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भोजपुरी कहानिया

भारत नाटक का एक ऐसा मंच है, जिसपर बुद्धिजीवी जोकर का रोल करते हैं

भारत नाटक का एक ऐसा मंच है, जिसपर बुद्धिजीवी जोकर का रोल करते हैं
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अद्भुत है यह देश। कुछ ही दिनों पहले गौरी लंकेश की हत्या पर संझा-पराती की तरह "राष्ट्रवाद की अवधारणा" को ही कठघरे में खड़ा कर गाली देने वाले लोग, त्रिपुरा के पत्रकार की हत्या पर ऐसे चुप हो गए जैसे उनकी मानवीयता ताड़ी पी कर बेहोश हो गयी हो। पर इससे ज्यादा मजेदार यह है कि त्रिपुरा के पत्रकार-हत्या कांड पर वे लोग ज्यादा मुखर थे, जिन्होंने "गौरी की हत्या में कुछ बुरा नहीं" जैसे विचारों का समर्थन किया था। ये दोनों ही ओर के लोग कथित रूप से बुद्धिजीवी हैं, जिनकी संवेदना भी लाशों का रंग देख कर उबलती है।
वस्तुतः भारत नाटक का एक ऐसा मंच है, जिसपर बुद्धिजीवी जोकर का रोल करते हैं।
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय की घटना पर भी कथित बुद्धिजीवियों की बुद्धिजीविता ने जिस तरह नंगा नाच दिखया है, उसे देख कर इनके प्रति घृणा बढ़ जाती है। इस आंदोलन को कैश करने की बुद्धिजीवियों में जिस तरह की होड़ लगी, उस तरह की होड़ तो शायद कातिक में...
जिन्हें इस सरकार को गाली दिए बिना नींद नहीं आती, वे पूरी निष्ठा से गाली देने में लगे हुए हैं, और जिन्हें हर परिस्थिति में सरकार का बचाव करना है वे भी पूरी तरह कर्तव्यपरायणता की मूर्ति बने हुए हैं। जैसे उनका अपना कोई विचार नहीं, उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं।
मैंने कल देखा, आंदोलन से जुड़ी एक लड़की अपने शोशल मीडिया पोस्ट में समर्थन का नाटक कर रहे लोगों को "कुत्ता" कहते हुए दूर रहने की धमकी दे रही थी। ठीक से पूरी घटना को देखें तो उस लड़की के शब्द अभद्र भले हों, पर गलत नहीं लगते। देश की एक बड़ी साहित्यिक पत्रिका और प्रसिद्ध अखबार की पूर्व सम्पादक मृणाल पाण्डेय, और स्वयं को ईमानदारी का प्रतीक बताने वाली राजनैतिक पार्टी के मुखिया संजय सिंह जैसे जिम्मेवार लोग भी जब अपनी रोटी सेंकने के लिए लखीमपुर खीरी की फोटो को B.H.U का बता कर बवाल मचाते हैं, और लड़कियों के आंदोलन को अपने फायदे के लिए नकारात्मक दिशा देते हैं, तो मन उस लड़की की अभद्रता का समर्थन करने लगता है। क्या किसी देश की बुद्धिजीविता इतनी गिर सकती है, कि वह इस तरह की हरकत करने लगे? क्या किसी देश के बुद्धिजीवी, पत्रकार और नेता इतने गिर सकते हैं, कि वे कॉलेज की लड़कियों के कंधे पर रख कर बंदूख चलाने लगें?
और अगर ये इतना गिर गए हैं, तो फिर इनमें और लड़कियों से छेड़खानी करने वाले उस नीच लड़के में फर्क क्या है?
कुछ लोग ऐसे भी हैं जो आंदोलन कर रही लड़कियों पर ही सवाल खड़े कर रहे हैं, और उन्हें गालियां दे रहे हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा कर के वे अपनी पार्टी का भला कर रहे हैं। क्या सचमुच वे अपनी पार्टी का भला कर रहे हैं? और क्या पार्टी का भला करना ही उनका एकमात्र लक्ष्य है?
लड़कियों का आंदोलन स्वतः स्फूर्त हो या राजनीति से प्रेरित हो, उनपर हुए लाठीचार्ज का समर्थन कभी नहीं किया जा सकता। जिन नेताओं को हम घर बैठ कर कोसते रहते हैं, भाजपा के हों या कांग्रेस के, उनमें से भी किसी ने इस घटना का समर्थन नहीं किया है। पर जो इस घटना का समर्थन कर रहे हैं, उनके लिए तो मैं अपना शब्द भी व्यर्थ करना नहीं चाहता। उन्हें लगता है कि BHU जैसे स्थान पर लड़कियों पर लाठी चार्ज किया जाना जायज है, तो उन्हें स्वयं अपने बारे में सोचना चाहिए।
पूरा प्रकरण सीधे सीधे VC की नाकामी दिखाता है, और इसके लिए उनको हटाया जाना चाहिए। अभी कुछ देर पहले आंदोलन से जुड़े यशवंत बाबू से बात हुई थी। वे बता रहे थे कि सरकार ने प्रशासनिक अधिकारियों पर कार्यवाही की है, और जो बचे हैं वे भी एक दो दिन में नप जाएंगे। यह अच्छा है। वैसे भी, दुनिया की कोई भी शक्ति तरुणाई को हरा नहीं सकती, उन्हें जीतना ही है।
देश के लिए बेहतर होगा, कि हम उन्हें अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने दें, उनकी आग में हम अपनी राजनैतिक रोटी न सेंके।
और स्वयं को बौद्धिक कहने वाले लोग चाहें वे किसी भी धारा के हों, उन्हें सोचना होगा कि वे राजनैतिक गुलामों जैसा व्यवहार क्यों कर रहे हैं।
उन्हें देखना होगा कि उनकी सोच, उनकी विचारधारा, उनका निर्णय और उनकी क्रिया-प्रतिक्रिया हर बार "भाजपा-कांग्रेस" की मोहताज क्यों हो जाती है?
बुद्धिजीविता स्वतंत्र सोच का नाम है, बौद्धिक दासत्व का नहीं।
सुधर जाइये। आप शहरों में स्वयं को भले बुद्धिजीवी कहलवा लें, यदि गांव में होते तो महिलाएं आपको "छिनार" कहतीं।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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