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जनरल से बुलेट तक..... रिवेश प्रताप सिंह

जनरल से बुलेट तक..... रिवेश प्रताप सिंह
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रेल के जनरल बोगी में.....ऊमस से बेचैन और पसीने से लथपथ पैसेंजर...जब एक-एक इंच की जद्दोजेहद के साथ शोषण व अपमान की अपर बर्थ पर लटककर, बुलेट ट्रैन की रफ्तार और श्रृंगार का गुणगान करता है तो उसके इस विशाल हृदय और व्यक्तित्व पर मन मयूर हो उठता है। सच! भारतीय रेल यात्री एक अलग ही हृदय, सहनशक्ति और व्यक्तित्व का स्वामी होता है।

दरअसल जनरल बोगी की रेल यात्रा सिर्फ एक यात्रा ही नहीं बल्कि एक ट्रेनिंग सेन्टर भी है। व्यक्ति के भीतर... न्यूनतम स्थान, चौतरफा धक्कामुक्की में भी औकात से अधिक वजन उठाने की ताकत एवं पसीने और मोजों की दुर्गन्ध के बीच भी खुद को कहीं टिकाने और तनिक भी मौका मिलने पर पूड़ी- सब्जी, सतुआ चूड़ा आदि को अपने ग्रीवा के भीतर स्थानांतरित करने की हिम्मत और जज्बा पैदा कर दे। इसलिए भारतीय रेल एक यात्रा का साधन ही नहीं बल्कि एक कार्यशाला भी है जहाँ पैसेंजर को प्रतिकूल दशा के लिये ढालकर तैयार किया जाता है। जहाँ शौच या मूत्र जैसी मूलभूत चीजों हेतु भी एक चक्रव्यूह तोड़कर घुसने जैसा कठिन प्रशिक्षण दिया जाता है। यही वह जगह जगह है जहाँ चादर का झूला बनाकर उसमें आठ घंटे झूलते रहने का अभ्यास कराया जाता है। जहाँ बाल्टी, सुटकेस, और शौचालय तक में बैठने तक की दक्षता और क्षमता विकसित की जाती है।

भारतीय रेल के जनरल बोगी में यात्रा करने वाला मजदूर जब रेल की यात्रा पर जाने के लिए सोचता है तो सबसे पहले अपने आखों के सामने वो समस्त तसवीरें नाचने लगतीं हैं जो प्लेटफार्म पर चढ़ने से लेकर गंतव्य के प्लेटफार्म पर उतर जाने तक घटित होने वालीं है। जब वह अपना बक्सा उठाता है तो बक्से के साथ कुछ चिन्ताएं भी सर पर सवार हो जातीं हैं मसलन- इतना ज्यादा और भारी सामान, और यह पता नहीं कि रेल किस प्लेटफार्म पर मचल कर खड़ी होने वाली है क्योंकि प्लेटफार्म न० 1 से 9 के बीच न जाने कितनी बार बोरा नीचे रखना पड़ेगा कितनी बार हाथ बदलना पड़ेगा घसीटना भी पड़ेगा और उसको गरियाना भी पड़ेगा जिसने सस्ते के नाम पर सोलह किलो का सामान अतिरिक्त मंगवाया था।
टिकट खरीदते वक्त उसे यह भी ध्यान रखना है कि कहीं टिकट लेने के चक्कर में सभी खुदरे खर्च न हो जायें और रेल में जब हिजड़े वसूली करें तो समझ में न आये कि कैसे? उस बेरहम को पांच सौ की नोट थमाई जाये...यदि खिड़की से दस रूपये की पूड़ी खरीद भी लें तो क्या भरोसा कि वह पांच सौ का नोट लेकर फुर्र हो जाये और एक पूड़ी एक सौ पच्चीस के मूल्य की हो जाये। यह भी चिन्ता की कहीं हाथ में बड़ी नोट देखकर रेलवे सुरक्षा बल अथवा कंडक्टर का मेरे प्रति धनाड्य का नजरिया बन जाये और वह कोई बड़ी महत्वाकांक्षा पाल बैठे। किसी वेंडर को बड़ी नोट थमा दें और वो घालमेल करके मुकर जाये कि हमने यह नोट नहीं वह नोट दी थी इसलिए टिकट से ज्यादा जरूरी है खुदरे या छोटी नोटों का होना।

आप जानते हैं! एक जनरल बोगी का यात्री सबसे प्रसन्न तब होता है जब रेल अपनी अधिकतम रफ्तार में दौड़ती है। दरअसल वह उसके रफ्तार से इसलिए नहीं प्रसन्न है कि वह बुलेट ट्रेन पर बैठा है। दरअसल जब ट्रेन रफ्तार में होती है तो किसी अतिरिक्त शरणार्थी की घुसपैठ की चिन्ता नहीं रहती,पसीना तेजी से सूखता है, शौच या मूत्र के लिये जाने में आसानी रहती है। लोगबाग सीट अधिग्रहण की चिन्ता से हटकर देश की समस्या पर केन्द्रित हो जाते हैं। वैसे ऐसी खुशी और गलतफहमी देर तक नहीं टिकती क्योंकि कब ट्रेन की ध्वनि बदल जाये और आने वाली ध्वनि से यह संकेत होने लगे कि ट्रेन अगले स्टेशन पर पूं करके घुटने तोड़कर बैठने वाली है। दरअसल उसे पता होता है कि गाड़ी जब स्टेशन पर रुकगी तो स्टेशन पर यात्री, रेल की प्रतीक्षा में ऐसे व्यग्र मिलेगें जैसे बरसात में भीगती कोई बकरी किसी शेड में घुसने के लिये। वहाँ ट्रेन में बैठा हुआ पैसेंजर उन नये यात्रियों ओ ऐसा घूरता है कि वह यात्री न हुए बल्कि सैकड़ों रोहिंग्या शरणार्थी सीमा से अपने देश में घुसपैठ करने हेतु घात लगाकर बैठे हों। नये पैसेंजर जब ट्रेन में तेज़ी से घुसता है तो ट्रेन में बैठे पैसेंजरों के मन में भी एक भय उतनी ही तेजी से घुसता है। जैसे अपने हिस्से में अब कितने इंच सीट...बैठने को मिलेगी ? कहीं लोकल पैसेंजर न चढ़ जायें! कहीँ कोई बलिष्ठ या मुस्टंड घुसकर सीट से बेदखल न कर दे। हे भगवान कहीं कोई ऐसा अक्षम यात्री न चढ़ जाये जिसको न चाहते हुए भी सीट सुपुर्द करनी पड़े। क्योंकि वो यात्री जो पिछले तीन घंटे से एक टांग पर खड़े हैं उनको अपने टांगों के दर्द से ज्यादा तकलीफ़ उनसे होती है जो उनके सामने सीट पर पसरे होते हैं। (भले ही सीट वाले कितने ही फौजदारी या मशक्कत से सीट पर काबिज हुए हों।) ऐसे लोग तुरन्त किसी महिला, बुजुर्ग अथवा अक्षम व्यक्ति के नेता बनकर क्रान्ति का बिगुल फूंक देते हैं। इसलिए उन नेता टाइप लोगों को भी मैनेज रखना है। सत्तर किलोमीटर की यात्रा पूरी कर लेने तक यह निर्णय लेना दुष्कर है कि कुछ क्षण सीट त्याग कर मूत्र त्याग करना श्रेयस्कर है या दबाव झेलकर सीट पर डटे रहना। क्योंकि मूत्र विसर्जन के चक्कर में यदि सीट कब्ज़े से बाहर हो गई तो अगले पूरे हफ़्ते इसी बात के पछतावे में गुजर जायेगा कि काश! दो घंटे और बांध लेता तो सीट से बधा रहता।

मजे की बात यह है कि जनरल डिब्बे में सोने वाला यात्री न तो अपनी नींद पूरी होने से जगता है और न ही सूरज की गर्मी से... उसके मन में यह चिन्ता सोते वक्त से हीं तालियाँ बजा रही होती हैं कि अमुक स्टेशन अथवा जगह से हिजड़े सवार होंगे और इतना गाल नोंच के ताली पीट देगें की पूरी मर्दानगी छिली हुई मूंगफली की माफ़िक बोगी में बिखर जायेगी। इसलिए वो दस लोगों से पूछकर तसल्ली करता है , पूरी सतर्कता और चालाकी से शौचालय की तरफ रुख करता है। लेकिन दुर्भाग्य कि एक बोगी में केवल चार ही शौचालय होते हैं और उसमें घुसकर अपनी मर्दानगी बचाने वाले लगभग दो सौ लोग तैयार.. एक वही वो समय है जब एक समय में चार लोग एक साथ घुसड़कर लगभग सौ रूपये एवं सम्पूर्ण मर्दानगी का तमाशा बनाने से बचा लेते हैं। शौचालय के भीतर से तालियों की भनक एवं खतरे का अंदाज़ा लगाने वाले महारथी आधे घंटे शौच की दुर्गंध और तेरह प्रदेश के गुटखे के रैपरों को पढ़ने का प्रयास करते हैं। और हाँ वही वो वक्त होता है जब चाबी से खुरच कर पाननुमा आकृति पर अपने लभ्य/अलभ्य प्रेमिका का नाम अंकित करके उसे रफ्तार के साथ अमर करने के साथ अपने प्रेम को अन्तरप्रान्तीय ऊंचाईयां प्रदान करते हैं। यह वही यात्री है जो पूरे आधे घंटे बाद तभी शौचालय से निकलता है और जब वह आश्वस्त हो जाता है कि तालियों की गड़गड़ाहट अब ट्रेन से उतर चुकी है। वह अपने चौदह घंटे के सफर में टिकट से लेकर, घुसने, चढ़ने, बैठने, खाने, पीने में नाकों चने चबाता है। तेरह जगह घिघियाता है लुटता है, लेकिन हर बार अपनी रेल पर अगाध विश्वास के साथ टिकट कटाता है। कितना कठिन है न! कि इतनी जलालत के बाद बुलेट ट्रेन की रफ्तार पर आवाज़ बुलंद रखना वैसे ही जैसे मधुमेह रोगी का घंटों जलेबी छानना॥

रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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