर गया। फिर नया घड़ा...
शाम होते होते जब बीसवें घड़े की बारी आ गयी तब आलोक त्राहि त्राहि कर उठे। शाम हो गयी थी और मिसिरों को घर जाने की जल्दी हो रही थी, सो सब ने मिल कर इस सजा को अगले दिन के लिए स्थगित कर दिया। तय हुआ कि अगली सुबह नए घड़े पर फिर से गिनती प्रारम्भ होगी।
पर ऐसा हो नहीं पाया। योद्धा आलोक रात को ही घर से भाग खड़े हुए, और फेफना स्टेशन पर ट्रेन में मोमफल्ली बेचने का काम प्रारम्भ कर दिया। हालांकि मोमफल्ली बेचने के पीछे उनका मूल उद्देश्य कुछ और था। वे ट्रेन में वसूली करने वाले किन्नरों को आँख मार मार कर आँख मारने की कला में माहिर हो रहे थे।
कहते हैं, मनुष्य चाहे तो क्या नहीं हो सकता! तीन वर्षों की कठिन तपस्या और सतत प्रयास के बल पर आलोक पाण्डेय आँख मारने की कला में सिद्धहस्त हो गए। अब वे एक साथ तीन तीन दिशा में आँख मार लेते थे। लोग उन्हें आँख मारू बाबा के नाम से जानने लगे।
तीन वर्ष बाद जब आलोक वापस गांव पहुँचे तो अब वे स्वामी आलोकदेव हो गए थे। जिन मिसिरों ने उन्हें आँख मारने के कारण प्रताड़ित किया था, उन्हीं के बेटे अब आलोकदेव जी के पास आँख मारने की कोचिंग लेने आते थे।
आलोक पाण्डेय ने अपने संघर्ष के बल पर दुनिया को बदल दिया था।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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