आई हेट यू पापा आई हेट यू "बेरहम बाप की कहानी"
BY Suryakant Pathak20 Aug 2017 5:38 AM GMT

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Suryakant Pathak20 Aug 2017 5:38 AM GMT
देव,... वैशाली एक्सप्रेस की AC कोच की, साइड लोअर सीट पर बैठा हुआ,.. दशहरे में अपने घर,.. गोरखपुर जा रहा था, अपने परिवार के साथ। ट्रेन पता नहीं क्यों, "मगहर" स्टेशन के प्लेटफार्म पे खडी थी, कुछ देर से। वो 'शीशे की विंडो' से बाहर झाँक रहा था। अचानक उसने एक आदमी को,.. प्लेटफार्म पर "मोज़े" बेचता हुआ देखा। उसको देखते ही देव को एक झटका सा लगा,.. सूरत कुछ जानी पहचानी सी लगी और,.. उसके दिमाग में,.. उसकी आंखों के आगे चलचित्र से चलने लगे, पुरानी स्मृतियों के।
उसे याद आई अपनी 5 साल की आयु और वो बेरहम बाप,.. जिसने "षटकोण" को "खटकोन" पढने की वजह से,.. उसको इतना जोर से थप्पड़ मारा था,.. उसके कान का पर्दा फट गया था। उसका ट्युटर भी थर-थर कांपने लगा था। और तभी से देव इतना डरने लगा था, कि कई सालों तक रात में बिस्तर गीला कर दिया करता था।
उसे याद आया अपना वो गुस्सैल बाप,.. जिसने 6 साल की आयु में ही एक बच्चे को,. उसके परिवार से दूर उसको बोर्डिंग में डाल दिया था।
फिर जब पहली बार ही उसने, पहली कक्षा में सेंट मेरी स्कूल टॉप किया था, तो उसका बाप उसके प्रिंसिपल से लड़ने पहुँच गया था। वो प्रिंसिपल से गुस्से में कह रहा था,"आप लोगों के यहाँ बच्चे को पढ़ाने का क्या फायदा है, जब बच्चा बिना कुछ पढ़े, सीखे,... स्कूल टॉप कर जाए। क्या ऐसे नंबर बांटने के लिए ही इतने मंहगे स्कूल की फीस भर रहा हूँ मैं?....."
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स्कूल के प्रिंसिपल ने,.. तब उसके बाप को अच्छे से रीड करते हुए,... देव को पुचकारते हुए, अपनी गोद में बिठा लिया,.. अपनी ओर मुंह करा के,..और उस गुस्सैल आदमी से कहा कि,.. "आप कुछ सवाल पूछिये"। उस आदमी ने जानबूझ के,... कठिन से कठिन सवाल पूछे। लड़का एक का उत्तर भी ना दे पाया। फिर प्रिंसिपल ने वो ही सवाल देव से,... प्यार से, पुचकार के पूछना शुरू किया,..और आश्चर्य,..!!!. देव ने सारे सवालों के सही-सही जवाब दे दिया। इनमें ऐसे सवाल भी थे, जो अगली क्लास के थे। फिर देव को बाहर भेज के, प्रिंसिपल ने उस गुस्सैल बाप को पता नहीं क्या-क्या और कैसे,.. समझाया कि,... उस आदमी ने देव को पीटना ही छोड़ दिया। हाँ, लेकिन सिर्फ डंडे और लात-घूंसे से पीटना छोड़ा। बातों से तो आजीवन ही चलता रहा।
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उसे याद आया अपना वो निर्दयी बाप,.. जो पैसे बचाने के लिए अपने फूल जैसे 10-11 साल के बच्चे को,... खेत में मजदूरों के साथ जोत दिया करता था, धान-गेंहू काटने के लिए। और साथ में ये घुट्टी भी पिलाता रहता था कि,... मैं तुम लोगों को स्वावलंबी बना रहा हूँ। उसे याद आ रहा था कि,... एक बार वो कटे हुए गेंहू का बड़ा सा बोझा उठा के,... खलिहान की ओर जा रहा था, जो वहां से करीब 1 कोस दूर था, और गाँव-खेत की उबड़-खाबड़ पगडंडियाँ थी,.. रस्ते के नाम पर। .. भार से उसकी गर्दन टेढ़ी हुयी जा रही थी, असहनीय दर्द हो रहा था,..लेकिन वो बोझे को नीचे उतार भी नहीं सकता था, क्योंकि उसके बाप ने पट्टी पढ़ा रखा था कि,..... नीचे रखते ही पकी हुई बालियों से,... सारा गेंहू टूट के गिर जाएगा। उसकी बालियों ने उसके चेहरे और गर्दन को चारो ओर से घेर रखा था, चुभ रही थीं सूखी हुई बालियाँ उसकी कांख में भी,.. कि तभी साइकिल की घंटी बजाता हुआ,... "गोलुआ" उसके पास आ के रुका, और साइकिल से उतर के,... उसके साथ-साथ चलने लगा।
गोलूआ ने जो कहा था उस दिन,... वो देव को आजतक अक्षरसः याद था,..."तोहार बाप बहुत कंजूस हव। ओकरे त पैसा क एतना भूख है कि,.. लगा ला कि मुअले के बादों ले के जाई। अरे बतावा,..एतना पैसा कमा ता सरकारी नौकरी में,.. एगो और मजदूर नाहीं लगा सकेला? अरे ऊ तोहन के मारि के रही एक दिन। मेला खातिर 2 रूपया देला तोके, आ हमरा बाप देखs,.. हमके दस रूपया तो आजूअ दिहिस। मेला के दिने दस और मिली हमके। चचचच,.. तरस आवेला तोहन के ऊपर।"
और देव को याद है कि गाँव का तकरीबन हर इंसान,.. चाचा, ताऊ, काका सब इसी तरह से कुछ ना कुछ कहते थे, उसके भाइयों को। सब लोग उनके ऊपर दया दिखाते थे, सिवाए निर्दयी बाप के।
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देव को याद आता है, कि जब दूसरी कक्षा के बाद,.. तीसरी से उसको घर पे बुला लिया गया,.. कि अब यहीं पढना है, तो देव कितना खुश था, अपनी माँ के साथ रहेगा, अपने भाइयों और दोस्तों के साथ रहेगा। लेकिन कुछ दिन में ही उसकी ख़ुशी काफूर हो गई, जब शाम के सात बजते ही, "अपना ही घर, मरघट जैसा लगने लगता था। एकदम मार्शल ला लगा हुआ जैसा। हमलोग भाग के अपने रूम में किताबों में छिप जाया करते थे, और माँ रसोई में। यहाँ तक कि छोटे मामा जो आये थे,.. यहीं रह के पढने की खातिर,.... वो भी झट से भागते थे, सीढ़ियों से,.. उपरी मंजिल पर अपने कमरे में। रविवार और त्योहारों की छुट्टियों के दिन तो भगवान् ही मालिक होता था। इस हिटलर को तो,... सिर्फ एक गलती चाहिए होती थी, पुरे त्यौहार का सत्यानाश करने के लिए।"
इस तरह कितनी ही कहानियाँ हैं, कि अगर देव चाहे तो एक पूरा उपन्यास लिख सकता है उस इंसान के ऊपर। इसीलिए हमेशा ही कहता रहा,.."आई हेट यू पापा"
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तभी देव का "तीन साल का बेटा शिशु" उसको झंझोड़ के बोल उठा,.. "पापा, त्या देथ लहे हो विंदो के बाहल?? अले मुधे उपल की थीत पल बिथा दो ना प्लीद,..!!"
देव की तन्द्रा टूटी, और वो शिशु को ऊपर की सीट पे बिठा के,... फिर से ख्यालों में खो गया। हाँ लेकिन,... जो ख्यालों का चलचित्र चल रहा था, अब उसकी कैसेट दूसरी साइड से चलने लगी थी।
देव को याद आया कि कैसे मम्मी,.. पापा की जिन्दगी की कहानी सुनाया करती थी। पापा, यानी कि "गजानन पांड़े",... 8 साल के थे,..तो उनके पिता जी गुजर गए, और माता जी उनके गम में पागल हो गईं, सनक गईं। फिर बड़े भाई ने शादी कर ली और जो भौजी आई,......तो उन्होंने सारा इतिहास ही पलट के रख दिया। जो छोटा बेटा, घर का राजकुमार हुआ करता था, वो बोझ होता चला गया। कभी किसी के घर में, कुछ मिला तो,.. खा के सो जाता, तो कभी भूखे पेट ही। कोई पूछने वाला ही ना रहा कि "कुछ खाओगे?" खपरैल का घर काटने को दौड़ता था। गाँव के ही नेता जी का,... गाँव के पुरवा पे हाईस्कूल था। तो एडमिशन तो उसमें हो ही गया था। किताब खरीदने की कभी जरुरत नहीं पड़ी, क्योंकि एक बार क्लास में सुन लिया तो वैसे ही याद हो जाता था। और,.. इम्तिहान के समय पे पड़ोस के दोस्तों से किताब मिल जाती थी, इस ताकीद के साथ कि,.... नक़ल करवा देना,..नहीं तो,!!!"
..लेकिन अब 10वीं के पेपर के पहले फीस देनी थी। और फीस के पैसे इस बार इंतज़ाम नहीं हो पाए थे, ...जबकि 8 एकड़ की जमीन में से,.. चार एकड़ की जमीन का कानूनन मालिक तो ये लड़का भी था। लेकिन कौन सुनेगा,..किसको सुनाएं। गाँव के विश्वकर्मा साहेब,.. जिनके घर पर गाँव के बाहुबलियों की महफ़िल रोज़ जुटती थी,.. जिनका लड़का गजानन का दोस्त भी था,.. जिसने हमेशा मुसीबत में काम आने का वादा किया था। ...गजानन "सकुचाते" हुए उसके उसके घर पहुंचा,....... "एक ब्राह्मण" जा रहा था, "एक लोहार" के घर पैसे मांगने, "18 आना" फीस के लिए,.... नहीं तो कुछ दिन बाद वो इम्तेहान में नहीं बैठ पायेगा। लेकिन दरवाजे पे खड़ी उस दोस्त की माँ ने, उसको बोल दिया कि बेटा पैसे नहीं हैं। वो मुड़ के वापस जा रहा था कि,... उसके पीठ पीछे कानों में आवाज आई,.. "हे हरखू,..ये ले पैसे, और भाग के जरा बाज़ार से मछली ले आ पांच किलो, आज दावत है।" गजानन के कंप्यूटर दिमाग ने झट से जोड़ लिया कि,... उसकी फीस के 11 गुने ज्यादा पैसे की तो,... ये लोग आज मछली खायेंगे।
गजानन वहां से, आम के बाग़ में जा के बैठ के हुबस-हुबस के रोने लगा,..काश पिताजी जिन्दा होते,..काश अम्मा ठीक होतीं, काश भैया को भौजी से थोड़ी फुर्सत होती,.... ! बहुत देर तक रोने के बाद उसके आंसू भी सूख चुके थे,घुटनों में सिर घुसाए वैसे ही हुबस रहा था ..कि,.... उसको अपने सर पर एक हाथ का आभास हुआ,..उसने चिहुंक के सर उठा के देखा तो,..सामने उसके गणित वाले माटसाब थे,... जो हौले-हौले उसका सर सहला रहे थे। पूछने पर फिर से रुलाई फुट पड़ी, और अटकते-अटकते बताया। माटसाहब बोले,"अरे,...तुमने आज तक हमको काहे नहीं बताया ?... खैर, कल से स्कूल आ जाना तुम्हारी फीस मैं भर दूंगा।" और जब इसने लेने में हिचकिचाहट दिखाई तो फिर हँसते हुए कहा,"नौकरी लगते ही मेरा सूद समेत लौटा देना।"
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देव को याद है,..कि अभी कुछ साल पहले,.. बाप के वही माट साहब आखिरी साँसे गिन रहे थे,.. उनको साल भर से लकवा था। पापा माटसाहेब के लड़के को हर महीने पैसे इलाज के लिए देते थे,.. लेकिन इस हिदायत के साथ कि माटसाहब को पता नहीं चलना चाहिए। और आखिरी वक़्त में पापा उनसे मिलने गए थे, बहुत दिन बाद,.. क्योंकि इस हाल में उनको देखना ही नहीं चाहते थे। तो जाकर उनका हाथ पकड़ के बैठ गए थे।
माट साहेब ने असफल हंसने का प्रयास करते हुए,.. लकवाग्रस्त आवाज में,.. याद दिलाया कि मेरा "18 आना" कब देगा? और इस "निरदई इंसान" ने रोते हुए कहा कि," माटसाहब,.. ये 18 आना तो मैं चुकाना ही नहीं चाहता। मैं ये क़र्ज़ लेकर मरूँगा।" कहते-कहते ये "हिटलर",... फफक-फफक के रो पड़ा था,.. और वहां से उठ के चल दिया था। कुछ ही मिनटों में खबर आई कि माटसाहब भी आँखों में आंसूं,... लेकिन होठों पे मुस्कान लिए "चल दिए" थे।
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देव को याद आया कि पापा जब भी डांटते थे,..मार्शल ला लागू करते थे, घर में तो हमेशा यही कहते थे कि," मैं अगर आज मर जाऊं,..तो तुम लोगों को किसी की "उंगली पकड़ने का" इंतज़ार ना रहे,..मैं ऐसा बनाना चाहता हूँ तुम लोगों को। याद रखना,..ये जो पडोसी तुम्हारे खैरखाह बनने की कोशिश कर रहे हैं, तुम्हारे कटे पर मूतेंगे भी नहीं, मूतने के पैसे देने पर भी। दुनिया बड़ी बेदर्द है। मैंने जो दिन देखे हैं, वो तुम्हे कभी ना देखना पड़े,..इसलिए इतनी सख्ती करता हूँ,..कि,... किसी भी भैनचो$ के आगे हाथ ना फैलाना पड़े तुम्हे आजीवन,..इसीलिए तुमको खेतों में खटा रहा हूँ,..मजदूरों की तरह। तुमको मेले के पैसे कम देता हूँ, ताकि पैसे की कीमत समझ सको। और,... उनका सबसे बड़ा पेटेंटेड डायलॉग,"तुम मुझसे बहुत नफरत करते हो ना,..तो मुझसे आगे निकल के दिखाओ"
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तभी अचानक देव की सोच को फिर से झटका लगा, देखा तो वो मोज़े बेचने वाला इंसान खिड़की से इधर ही देख रहा था। देव ने सोचा कि,.. दम लगा के,.. जोर-जोर से चीखे,....."अरे ओ ""गोलूआ"",..आ देख,.... मैं हूँ "गजानन पांड़े" का लड़का। तुझे बहुत सहूलियतें मिलीं,.... तू पढना "चाहता" था तो "पढता" था,.... "जितना" खेलना चाहता था, खेलता था,..मुझे दिखा-दिखा के, चिढ़ा-चिढ़ा के खेलता था,..तू मुझे ताने मारता था,..कि मेरे पास कोई "आज़ादी" नहीं है,..मैं अपने हिटलर और सनकी बाप का 'बंधा हुआ बैल' हूँ,..तुझे तो अपनी मनमर्ज़ी की "आज़ादी" मिली, क्या किया तूने उस आजादी का। मैं आज AC सेकंड क्लास में बैठा हूँ,..और अपने घर जा रहा हूँ छुट्टी में। मेरे 'निरदई बाप' ने तो,...मुझ पर अत्याचार कर-कर के,.. मुझे इंजिनियर बना दिया रे,... तुझे आज़ादी दे के तेरे बाप ने तुझे क्या बनाया? या तू खुद क्या बना?
उसे हिटलर का शासन नहीं,... उसको "अनुशासन" कहते हैं। और जो तूने किया,... उसको "आज़ादी" नहीं कहते, या तेरे बाप की 'एडवांस सोच' नहीं कहेंगे,..उसको लापरवाही कहेंगे। अगर मेरा बाप अत्याचारी, निर्मोही था,.... तो फिर मुझे गर्व है अपने अत्याचारी बाप पर।
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सोचते-सोचते देव ने ऊँगली के इशारे से गोलुआ को अन्दर बुला लिया। देव ने पूछा कि, "कितने के दिए मोज़े"... गोलू बोला,"साहेब,..40 के दो जोड़ी।"
देव ने अपने पर्स में से पचास का नोट निकाल के दिया और दो जोड़ी मोज़े लेते हुए अपनी आवाज में कहा,.."गोलू भाई,..बचे हुए 10 रुपये मेले के लिए रख लो"
गोलू ने अपना नाम यूँ पुकारे जाने पर चिहुंक के देव का चेहरा देखा,..और फिर पहचानने का असफल प्रयास करते हुए,..कहा,"साहेब आप मेरा नाम कैसे जानते हैं?"
देव ने AC बोगी में बैठे हुए साफ़ झूठ बोला कि,"अरे यार, वो अभी बाहर कोई चिल्ला रहा था गोलू-गोलू, तो मुझे लगा कि तुम्हारा ही नाम होगा। खैर तुम जाओ।" देव का इतने सालों में वो पिचका हुआ चेहरा भर चुका था,..सफल होने के कांफिडेंस ने उसके पुरे डील डौल को ही बदल दिया था, बोली बदल गई थी। इसीलिए,..देव को भरोसा था कि वो दस-बारह साल बाद देव को पहचान नहीं पायेगा।
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उसके जाते ही,..अपने पापा की कहानी, उनका संघर्ष,.. सोच-सोच के,... देव की आँखों से आंसू झर-झर गिरने लगे। वो इंसान कितना कुछ झेला है अपनी जिंदगी में,..जिसको अपने बचपन में कभी अपनों का प्यार नहीं मिला, सिर्फ जिल्लतें ही मिलीं..और जब अपने बच्चों का प्यार पाने का वक़्त आया तो,..भी दशरथ की तरह अपने बच्चों को बनवास पर भेज दिया, हॉस्टल बोर्डिंग, शहर दर शहर,.... ताकि बच्चों को अपनी जिंदगी में कोई कष्ट ना झेलना पड़े। किसी के आगे हाथ ना फैलाना पड़े। उनका एक सम्मानित कैरियर बन सके।"..... मैं आ रहा हूँ पापा,.. मैं आ गया हूँ पापा,.. अबकी आपके पैर नहीं छुउंगा,..सीधे गले से लगूंगा पापा। आप लगने दोगे ना पापा। आपने कभी मुझे अपने मन का नहीं करने दिया,.. हमेशा अपनी मनमर्ज़ी,.. अपना ही हुकुम,. इस बार,.. एक बार,... मुझे अपने मन की कर लेने देना पापा,.." और देव रोता ही चला गया,.. रोता ही रहा,.. "आई लव यू पापा,.. आई लव यू पापा,...."
तब तक शिशु ने देखा और चिल्लाया,.."मम्मी देथो पापा लो लए हैं,..मम्मी पापा त्यों लो लए हैं,.??."
दीपा ने अपनी आँखों की कोरों को आहिस्ता से पोंछते हुए कहा,.." बेटा, यहाँ पोलूशन बहुत है ना,.. तो पापा जब भी इधर आते हैं,..उनकी आँखों में धूल चली जाती है,.. और वो रोने लगते हैं,.. तुम पापा की आँखों में "फू" करके उनको चुप करा दो,.. " बोलते-बोलते दीपा की भी रुलाई फूट पड़ी।
और शिशु बोले जा रहा था,.. " पापा, आप आन्थे थोलो, मैं फूं कलूंगा, आन्थे थोलो ना पापा,.. आपका लोना बंद हो दायेगा,.."
देव ने उसको अपनी गोदी में खींच लिया,.. और दीपा को भी,....दोनों ही रो रहे थे,.. और शिशु अपनी बड़ी बड़ी आँखों से कभी देव को,.. तो कभी दीपा को,.. बारी बारी से देखे जा रहा था,.."
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"दिल के मामलों में हम भी,.. थोड़ा खुल जाते मगर,
होशो-हवास में हमसे यूँहीं,... बिखरा नहीं जाता"
इं. प्रदीप शुक्ला
गोरखपुर
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