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भोजपुरी कहानिया

खुशियां

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हैलो.... हैलो पापा जी प्रणाम....हैप्पी मकर संक्रांति..!

आफिस के अपने केबिन में शांत बैठे हुए वैभव ने अचानक से कुछ सोच घर पर फोन कर लिया......पहली जॉब का लगना और घर से इतनी दूर आकर अकेले रहना वैभव के लिये किसी वनवास से कम नही था....दिन भर ऑफिस की ख़टर पटर...लम्बी लम्बी मीटिंग्स के दौर.... अब तक के जीवन में हवा में आजाद परिंदे की तरह उड़ रहे वैभव को एक दायरे में कैद करके रख देने के लिये काफी थे.....घर से इतनी दूर इस महानगर में जहाँ उसको जानने वाले चन्द लोग ही थे....वैभव को रास नही आता था पर फिर भी मन मसोस कर....दिल के अरमानो का कत्ल करके वो अपने आप को इस महौल में एडजस्ट करने की कोसिस कर रहा है.....वो तो भला हो फेसबुक का जिसने याद दिला दिया की आज मकर संक्रांति है नही तो उसे मालूम ही नही पड़ता.... दूसरे छोर से पापा की आती हुई चिर परचित आवाज ने उसके मन को कुछ पल के लिये सुकून से भर दिया.....!

हाँ बेटा कैसे हो....पापा की आवाज गूंज उठी..!

मै ठीक हूँ पापा... आप और माँ कैसे हो....आज तो आपका स्कूल बन्द होगा न....? वैभव ने पूछा...!

हाँ स्कूल तो बन्द ही है.... पर अब त्योहारों का उतना मजा नही आता है....तेरी माँ भी अब उम्र दराज हो गयी है... और जब से तू घर से गया है उसके चेहरे का नूर भी बुझ सा गया है...तेरा भी तो आफिस आज बन्द ही होगा न....वैभव के पापा ने जानने की कोशिश की..!

नहीँ पापा... मेरा आफिस आज चालू है... MNC में ज्यादातर हिंदू त्योहारों को छुट्टी नही मिलती है... और फिर काम का इतना दबाव रहता है कि उसके चक्कर में छुट्टी का कोई मतलब नही बनता है....निराश मन से वैभव ने कहा...!

वैभव टेबल पर रखी पेन से कागज पे एक पतंग बनाने लग जाता है...!

पापा वो कल आपके एकाउंट में पैसे लगा दिया हूँ... आप किसी दिन जब शहर जाना तो माँ के लिये एक साड़ी और अपने लिये पैंट शर्ट का कपड़ा ले लीजियेगा...और हाँ माँ के लिये एक शाल और खुद के लिये एक सदरी भी याद से ले लीजियेगा...वो अपना फेमली दर्जी है न वो बढ़िया कपड़े सिलता है ...और आप को उसके सिले कपड़े फिट भी आते है तो एक काम करियेगा वही से सिलवा लीजियेगा...वैभव बोलता ही चला गया...!

अरे पैसे भेजने की क्या जरूरत थी...मेरी पगार भी आ ही गयी थी...मै उसी में से ले लेता...पैसे की बचत करना सीखो बरखुरदार आगे चलकर बहुत जरूरत पड़ेगी...भावुक होते हुए वैभव के पापा ने कहा..!

पापा आपको याद है...जब मै छोटा था और घर पर रहता था...उस समय आपकी पगार भी कम ही थी...पर फिर भी आप मेरे लिये हर त्योहारों पर कपड़े लेकर आया करते थे...हम दोनों बाप बेटे मिलकर घण्टों पतंग उड़ाया करते थे....मै जब कहता था की मेरे पास कपड़े है लाने की जरूरत नही है पर फिर भी आप मेरी बात नही सुनते थे....उस समय जब आप मेरी बात नही सुनते थे तो अब हम भी आपकी बात नही सुनेंगे... मेरा जो मन होगा वो मै आप और माँ के लिए करूँगा...आप मुझे रोकने की कोसिस करोगे तो आपकी शिकायत माँ से कर दूंगा...वैभव की आवाज में लड़कपन झलक रहा था...!

ठीक है भाई...जो मन हो आपका वही करिये...वेसे भी आजकल माँ बेटे एक ही सुर में बोलते है...मेरी घर मालकिन को भी तूने अपने साथ मिला लिया है...वैभव के पापा की यह बात सुनकर वैभव और वो दोनों खिलखिला के हँस पड़े...!

पापा माँ से बात कराइये न....कहा है वो...? वैभव पूछता है...!

हाँ एक मिनट रुक...अभी बुलाता हूँ.... अरी मालकिन सुनती हो...विभु का फोन आया है.... बात करना चाहता है.... जल्दी आओ...वैभव के पापा बोल पड़ते है...!

रसोईघर में तिल के लड्डू बना रही वैभव की माँ हाथ पोछते हुए जल्दी से भाग के आती है...जल्दी से फोन को कान से लगा बोल पड़ती है....!

कैसे हो विभु...खाना खाया की नही...माँ का पहला सवाल यही था...!

माँ प्रणाम...हाँ मै बिलकुल ठीक हूँ...खाना भी खा लिया हूँ.... अभी अपने आफिस में हूँ.... आप कैसे हो....क्या कर रहे हो...? वैभव की आवाज में हलचल सी थी...!

अरे तेरी पसन्द के तिल के लड्डू बना रही हूँ... तुझे बहुत पसन्द है न...माँ बोलती है...!

हाँ माँ मुझे बहुत पसन्द है... मै तो सब के सब एक साथ ही ले लूंगा..वैभव चहक उठता है...!

फिर उसे याद आता है कि वो तो घर पर नही है...माँ से बात तो कर रहा है पर फोन पर ही बात हो रही है... वो मायूस सा हो जाता है... बात बदलने की गरज से माँ से पूछता है...माँ आपकी तबियत केसे है...?

तबियत तो ठीक है... बस तेरी फ़िक्र लगी रहती है तो उसकी वजह से ब्लड प्रेशर बढ़ जाता है... यही सोचती हूँ की तूने खाना खाया होगा की नही....सही से रह रहा है की नही..जब तेरी जॉब नही लगी थी तो ऊपर वाले से दुवा करती थी की तेरी जॉब लग जाये अब जब जॉब लग गयी तो तेरे दूर जाने का गम मुझे सालता रहता है.... यह कहकर माँ रो पड़ती है....!

माँ आप फ़िक्र न करो..मै एकदम अच्छे से हूँ...यहाँ पे सब कुछ बढ़िया है...वैभव नम पलको को रुमाल से पोछने की कोसिस करता है...!

क्या बढ़िया है... वो फेसबुक पर तेरी फोटो देखी थी...कमजोर हो गया है...ख्याल क्यों नही रखता अपना...माँ रोते रोते पूछने लग जाती है...!

ठीक है माँ... अब से अपना ख्याल रखूंगा... अब सुन तू रो मत नही तबियत बिगड़ जायेगी....पापा का ख्याल रखो...और खुद भी अच्छे से रहो...होली पर आने की टिकट बुक कर ली है... इस बार होली हरदम की तरह आप दोनों के साथ ही मनाऊँगा...अच्छा अब फोन रखता हूँ.... मेरी ओर से पापा को प्रणाम कहना...माँ को प्रणाम करके वैभव फोन रख देता है... उसे पता था की थोड़ी देर उसने और बात की तो उसे खुद को रोक पाने में बड़ी मुश्किल हो जायेगी...यही सोचकर वो फोन कट कर देता है...!

तीसरी मंजिल के अपने आफिस में बैठे बैठे उसका ध्यान खिड़की की तरफ चला जाता है... खिड़की की जाली में एक पतंग आकर अटक गयी है....पल भर के लिये उसे लगता है कि वो पतंग और उसकी हालत एक समान है... वक्त की खिड़की में उस मजबूर पतंग की तरह फ़सा हुआ वह भी तो फ़ड़फ़ड़ा रहा है...बस फड़फड़ा ही तो रहा है...!

वैभव अपनी चेयर से उठता है... खिड़की तक जाता है... खिड़की की जाली से उस पतंग को आजाद कर देता है....एक सुकून की लहर उसके दिलो दिमाग में दौड़ जाती है...!

आप सभी को मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएं..!

विशाल सिंह सूर्यवंशम
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