काले डिब्बे वाला जादूगर...: रिवेश प्रताप सिंह
BY Suryakant Pathak23 Aug 2017 4:07 AM GMT

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Suryakant Pathak23 Aug 2017 4:07 AM GMT
अभी 19 अगस्त को वर्ल्ड फोटोग्राफी दिवस था.... गूगल माट्साब ने बताया कि फोटोग्राफी की अधिकारिक शुरुआत आज से 175 साल पहले, वर्ष 1839 में हुई थी। फ्रांस सरकार ने 19 अगस्त 1839 को इस अविष्कार की मान्यता दी थी। इसलिए 19 अगस्त को विश्व फोटोग्राफी दिवस के रूप में मनाया जाता है। वैसे यदि हम गौर करें तो पायेंगे कि कैमरा, फोटोग्राफी या फोटो 175 वर्ष के निरन्तर सफर के बावजूद पिछले 10 वर्षों से आम जनता के पकड़ में आयी है और मनमाफ़िक पकड़ में तब आयी जब यह मोबाइल के पिछवाड़े पर बिठाई गई।
पिछली डेढ़ शताब्दी में कैमरा और फोटो इतनी सुलभ नहीं थी जितनी की अब.... आज के किशोर भले इस बात या दर्द को न समझ पायें लेकिन तीस-पैंतीस वर्ष के युवा/ प्रौढ़ इस अभाव और दर्द को अवश्य महसूस करेंगे।
आज से बीस वर्ष पहले कैमरे को एक विशिष्ट उपकरण का दर्जा प्राप्त था। कैमरे का स्वामी या इसको चलाने वाला,भले ही किसी विशिष्ट योग्यता का धनिक न रहा हो लेकिन लोग उन्हें विशेष जरूर समझते थे। शादी-ब्याह के अवसर पर वह आदमी जो काले पट्टे में घनाकार आकृति को अपन गले में लटकाकर घूमता था वह साधारण नहीं होता था। वह ऐसा जादूगर था जो बीते हुए पल को अपने काले जादूई डिब्बे में कैद करने की ताकत रखता था। आकाशीय बिजली के बाद केवल उसके उंगलियों को ही ऐसा वरदान मिला था कि छूते ही सेकंड भर में पूरा अंधेरा कमरा प्रकाशित कर दे, सबको सावधान मुद्रा में खड़ा कर दे, सबकी सांस रुकवा दे, पेट को समतल करा दे, महिलाओं का लिपिस्टिक निकलवा दे.. चार फीट के दायरे में बीस आदमियों को खड़ा करा दे....वाह रे काले डिब्बे वाले जादूगर तुम्हारे भी क्या दिन थे भैया।
आज भले दो सौ की भीड़ में डेढ़ सौ हाथ कैमरे पर फोटो खीचने में व्यस्त रहते हों लेकिन दो दशक पहले साल छह महीने में, वो भी किसी विशेष अवसर पर ही फोटो में कैद होने का सौभाग्य मिलता था। शादी- ब्याह के अवसर पर गिन कर कैमरे की रील खरीदी जाती थी.. एक रील में बत्तीस फोटो की जगह और जरुरत के हिसाब से चार-पांच रील... ओह ! कितनी किफायत से फोटो खीचना पड़ता था कि पूछिए मत... वैसे ही जैसे आधे किलो जलेबी को सोलह लोग में बांटना हो। फोटोग्राफर द्वारा की गई गलती में सुधार की गुंजाइश न थी जो खींच ली गई वो कैदखाने में कैद हो गई... जिसकी पलक गिर गई तो वह आजीवन एलबम में सूरदास की तरह ही जड़ दिये गये। किसी कार्यक्रम में यदि आप विशेष आगंतुक नहीं हैं तो आपकी चार फोटो भी ढंग से खींच ली गई तो समझिए की आपने बाजी मार ली जनाब। दुल्हा-दुल्हन के साथ पंडित और नाइन के बाद कैमरे में वही कैद होता था जो मेन मौके में सहभागी होता था या कार्यक्रम स्थल पर फोटो के लालच में कुंडली मारकर बैठा रहता था। लड़कियों के फोटो में कैद होने की सम्भावना लड़कों के मुकाबले ज्यादा रहती थी, सुन्दर लड़कियों की सम्भावनाएं और ज्यादा....लेकिन जिसपर कैमरामैन की नजरेइनायत होती थी उनकी फोटो,दूल्हे के देवर के फोटो से दो-तीन ज्यादा ही निकल जाती थी। कैमरा मैन जब समूह में फोटो खींचता था तो बिल्कुल बायें या दायें वाले व्यक्ति को हमेशा दगदग बना रहता था कि पता नहीं मैं इस दिव्य पलों का कैदी बनूंगा की फोटो की किरण हमारे बराबर से छूकर निकल जायेगी। फोटोग्राफर को बार-बार चेताना और अपने बगल वाले से चिपककर सटने की कोशिश लगातार बनी रहती थी।
फोटो खींचते वक्त फोटोग्राफर को सात बार पीछे जाना तीन बार आगे आना, एक घुटने पर बैठना, एक आँख से साधना, चार बार कैमरे का मुख पटल निहारना उसकी आदतों में शुमार था। फोटोग्राफर भी अपनी जानकारी का फायदा उठाकर छल भी करते थे अच्छे-भले आदमी के सामने फ्लैश लाइट चमका कर बेवकूफ बना देते थे। लोग केवल फ्लैशलाइट को ही फोटो बूझकर दिनभर इठलाते घूमते थे।
जब फोटोग्राफर लघुशंका या किसी विशेष कार्य हेतु अपना कैमरा किसी किसी अनाड़ी के हाथ में छोड़कर जाता था तो दस हिदायतें भी सुपुर्द करता था। यह नहीं छूना! वो नहीं खोलना! और वह व्यक्ति कैमरा वैसे ही थामकर रखता था जैसे कोई व्यक्ति किसी मरीज का ग्लूकोज ड्रीप की बोतल थाम पर खड़ा हो। लौटने के बाद फोटोग्राफर यह तसल्ली अवश्य करता था कि "कुछ छूवे तो नहीं न हो"।
कैमरे के भीतर से रील निकालना ऐसे ही था जैसे किसी मदारी की पोटली से सांप.. बिल्कुल अंधेरे में जाकर रील निकाली जाती थी। फोटो को साफ कराने के बाद निगेटिव फोटो में एक अलग सा रहस्य होता था लोगबाग निगेटिव फोटो में अपनी छवि पहचानने की कोशिश करते थे। लड़के निगेटिव से पर्दे पर फोटो प्रक्षेपित करते थे।
किसी व्यक्ति की वास्तविक हैसियत का अंदाज़ा तब लगता था जब फोटो साफ होकर आती थी और वह छानवे फोटो में कहीं भी अपनी दावेदारी नहीं दिखा पाता या कहीं कोने में खाना खाते कमजोर और हल्की छवि गलती में कैद हो जाती दीख जाती तो उखड़े मन से दुखी होकर लौट आता था।
लोग बताते थे कि फलाने के एलबम में तुम्हारी बड़ी जबरदस्त फोटो आयी है, इतना सुनने के बाद आदमी उस एलबम को देखने के लिए बेचैन हो उठता था।लोग बहाने से जाकर उनका एलबम मांगते थे और वैसे ही व्यग्रता से एलबम निहारते थे जैसे अखबार में हाईस्कूल का रिजल्ट।
पर्वतीय भ्रमण के दौरान पूरा चन्दा लगाकर फोटोग्राफी वाले डिपार्टमेंट का ख्याल रखा जाता था। लोग ईमानदारी से, अपनी फोटो में उपस्थिति के आधार पर अपना हिस्सा जमा करके फोटो लेकर जाते थे।
वैसे अब समय बदल गया,लोग अंदाज़ भी नहीं लगाये होंगे कि फोटोग्राफी इतनी सुलभ हो जायेगी कि राह चलना मुश्किल हो जायेगा। आज तो लोग पुलिया से गुजरते हैं तो रुककर सेल्फी खींच लेते हैं। शादी ब्याह में हर बड़ा हिस्सा खुद को अपने कैमरे में कैद करने में जुटा रहता है। हर कार्यक्रम में दस-बीस बत्तख वाली चोंच जरूर दिख जायेगी। किसी पीड़ित की मदद करने वाले हाथों से अधिक उसकी फोटो खीचने वाले हाथ उठ जायेंगे।
वैसे आज हम लोगों में जिस तरह अपनी फोटो को अपने मोबाइल कैमरे में कैद करने की जिद्द बनी है वह हमारी विगत की कुंठा का जबाब है..एक सूखे हुए धरती पर पानी की बौछार है।
नोट- यह पोस्ट मध्यमवर्गीय परिवेश और सोच के आधार पर लिखी गई है। हो सकता है कि कुछ पाठक इस अभाव को न महसूस किये हों लेकिन मध्यमवर्गीय वातावरण में पला-बढ़ा इससे इंकार नहीं कर सकता।
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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