शहर पीछे शहर : अतुल शुक्ल
BY Anonymous11 Oct 2017 1:01 PM GMT

X
Anonymous11 Oct 2017 1:01 PM GMT
लखनऊ बदल रहा है , शालीन हो गया है । मुझे याद है दस साल पहले जब मैं यहां बहुतायत रहा करता था , तब शहर इतना शालीन न था । लोग सड़कों पर ठहाके लगाते , गलचौर करते , एक दूसरे की पीठ पर धौल जमाते , सड़कों पर बेतरतीब चलते , गालियां देते या किसी दीवार पर खड़े पेशाब करते दिख जाया करते थे । लेकिन अब हालात और हैं । तहज़ीब का शहर अब खुद में ज्यादा व्यस्त हो गया है । दिल्ली की तरह यहां भी लोग अनुशासित , जल्दबाज और 'रिजर्व' लगने की कोशिश करते हैं ।
मैं शहरों की तर्ज उनके आवारा पशुओं के व्यवहार से समझने की कोशिश करता हूँ । कुत्ते , गधे , सांड़ सड़क पर निर्द्वंद लेटे हैं तो समझिये की शहर के भीतर अभी शहर बचा हुआ है । अभी लोग दूसरों को कुचलकर आगे बढ़ जाने को उतने तैयार नही हो पाए हैं । बड़े शहरों में जानवर ही नही बल्कि हवाएं भी सहमी हुई बहती हैं । इंसान का भय जीव जंतुओं से आगे बढ़कर जब वातावरण में फैल जाए तो समझिये अब शहर इंसानी सभ्यता के चरम पायदान पर चढ़ बैठा है ।
मुझे याद है कि दस साल पहले एक बार रात में मैं निशातगंज पुल के नीचे से खाना पैक करवाकर पैदल लौट रहा था । एक कुत्ता पीछे से आया और पालीथिन दबोचकर भाग निकला । फिर थोड़ी दूर पर जाकर अपने झुंड के साथ खाने लगा । मैंने गुस्से में एक ढेला चलाकर अपना विरोध प्रकट किया लेकिन अपने कटि प्रदेश को हल्की लहर देकर लुटेरे कुत्ते ने सनसनाते पत्थर को चकमा दे दिया और मेरे विरोध को कोई तवज्जो नही दी । मुझे उस रात भूखे सोना पड़ा । रविवार की रात को चौराहे से खाना पैक कराकर पैदल वापस लौटते वक्त मुझे दस साल पुरानी घटना याद आ गयी । सामने सुनसान सड़क पर कुत्ते लेटे हुये थे । मैं मन ही मन तमाम सावधानियों की सूची बनाता हुआ आगामी स्थिति से निबटने पर विचार कर रहा था , लेकिन कहीं कुछ न हुआ । कुत्ते आराम से लेटे रहे । वो 'रिजर्व' दिख रहे थे ।
अब लखनऊ में लोग रास्ता पूछने पर बताना नही चाहते । टैक्सी सर्विसेज गूगल मैप देखकर गंतव्य तक पहुंचती/पहुंचाती हैं । लखनऊ की पुरानी शैली की बनी इमारतें तेजी से रेनोवेट की जा रही हैं । जो बच गयी हैं वो जर्जर हो चली हैं । तहजीब का शहर जेब में भव्य इतिहास छिपाए , तेजी से जगमग महानगरीय भविष्य की तरफ दौड़ रहा है ।
अतुल शुक्ल
Next Story