सब्र भी हैरान है ,परेशान है , उन लम्हों के लिए
BY Anonymous3 Oct 2017 1:23 AM GMT

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Anonymous3 Oct 2017 1:23 AM GMT
सुनो !
यादों की काली रात , एहसासों के टिमटिमाते तारों की बिस्तर बन चुकी है , ये बेशर्म शरद हवाएं मद्धिम मद्धिम आंच से बदन की अंगड़ाईयों की अंगीठी में रूह को जलाकर खाक कर देने को आतुर है और इल्म ये है कि तुम फिर से दूर कहीं अपनी खुशियों भर के तलबगार हो !
ये तकिये के भींगते कोर , बिछोने की सीलन , बिखरे लिबास , जलती आंखे , सीने की कौंधती तड़प तुम्हारे न होने के दर्द को उकेरने के लिये काफी हैं ।
सब्र भी हैरान है ,परेशान है , उन लम्हों के वापस मधुरता के आलिंगन में रच बस जाने को...जो कभी गवाह बने थे कल्पनातीत शैशव के पुचकारने दुलारने के ।
प्रिये !
तन तो कब का शिथिल हुआ चला था , अब मन भी समाधि की तरफ बढ़ चला है जहाँ वैराग्य ही अनुराग होगा , जहाँ खुद की तपन ही तपस्या होगी ,जहाँ स्व का तर्पण ही आहुति होगी , जहाँ चंचलता का दमन ही अमरत्व होगी , जहाँ विरह ही कल्याण होगी , जहाँ वेदना ही सुकून होगी ,जहाँ आत्मा ही शिव होगी और जहाँ शिव होंगे वहाँ नैराश्य का विषपान तो होगा ही !
है न ??
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संदीप तिवारी "अनगढ़"
"आरा"
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