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भोजपुरी कहानिया

बब्बू राय की गबरू जवानियाँ भइल मुश्किल

बब्बू राय की गबरू जवानियाँ भइल मुश्किल
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जिंदापुर के बब्बू राय गबरू जवान थे । सुबह उठकर चार मील दौड़ लगाना , गाय गोरु को सानी-पानी , जोतनी के सीजन में दिनभर ट्रैक्टर जोतना , और फ़ोर्स की तैयारी .. यही दिनचर्या थी बब्बू की ।
पिता , हेडमास्टर रामाज्ञा राय ने बहुत प्रयास किया लेकिन बब्बू को शिक्षण के पावन , आरामतलब अध्यवसाय में नही प्रविष्ट करा पाये , काहें कि दू साल में हाईस्कूल और तीन साल में इंटरमीडिएट की जंग फतह करने वाले बब्बू ने अपने विद्याध्ययन का अश्वमेधी रथ , बारहवीं नामक किला फतह करने के बाद रोकने की आधिकारिक घोषणा कर दी । पिता स्थितिप्रज्ञ थे , अतः तुलसीकृत रामायण के 'होइहे सोई जो राम रचि राखा' के सिद्धांत पर अमल लाये और नया ट्रैक्टर फाइनेंस कराके दू चउवा बढ़ा दिये ।

पिछले महीने गांव में नेटुये आये थे । जहाँ उनका डेरा लगा था वहीँ बगल में छह बीघे का एक चक था खेसारी राय का । बब्बू जोतनी करवा रहे थे तभी एक सत्रह अठारह साल की नेटुइन भा गयी । तदोपरांत कामना ने मुकाम पाया ... अविवाहित बब्बू राय ने तृप्ति पायी और उधर नेटुओं का डेरा अगले पड़ाव कूच कर गया ।
घटना के बमुश्किल आठ दिन बाद जब बब्बू पेशाब कर रहे थे तो तेज दर्द उठा और हल्का मवाद जैसा निकलता अनुभव हुआ । बब्बू के नीचे से पेशाब तो रुक-रुककर निकल रहा था लेकिन शरीर के एक एक रोमछिद्रों से पसीना भरभराकर बहने लगा ।
संकट में जो सबसे पहले याद आये , निस्संदेह वही सच्चा मित्र होता है । बब्बू तुरंत झगरू के बरसीन वाले खेत पर पहुंचे , झगरू यादव अपनी भइंस के लिये बरसीन काट रहे थे । बब्बू ने पहुँचते ही कहा 'ए मरदे पिसाब से मवाज काहें आ रहा है ?'
इससे पहले कि आपको ऐसी गलत फहमी हो कि झगरू आयुर्वेद के बहुत गहरे जानकार हैं.. बता दू कि , झगरू यादव और बब्बू में जरा मामूली सा ही फर्क है । ऊ ई कि बब्बू जहाँ दू साल फेल होने के बावजूद तीसरे साल हाईस्कूल के किले पर फतह करके इंटरमीडिएट की तरफ बढ़ गये थे , वहीँ झगरू असफलताओं की कीर्तिमानी हैट्रिक के बाद अपने ममहर के किसी दुर्गम विद्यालय से हाईस्कूल पास कर सके और आगे जीवन का पथ अपनी भैंसों की पीठ पर बैठकर ही पार करने का प्रण ले लिया ।
झगरू ने तपाक से प्रतिप्रश्न किया 'हउ जो नेटुइन लेकर उसदिन बगीचा में खड़े थे , उससे कुछ हुआ था का?'
बब्बू ने शर्मशार होकर बताया 'बस दू तीन बार'
झगरू ने घृणा से मुंह की सुर्ती मेड़ पर थूकते हुये आकाशवाणी जैसी गहरी आवाज में कहा 'HIV' ।
बरसीन के खेत में झगरू द्वारा की गयी आकाशवाणी के आज पन्द्रह बीस दिन बीत गये हैं .. बब्बू राय गुमसुम रहते हैं । तीनो गायें और बाछा ताकते रहते हैं लेकिन नाद तभी लगते हैं जब रामाज्ञा मास्साब घर पर हों । बब्बू मुश्किल से दू रोटी निगलते हैं , लेकिन उन्हें भी निगलते हुये उनको ऐसा महसूस होता है जैसे कोई काँटों वाले पेड़ की टहनी चबा रहे हों । दू रोटी निगलने पर तीन गिलास पानी पीते देख मास्साब टोक पड़ते हैं "आयुर्वेद ने भोजन करते समय जल ग्रहण करने के संबंध में जो नियम प्रतिपादित किया है , उसके अनुसार 'पहले पिये योगी , बीच में पिये रोगी और बाद पिये भोगी!'
मास्साब जब 'बीच में पिये रोगी' उद्धृत कथ्य तक पहुँचते तबतक बब्बू राय की आँखों से आंसुओं का समुद्र बह चलता था .. जिसे छिपाकर वो ग्रास निगलकर थाली सरका उठ खड़े होते थे ।
भौजाई होठों के कोरों पर मुस्कराकर कहतीं "अब बाबू का बियाह करने का समय हो रहा है बाउजी!"

पिछले एक मास से बब्बू बाऊ बस अख़बारों पत्रिकाओं में ढूढ ढूढ़कर hiv के लक्षणों पर लेख पढ़ते थे । कभी कभी हमउम्र लौंडों की टोली में यकायक पूछ बैठते - "एड्स क़ मरीज केतना दिन जीता है?"
कोई हरामी लौंडा सोदाहरण बताता "एक से डेढ़ महीना"
इसके बाद बब्बू घंटों तक मुर्दा शांति की चादर ओढ़े समूह में होकर भी अनुपस्थित बैठे रहते ।

रामाज्ञा मास्साब ने जब देखा कि ट्रैक्टर पर चार इंच की मोटी धूल जम गयी है ... गृहस्थी के तामझाम उनके नौकरीशुदा पैरों से लिपट रहे हैं ... छोटा बेटा और साथ साथ गाय बाछा भी दुबराकर टहनी हुये जा रहे हैं ...लेकिन जवान लौंडा इन सबसे बेखबर दिन भर दुआरे पर खटिया में दोहरा होकर पड़ा हुआ है , जिसके चेहरे पर मक्खियां भिनभिना रही हैं तो झट से चौबे जी के बड़का लड़के डाक्साब को बुलावा भेजा । डाक्साब की शैक्षिक योग्यता तो संदिग्ध थी लेकिन मास्साब के बड़े बेटे झब्बू बाबू का बालसखा होना , और उसी क्रम में डाक्साब का शुभचिंतक होना एकदम असंदिग्ध था ।

डाक्साब ने पहले अपने बैग में उपस्थित डॉक्टरी के औजारों से छोटे भाई समान मरीज की कृत्रिम जाँच पड़ताल की । हालाँकि ये सारे औजार रखना एक डॉक्टर के लिये उतना ही जरुरी था जितना किसी खालसा का पांचों ककार धारण करना , तथापि डाक्साब जानते थे कि इस मशीनी जाँच पड़ताल का वास्तविक दुनिया में कोई मूल्य नही है ... वो दवा ईश्वरीय प्रेरणा से दिया करते थे । अपनी पांचों उँगलियों को उन्होंने अलग अलग रोग का प्रतिनिधि मान रखा था , ऑंखें बन्द करके अपने बाएं हाथ से दाहिने हाथ की एक ऊँगली पकड़ते और उसी रोग की दवा दे देते तथा आगे मरीज का निरोग होना ईश्वरीय अनुकम्पा पर छोड़कर अपनी फीस ले लेते ।
लेकिन आज मामला कुछ और था । छोटा भाई समान मरीज सामने पड़ा था , काया सूखकर कांटा हो गयी थी । डाक्साब ने अपनी समस्त पारलौकिक शक्तियों का ध्यान किया और ऑंखें खोलकर पूछा "लव का लफड़ा है क्या बब्बू ? हमसे बताओ हम किसी से नहीं कहेंगे!"
"चौबे भैया हमको एड्स हो गया है !" बब्बू बाऊ के दुःख का समुद्र सहानुभूति की चांदनी में ज्वार की शक्ल में बांध तोड़ कगारों तक चढ़ आया ।

डॉक्टर स्तब्ध ... मरीज फफकता रहा । चौबे जी ने खून का सेम्पल लिया , बात को अभी गोपन रखने की कसम दिलायी और झटपट झुमरी देवी पैथॉलजी की तरफ मोटरसाइकिल दौड़ा दी ।

अब कथा का लब्बोलुआब ये कि रिपोर्ट आने के बाद पता चला कि गलत जगह धार बांधकर पेशाब करने की वजह से बब्बू राय को यूरिनल इंफेक्शन हुआ था । जो कि मामूली दवाइयों से ठीक हो जायेगा ।

झगरू यादव अपने बरसीन के खेत में एक बोझा गंठियाकर दूसरा भर ही रहे थे तबतक पीठ पर बिजली सी गिरी और पीड़ा से जिस्म ऐंठ गया । पलटकर देखा तो सामने बब्बू सात हाथ की लाठी दोबारा तान रहे थे । झगरू को लगा कि साक्षात् यमराज के दर्शन हो गये हैं । गट्ठर छोड़कर भागते भागते उन्होंने आर्तनाद के स्वर में पूछा "का भइल ए मरदे सामी?"
आँखों से अंगार बरसाते बब्बू ने झगरू को चहेंटते हुये कहा "बहिन@# ते मीता ना हवे ! हमार जान ले लेले होते तें !! आज हम तोंके ना छोड़ब !"


अतुल शुक्ल
गोरखपुर
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