"चंचल प्रवृति"
BY Suryakant Pathak17 Aug 2017 6:03 AM GMT

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Suryakant Pathak17 Aug 2017 6:03 AM GMT
मेरे एक परिचित है, अकसर उनसे घंटो बाते होती है। मेरे आस पास के लोगो को उनके मित्र होने का भ्रम होता है पर मै उन्हें मित्र की श्रेणी में नहीं रखूँगा। हा एक अच्छा परिचित और शुभचिंतक जरूर मानूगा। कल शाम को बाजार में मिल गए। बड़े परेशान लग रहे थे।
"क्या हुआ गुरु? चेहरे पर बारह क्यों बजे है?" मैंने उनके मुरझाये हुए चेहरे को देख के पूछ लिया। मै उनको गुरु ही कहता हूँ क्योकि जब भी हम मिलते है वो गुरु की भूमिका में होते है और मै शिष्य की। उनके ज्ञान का भंडार इतना विशाल है की मेरे जैसा अति साधारण और सीमित ज्ञान वाला व्यक्ति उसमे खो सा जाता है और फिर मेरे पास एक ही रास्ता बचता है कि मै उनका शिष्य बनके उनके भंडारे से कुछ ग्रहण करू।
"राजू मै फेसबुक छोड़ रहा हूँ." उन्होंने मायूसी से जबाब दिया।
"फेसबुक छोड़ रहे हो? क्यों गुरु क्या हुआ ? अभी दो महीने पहीले ही तो तुम फेसबुक ज्वाइन किये थे?" मैंने उनकी बातो पे यकीन नहीं करते हुए पूछा।
मुझे आज भी याद है उनके चेहरे के भाव, वो परमानन्द की अवस्था जो उन्हें फेसबुक पे आके प्राप्त हुवा था। उनके जैसे परम ज्ञानी के लिए यही तो वो मंच था जहा वो अपने ज्ञान को बाट सकते थे।
फेसबुक पर आने से पहले उन्होंने और भी कई जगह अपने हाथ पाँव मारे। उनका बस एकही सपना था- प्रसिद्धि पाना। प्रसिद्धि पाने की चाह में उन्होंने पहला कदम शेरो शायरी की दुनिया में रखा। कवि कठोर जी उनके प्रेरणाश्रोत बने। लड़की हो या लड़का प्रोफेसर हो या किरानी,सब कठोर जी के दीवाने थे। हरदम दस बीस लोगो का झुण्ड उन्हें घेरे रहता था। कठोर जी की इतनी लोकप्रियता देख के उन्होंने सोचा क्यों न कवि ही बन जाए, और इस सोच के साथ वो शायर बन गए। शुरुआत में कुछ दोस्तों के वाह वाह से उनका हौसला काफी बढ़ गया और फिर एक दिन उन्होंने अपनी क्लास की एक लड़की को श्रींगार रस की शायरी सुना दी। लड़की ने शायरी का जबाब वीर रस से दिया और अपने सैंडिल से उनके चेहरे पर ऐसी गहरी छाप छोड़ी के शेरो शायरी का शौक हमेशा के लिए उनके दिल से निकल गया।
फिर उन्होंने सुरेद्र मोहन पाठक से प्रेरित होकर कुछ सुनिलियन उपन्यास लिखे पर उनके उपन्यासों के गहरे रहस्यों को कोई प्रकाशक जान नहीं पाया और फिर निराश होकर उन्होंने लेखक बनने की तमन्ना छोड़ दी।
उन्ही दिनों उनके कॉलेज में नया नया छात्र संघ बना था और किसी मित्र ने उन्हें चुनाव लड़ने की सलाह दे डाली। वैसे उनमे वो कौन से गुण नहीं थे जो बाकि छात्र नेताओ में थे। नेता बनने की योग्यता का प्रमाणपत्र तो उन्हें क्लास की लड़की ने ही दे दिए थे। रही बात राजनैतिक विचार धारा की तो भले ही उनकी अपनी कोई राजनैतिक विचारधारा नहीं थी पर इसका मतलब नहीं की उन्होंने मार्क्स को नहीं पढ़ा था। मार्क्स के सिद्धांत पर वो घंटो बहस कर सकते थे। राईट हो या लेफ्ट, हर विचारधारा उनके अन्दर कूट कूट के भरी थी। लोहिया के समाजवाद को भी अच्छे से समझते थे और कांग्रेस का हाथ सबसे साथ वाले सलोगन को भी। शारीरिक कद काठी और जुझारूपन ऐसा की दस बीस लाठी खाने के बाद भी मैदान छोड़ के नहीं भागे। ऐसे आदमी को तो नेता बनना ही चाहिए।
पर शायद उनको गुणों को छात्रों ने ठीक से नहीं समझा और महामंत्री के चुनाव में चौथे नंबर पर आए। साथियों ने समझाया की क्या हुआ जो इस बार सफलता हाथ नहीं लगी, अगली बार अध्यक्ष के लिए प्रयास करेंगे। शायद नियति को उनका अध्यक्ष बनना ही मंजूर हो। कुछ लोग छोटे पद के लिए नहीं बने होते है। पर उनको राजनीती से विरक्ति हो गई। साफ़ हाथ खड़े कर दिए।
कॉलेज की पढाई पूरी होने के बाद, मास्टरी से लेके किरानी, हर पोस्ट के लिए नौकरी के प्रयास किये पर बात कुछ बनी नहीं पर हा जिदगी के तमाम उतार चढ़ाव को अनुभव को लेते हुए, अपने ज्ञान में वृद्धि करते रहे। असली बात टी ये है कि वे माँ बाप के एकलौती संतान है, नौकरी न भी करे तो जिदगी भर उन्हें किसी चीज की कमी न हो।
उनके रोज रोज के परेशानी को देखते हुवे उनके पिताजी ने एक दिन कह दिया कि तुम नाहक में पसीना बहा रहे हो। हमने जिदगी में इतने साल पसीने इसीलिए बहाए कि हमारी संतान एयर कंडीशन में बैठ के सुख भोगे और एक तुम हो की मामूली नौकरी के लिए दर दर भटक रहे हो। उनकी अम्मा ने भी नौकरी न ढूढने के लिए, अपनी कसम दिला दी और उसके बाद उनके नौकरी ढूढने पे फुल स्टॉप लग गया।
फुल टाइम खाली होने के बाद उनका ध्यान क्रिकेट के खेल की तरफ गया। कुछ पुराने सहपाठी अभी भी क्रिकेट खेल रहे थे और इसका लाभ ये मिला की मोहल्ले के स्टार क्रिकेट क्लब में उन्हें आसानी से प्रवेश मिल गया।
उनकी वरिष्ठता को देखते हुए सलामी जोड़ी की भूमिका उन्हें दी गई जिसे उन्होंने सहर्ष ही स्वीकार कर लिया पर दो दिन बाद ही शंकरवा के गेंद पर अपनी ठुड्डी तुडवा बैठे। बात साफ़ थी की बल्लेबाज बनने की प्रतिभा उनमे नहीं थी पर उससे क्या हुआ ग्यारह खिलाडियों में सब बल्लेबाज ही थोड़े होते है। गेदबाज भी तो उतना ही महत्वपूर्ण होता है। पर किस तरह के गेदबाज बने इसको लेकर थोडा संशय था। इस उम्र में तेज गेदबाज बनने से कई बीमारियों के उत्पन्न होने का खतरा था। ऊपर से कहलाये तेंज गेंदबाज और गेंद में गति ना हो तो भद्द पिटेगी अलग से। फिर तो बस एक ही विकल्प शेष रह गया, फिरकी गेदबाज बनने का। क्लब के बरिष्ठ्तम खिलाडी मणि जी ने उन्हें दो दिन फिरकी के गुर सिखाये और उसके बाद तो उनकी गेदबाजी ने कहर ढा दिया। एक ओवर में ५ विकेट। जितनी उनकी गेंद घूम रही थी उतनी तो कुंबले, शेन वार्न और मुरलीधरन की एक साथ मिलाके भी नहीं घूम सकती थी। नतीजन टीम में उनकी जगह विशेषज्ञ फिरकी गेदबाज के रूप में निश्चित हो गई।
पर उनकी क्रिकेट करियर बहुत ही अल्प रहा। दस दिन बाद ही अन्तर्जिला टूर्नामेंट में विपक्षी टीम के बैट्समैन उत्तम ने उनकी एक ओवर छह छक्के उड़ा दिए और इसके बाद से क्रिकेट से भी उनकी दिलचस्पी ख़तम हो गई। साथी खिलाडियों के अनुनय विनय का कुछ फायदा नहीं हुआ और अगले दिन समाचार पत्र में उनके संन्यास की खबर आ गई।
क्रिकेट के बाद फूटबाल उनका अगला शौक बना पर यहाँ उनकी उम्र आड़े आ गई। दस मिनट में ही हाफने लगते थे और यहाँ तो पूरे नब्बे मिनट दौड़ना पड़ता था। ना चाहते हुवे भी उनको यहाँ भी संन्यास लेना पड़ा। राष्ट्रिय खेल हाकी से भी उनको बहुत लगाव है पर एस्ट्रो तरफ का मैदान हमारे कसबे तो क्या पूरे जिले में कही नहीं है। मतलब साफ़ कि ये भी शौक पूरा नहीं हो सकता था।
बहुत दिन से वो ऐसे ही बेकार घूम रहे थे। अकूत ज्ञान की पूँजी को या तो किसी पान भण्डार पर खर्च करते या फिर चाय समोसे की दूकान पर। फिर कही से उनको फेसबुक के बारे में पता चला और फिर वो उन्हें वो दौलत मिल गई जिसके तलाश में बरसो से भटक रहे थे।
फेसबुक पे आके वो पूरे देश दुनिया से कट गए थे। पैसो की कमी थी नहीं सो अनलिमिटेड रिचार्ज और सुबह से लेके रात तक सिर्फ फेसबुक। वैसे तो उनके चाहने वाले की संख्या ज्यादा नहीं थी पर जितनी भी थी उसको उनके दर्शन नहीं हो पाते थे। मै भी उनकी कमी बड़ी शिद्दत से महसूस कर रहा था। खेल से लेके राजनीती तक, जैसे विश्लेषण उनके पास था वो पूरे देश में किसी के पास नहीं होगा।
"पर क्या बात हो गई गुरु जो आपका मन इस आभासी दुनिया से उचट गया ?" मैंने पूछा।
"अब क्या बताऊ राजू?" उन्होंने जब दिया "फेसबुक उचित मंच नहीं है हम जैसे लोगो के लिए। यहाँ तुम तभी तक सुरक्षित हो जब तक तुम अपनी फोटो पोस्ट करो या दूसरे की लाइक करो। पर मेरे जैसा विद्वान कब तक मूक बनके दुसरो को ज्ञान बाटते देख सकता है और तुमको तो पता ही है कि मेरी किसी एक विचार या दल में आस्था नहीं है। मुद्दे के हिसाब से मै किसी का समर्थन या विरोध करता हूँ। यहाँ पर तुमको एक लाइन लेके चलनी पड़ती है, तुम जहा लाइन से इधर उधर और सैकड़ो गालियों से तुम्हारा स्वागत। मार्क्स चाचा के विचारो का समर्थन कर दिया, राईट वाले नाराज और समाजवाद के बारे में कुछ अच्छा लिख दिया तो उनके एजेंट। कोई भक्त कहता है तो कोई चमचा। मै तो यहाँ आके दुविधा में पड़ गया हूँ और इस दुविधा से निकलने का एक ही रास्ता है की मै इस आभासी दुनिया से ही बाहर आ जाऊ। अपने कसबे में तो एक मै ही शेर हूँ पर यहाँ तो गली गली, सवा शेर बैठे है"
"एक बार और सोच के देख लो" मैंने सलाह दी "जल्दीबाजी ठीक नहीं है"
"अब क्या सोचना भाई। हमने जो एक बार सोच लिया सो सोच लिया"
आगे कुछ भी सलाह देना बेकार था क्योकि, नदी के प्रवाह को, सलमान खान के कमिटमेंट को, तेल्दुलकर के कवर ड्राइव को, देश में करप्शन को और चंचल प्रवृति के मनुष्य को रोक पाना असंभव है।
"टारे न टरे, रोके न रुके जैसे बहती नदी धारा
मानव श्रेष्ठ, चंचल प्रवृति मनुष्य, नाम हमारा"
धनंजय तिवारी
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