एक और बकैती
BY Suryakant Pathak23 Aug 2017 2:31 AM GMT

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Suryakant Pathak23 Aug 2017 2:31 AM GMT
कुछ बातें सही या गलत नहीं होती, बस होती हैं। आप सोचें तो जो बात आपको सही लग रही हो सकती है, वो किसी और के नजरिये से उतनी ही गलत भी हो सकती है।
गांव की महिलाएं दिशामैदान जाते समय लोटा नहीं ले जाती थी, साफ सफाई जिसे उधर 'पानी छूना' कहते हैं, वापस घर आने पर होता था। पहली बार कोई साथ लोटा ले गया तो वो पुजारिन थी। वयोवृद्ध पुजारिन, पहली बार, लोटा लेकर दिशामैदान, जैसे आसमान फट पड़ा। महिलाओं के लिए सतत चले आ रहे सामान्य व्यवहार में ये परिवर्तन बिलकुल ही अवांछनीय सा था। पुजारिन कथित तौर पर पोंगापंडित थी। पति और बेटों के गुजरने के बाद उनका सारा ही समय भगवत भजन में बीतता। जाने कैसा व्रत था जो किसी के छू भर लेने से भंग हो जाता। कोई गलती से छू ले तो गंगाजल मिलाकर घण्टों नहाती, या गंगाजी ही चली जाती। हम इसे जातिवाद की पराकाष्ठा मानते।
हम कितनी जल्दी जजमेंटल हो जाते हैं, किसी की धार्मिक भावना को अपने तराजू पर, अपने बटखरों पर तौलते हैं। बुढ़िया अपनी जाने किस मान्यता से किसी को छू नहीं रही और हमने उसे जातिवादी कह दिया। पर समय दे देता है सारे उत्तर। गांव का पहला शहीद चमटोल का रमेसरा था, उसका शरीर जब गांव लाया गया था तो रमेश का चरणस्पर्श करने वालों में पुजारिन पहली थी।
तो ऐसी 'क्रांतिकारी' बुढ़िया ने जब आज से 30 साल पहले लोटा ले जाना शुरू किया तो ये गांव में चर्चा का विषय बन गया। महिलाएं अजब तर्क देती कि राम राम, ई का अनर्थ, अइसा तो कभी नहीं हुआ, बात तो परम्परा की है, फलाना ढिमकाना। फिर जरा सोचिए कि जब उस महिला ने अपने घर पर पहली बार शौचालय बनवाया होगा, तब क्या हंगामा बरपा होगा। आप शहर में रहने वाले शायद ना समझें, पर घर के किसी हिस्से में मल-विसर्जन बिलकुल ही अशोभनीय बात है कुछ जगहों पर। बचपन में किसी मित्र ने मुसलमानों के प्रति अपनी नफरत का एक कारण उनके घरों में किचन के साथ बने शौचालयों को बताया था। हास्यास्पद बात है, क्योंकि मैंने अधिकांश घरों में किचन और शौचालय अगल-बगल ही देखे हैं।
पिछली बार बाइक ने शाम के अंधियारे में गांव में प्रवेश किया, और एक कतार में चिड़िया उड़ाने वाली मुद्रा में बैठी मेरे ही गांव की जाने कितनी औरतें फटाफट उठने लगी, गाड़ी आगे बढ़ते ही उसी अनुपात से बैठने भी लगी। श्रीलाल शुक्ल जी होते तो कुछ ऐसा कहते कि गाड़ी के प्रकाश के कारण औरतों का पहले उठना फिर बैठना किसी लहर तरंग जैसा था। शुक्ल जी तो खैर हास्य पैदा कर देते पर मुझे वितृष्णा हुई। इन औरतों में कोई मेरी चाची होगी, कोई बुआ, कोई बहन, कोई बेटी, और ये घरों में घूंघट में रहने वाली लज्जाशील महिलाएं लज्जाहीन होकर बैठी हैं, विडम्बना ये कि उन्हें या किसी को भी ये गलत नहीं लग रहा। अगली सुबह 'दुआर' पर दतुअन करते, बतकुच्चन करते लोगों से शौचालय की आवश्यकता और होने वाली गन्दगी का जिक्र छेड़ बैठा। अच्छा, गांव के लोग होते बड़े मजेदार हैं, लाजवाब कर देते हैं। एक चिचा बोले कि बाऊ साहब, आये तो ट्रेनिये से होंगे ना, तो बताइये कि जब आप फारिग हो रहे थे तो 'माल' किधर गिरा होगा, खुले में ही ना?
बताइए, अब कोई क्या जवाब दे इन्हें। कि ठीक है फिर तो, चूंकि इंडियन रेलवे में सफर करने वाले लोग एकतरह से खुले में निवृत्त होते हैं तो आप भी अपने गांव को वृहद पाखाना बना लीजिए। एक लड़के का तर्क था कि भइय्या सुबह सुबह हवा लागेला त बिल्कुले साफ होय जाला पेट। ये भी अच्छी कही, फिर तो जो लोग बीड़ी, सिगरेट या सुर्ती के साथ पेट साफ होने का अनुभव रखते हैं, इस तर्क से धूम्रपान और तम्बाकू-सेवन जायज हो जाता है। अजीब है कि घरों में घूंघट का समर्थन करने वाले लोग घर के बाहर खुले में शौच के पक्षधर थे।
चूंकि पहले नहीं था, तो अब क्या जरूरत है, ये कथन ही परम्परा शब्द को दूषित कर जाता है। परम्परा का मतलब गलत को ढोते जाना नहीं है। फिर तो आप कभी भी कोई भी नई चीज अपना ही नहीं पाएंगे, चाहे इंटरनेट हो, टीकें हों, दवाइयां हों।
आश्चर्य की बात है कि आज सरकार को इसके लिए बार बार कहना पड़ता है, फ़िल्म बनाई जाती है, फिर भी लोग हैं कि मानते नहीं।
बाकी
मस्त रहें, मर्यादित रहें, नमन अपने पास रखें 😉 और महादेव सबका भला करें।
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अजीत प्रताप सिंह
बनारस
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