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भोजपुरी कहानिया

उलझी ज़िन्दगी, कच्ची उम्र और रिश्ते...

उलझी ज़िन्दगी, कच्ची उम्र और रिश्ते...
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जब रात में बुआ के चीखने चिल्लाने की आवाज सुनकर मेरी नींद खुली तो देखा कि फूफ़ा उन्हें पीट रहे थे और बुआ लगातार चिल्लाए जा रही थी, "मत मारिये, रुक जाइये! मत मारिये वो सुन लेगा".

"साली कुत्ती अपना खर्चा तो संभल नहीं रहा है, इसको बुलाने की क्या जरूरत थी".

"मुफ्त में थोड़ी न रहने आया है, भइया पैसा भेज रहे हैं न".

"इतने कम पैसों में क्या होगा? उतने पैसों की तो फीस जमा कर रहा है वो, खाना तो मुफ्त का ही खा रहा है न"

मैं बड़ी देर से ये सब सुन रहा था और समझ चुका था कि झगड़ा किस बात को लेकर है. यूँ तो घर पर सबको फूफ़ा के ऐब के बारे में पता था कि फूफ़ा शराबी हैं, रात को देर से घर आते हैं, कभी कभी बुआ से लड़ाई भी हो जाती है लेकिन मुझे यहां आकर पता चला कि मामला उतना सीधा नहीं है जितना दूर से दिखता है.
मैं घबरा रहा था कि कैसे उन्हें शांत कराऊं फिर कुछ रुककर मैंने अंजान बनते हुए कुछ इस तरह बोला जैसे अभी नींद में हूँ, "क्या हुआ बुआ, इतना शोर क्यों हो रहा है?".

"कुछ नहीं बेटा, टीवी चल रहा है... तू आराम से सो जा".
मैं वापस गेस्टरूम नुमा कमरे में सोने चला गया और राहत कि बात ये थी कि अब सबकुछ शांत हो चुका था.
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यह वो समय था जब मेरी स्कूली शिक्षा समाप्त हो चुकी थी. गांव या आसपास के क्षेत्र में आगे की शिक्षा के लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी. मैं पढ़ाई में इतना ठीक ठाक तो था ही आगे मुझसे उम्मीद की जा सकती थी. हालांकि मेरे घर की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी मगर पिताजी भी इतने असमर्थ न थे कि मेरी पढ़ाई का खर्चा न उठा सकें.
मुश्किल यह थी कि कभी मैं शहर में अकेला रहा नहीं था इसलिये मुझे घरवाले शहर में अकेले छोड़ने से कतराते थे.
एक दिन फोन पर मां की बुआ से बात हो रही थी तो बातों बातों में ही उन्होंने मुझे आगे की पढ़ाई के लिए हल्द्वानी बुला लिया. फिर जब तसल्ली से बैठक हुई और इस बात पर चर्चा हुई तो तय हुआ कि मैं बुआ जी के पास ही रहकर पढ़ाई करूंगा और जो खर्चा आएगा वो पिताजी भेज दिया करेंगे. हालांकि उस वक्त फूफ़ा से भी बात हुई थी और वो राजी भी थे मगर शायद इसबार पिताजी ने कम पैसा भेजा था इसीलिए फूफ़ा ऐसा सलूक कर रहे थे.
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सुबह जब तक मैं उठता तबतक फूफ़ा अपने काम पर जा चुके थे. वह एक प्राइवेट कंपनी में काम करते थे और अपनी तनख्वाह का एक बड़ा हिस्सा शराब पीने में गंवा देते थे.
उनकी कोई संतान नहीं थी. फूफ़ा और बुआ में कभी-कभी इतने झगड़े होते थे कि बात तलाक़ तक पहुंच जाती थी.

मैं उठने के बाद नहा धोकर कोचिंग के लिए निकलने को हुआ तो बुआ मेरे लिए नाश्ता लाने चली गई. यह देखते हुए भी मैं बाहर निकल गया तबतक बुआ दौड़ती हुई आयी और कहने लगी, "अरे! नाश्ता नहीं करोगे क्या? नाश्ता करके जाओ". मैंने मना किया तो बुआ कहने लगी, "क्यों नहीं करोगे नाश्ता? तबियत ठीक तो है न?"

"मैं मुफ़्त की खाता हूं न, कोचिंग की एडवांस फीस जमा नहीं किया होता तो कब का घर चला गया होता, वहीं बाबूजी के खेती-बाड़ी के काम में हाथ बंटाता"

इतना सुनते ही बुआ वहीं बैठकर फूट-फूटकर रोने लगी तब मुझे एहसास हुआ कि यह शब्द मुझे ज़ुबान से नहीं निकालनी चाहिए थी. मैं बुआ को उठाके अंदर लाया.
वो मेरे लिए नाश्ता लायी और मेरे पास ही बैठ गई.
मेरे सर पर हाथ रखकर कहने लगी, "तू उनकी बातों का बुरा मत माना कर, नशे में कुछ भी बक देते हैं".
यह सुनकर मैं मुस्कुराने लगा तो बुआ भी मुस्कुरा पड़ी.
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जिस कोचिंग में मैं पढ़ता था, अनुजा मैम उसी कोचिंग में पोलिटिकल साइंस पढ़ाती थी. एक बार कई दिनों तक वो पढ़ाने नहीं आईं तो कोचिंग मैनेजमेंट से पता चला कि उनकी तबियत खराब होने की वजह से वो नहीं आ पा रही हैं.
जब वो काफी दिनों बाद पढ़ाने आयी तो उनके चेहरे पर एक अजीब तरह की उदासी थी. लेकिन उनसे कुछ बातचीत नहीं होती थी इसलिए मैंने उनपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
कोचिंग से जब छुट्टी में सभी बच्चे घर के लिए निकलने लगे तो उन्होंने मुझे रोका और अपने पास बुलाकर कहा, "जय! तुम कहाँ रहते हो?"
"यहीं कंपनी बाग़ के पास ही गांधी मोहल्ले में रहता हूँ"...मैंने थोड़ा डरते हुए कहा.

"अरे तो इतना घबरा क्यों रहे हो?" और मैं भी तो वहीं रहती हूँ गांधी मोहल्ले में ही. पिछले दो-तीन दिन तुमको कभी छत से तो कभी बालकनी से गुज़रते देखा इसलिए पूछ रही थी"...उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा.

मैं मुस्कुरा ही रहा था क्योंकि मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या रिएक्शन दूं!

कुछ सोचकर उन्होंने फिर कहा, "अगर तुम्हें पोलिटिकल में कुछ प्रॉब्लम आ रही हो तो तुम निःसंकोच मेरे घर पूछने आ जाना। ओके?"

"ओके मैम!"...कहते हुए मैं घर के लिए निकल गया.
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उस दिन घर पर पढ़ते हुए मुझे सचमुच उनका पढ़ाया हुआ कुछ पल्ले नहीं पड़ रहा था. यह शायद इसलिए था क्योंकि वो कई दिनों बाद क्लास लेने आयी थी. शाम का वक़्त था, मैं बुआ को बताकर अनुजा मैम के बताए हुए घर पर चला गया. डोरबेल बजायी तो एक मेरी हमउम्र लड़की ने दरवाज़ा खोला. देखने में बला की खूबसूरत थी. बस उसे देखते ही मैं कुछ देर के लिए सबकुछ भूल गया कि मैं यहां क्यों आया था. उसने कहा, "ओ हेल्लो! किससे मिलना है?"
ज़िन्दगी में पहली बार मैंने इतनी खूबसूरत कोई लड़की बिल्कुल अपने करीब देखी थी. इस समय मैं कुछ भी बोल पाने में असमर्थ था. उसने मुझे ऊपर से नीचे तक देखना शुरू किया और उसकी नज़रें मेरी हाथ में पड़ी रफ कॉपी पर आकर रुक गई.
"ओह, मम्मी से मिलने आये हो?"
मुझे लगा मैं किसी और के घर में आ गया हूँ इसलिए मैंने थोड़े हैरानी भरे स्वर में पूछा, "अनुजा मैम यहीं रहती हैं न?"

"हां हां, यहीं रहती हैं, मैं उनकी बेटी हूँ...रुको मम्मी को बुलाकर लाती हूँ"

अनुजा मैम आयी और मुझे अंदर लेकर गयी. फिर मैं उनसे सवाल पूछने लगा. पंद्रह-बीस मिनट तक उन्होंने मुझे समझाया लेकिन इस दौरान मेरा सारा ध्यान उनकी बेटी के क्रियाकलापों में ही था. अनुजा मैम ने जब उसका नाम पुकारकर उससे पानी मांगा तब जाकर मुझे पता चला कि इसका नाम 'रश्मि' है.

अब यह सिलसिला लगभग हर रोज का हो चला था. मैं अब रोज ही उनके घर पढ़ाई के बहाने से चला जाता था और अब काफ़ी देर तक पढ़ाई के अलावा भी हमारे बीच देशभर की बातें होने लगी. बातों ही बातों में पता चला कि उनके पति का देहरादून में बहुत बड़ा बिजनेस है इसलिये वो हफ्ते में एक ही दिन घर आ पाते हैं. हालांकि मुझे इस बात से बहुत फर्क नहीं पड़ता था. मैं उनकी बेटी रश्मि की तरफ आकर्षित होता जा रहा था, इसका एहसास उन्हें भी था लेकिन न जाने क्यों वो मुझे टोकती नहीं थी.
इस बीच मैं वापस अपने गांव जाने का ख़्याल छोड़ चुका था. अब मुझे यहां आनन्द आने लगा था.

एक दिन मैंने महसूस किया कि अनुजा मैम मुझे एक स्टूडेंट से कुछ ज्यादा समझती हैं. अब वो मुझे पास वाले कंपनी पार्क में भी बुला कर बातें किया करती. पार्क के बाहर एक चाय की टपरी भी थी, हम अब अक्सर वहां चाय पीने लगे.
मैं भी समझ चुका था कि पति की गैरहाजिरी में उन्हें ऐसे इंसान की जरूरत है जिसके साथ वो अपनी बातें साझा कर सके. अपने मन का बोझ हल्का कर सकें. सामने वाले कि बातें भी सुन सके.
उन्हें फिलहाल जो चाहिए था वो शायद मैं दे पा रहा था, और मुझे क्या चाहिए था कुछ पता नहीं...पर अभी जो चल रहा था उससे भी कोई शिकायत नहीं थी.
मेरे करीब बैठकर बातें करने के कारण उन्हें मुझसे कुछ ऐसा लगाव हुआ कि मेरे मुंह से उन्हें "मैम" सुनकर उन्हें कोफ़्त सी होने लगी. हालांकि इसका मुझे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था. ऐसे ही एक दिन जब किसी बात पर मैंने उन्हें मैम कहा तो वो भड़क उठीं. कहने लगी, "ये क्या मैम मैम लगा रखा है, अनुजा! अकेले में मुझे अनुजा बुलाया करो".
यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया.
मुझे ऐसे देखकर वो मुस्कुराने लगी और कहा, "अकेले में मुझे मेरे नाम से बुलाया करो, कोचिंग में तो मैम कहते हो न? उतना ही काफी है!"

मेरे मन में एक अजीब हलचल उठने लगी. इस बीच मुझे रश्मि का भी ख्याल आना बिल्कुल बंद हो गया. मुझे अनुजा मैम अब अपनी आकर्षित करने लगीं. हालांकि अनुजा मैम के चेहरे पर कुछ कुछ झुर्रियों का आगमन हो चला था जो उनकी बढ़ती उम्र को बयां करने के लिए काफ़ी था. ये झुर्रियां उनके द्वारा जिये गए उन अनगिनत किस्सों की गवाह थीं, जिनपर अब सिर्फ और सिर्फ मेरा अधिकार था.
उनके किस्से कहानियों के बीच अब मैं जानबूझकर उनसे कुछ बेहूदे सवाल करने करने लगा था. कुछ ऐसे सवाल, जिनके जवाब दुनिया वालों के पास नहीं होते हैं और होते भी हैं तो कोई जवाब देने के बदले वो सामने वाले को बड़ी चालाकी से दूसरी बातों में उलझा लिया करते है.
हालांकि आश्चर्य की बात यह भी थी कि अनुजा मैम उन सवालों के जवाब भी बड़ी तसल्ली से देती थी.

कभी कभी किसी फालतू बातों पर हमारी नोकझोंक भी हो जाया करती थी. जैसे चाय पीने टपरी पर गए तो देखा कि वो चायवाला ग्राहक से पैसा मिलते ही माथे से लगा लेता है जैसे अब जाकर यानी शाम के समय उसकी बौनी हुई है! मैं मजाक में कहता हूं कि यह उसकी सुबह से पहली चाय बिकी होगी. इसपर वो कहती है कि, "नहीं! हो सकता है उसने आज इसी समय दुकान खोली हो."
तो कभी कभी, सूर्यास्त के बाद आसमान में गहरी लाल किरणें बिखरी हुई रहती थीं तो इस बात की घमासान मचती कि यह किस वर्ण या अल्फाबेट जैसा प्रतीत हो रहा है.
तो इस तरह की बातें हम हमेशा करते रहते थे, हमारी कितनी ही शामें ऐसे ही फिजूल की बहसों में कुर्बान हो जाया करती थी. समय के साथ साथ वो अब अपने पति के किस्से सुनाना बन्द कर चुकी थी, जिन्हें सुनकर अक्सर मैं बिराता था. मेरे साथ शामें बिताकर वो संतुष्ट हो रही थी.
एक दिन वो मुझसे कुछ कह रहीं थी. पार्क के सामने से बकरियों का एक झुंड जा रहा था. मैं चरवाहों, उनकी लाठियां और उनकी रंग-बिरंगी पगड़ियां देखकर रोमांचित हो उठा था.
तभी मैम की आवाज से मेरा ध्यान वापस आया.
"तुम सुन भी रहे हो मैं क्या कह रही हूँ?"
इस दौरान मैंने उनकी उनकी बातों पर जरा भी ध्यान नहीं दिया था इसलिए ऊपर आसमान में देखते हुए कहा, "हूँ..सुन रहा हूं."

फिर मेरे मन में न जाने क्या आया कि बातों ही बातों में मैंने उनसे पूछा, "अनुजा, क्या हमारे बीच प्रेम है?"
पहले तो उन्होंने मुझे घूरा, फिर थोड़ा सख़्त होकर कहा, "नहीं."
फिर कुछ सोचनेे के बाद बोलीं, "हां शायद."

मैं मुस्कुराने लगा लेकिन तभी मुझे महसूस हुआ कि ये प्रेम जो हमारे बीच 'शायद' है, यह कोई तीसरा व्यक्ति है जो हमारे एकांत को किसी भी समय नष्ट कर सकता है.
इस बात पर मैंने घबराते हुए कहा, "क्या जरूरी है प्रेम का होना? इसके बिना हम साथ नहीं रह सकते क्या?"

मैम हैरान होकर मेरी तरफ देखने लगीं. वो कुछ बोलना चाहती थी लेकिन मैंने अपना मुँह दूसरी तरफ कर लिया. और इसी अवस्था में रहते हुए मैंने महसूस किया कि वो भी अपनी नज़रें फेर चुकी हैं और मंद मंद मुस्कुरा रहीं हैं.
"पागल" ... उनके मुंह से अनायास ही निकल पड़ा.

और मैं, मुझे अब दुनिया की कोई परवाह नहीं! मैं जब भी अनुजा के साथ बैठता हूँ, तो जाने कितनों दिनों को एक साथ जी लेता हूं. इस ख़ुशनुमा शाम में सदियों सदियों के लिए यहीं का होकर रह जाता हूँ!

रितिक आर चौहान
बलिया
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