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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और श्रीमुख "सुर"

फिर एक कहानी और श्रीमुख  सुर
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सुरुज महाराज भले किसी दिन भोर भोर में उगना भूल जाएं, पर मनोहर बाबा पौने चार बजे भोर में उठ "कृष्ण राधा रमण गिरधारी, गिरधारी श्याम बनवारी" गाना कभी नहीं भूलते। श्रीपुर कस्बे के पांडेटोली की आँख रोज उन्ही के भजन से खुलती थी। बाबा शाम की बतकही में भले रात के बारह-एक बजा के सोएं, पर भोर में अंघी ठीक पौने चार में खुल जाती थी, फिर खटिया पर बैठे बैठे ही एक घण्टे लगातार भजन गाते।
पता नहीं कब से उनका यह नियम चला आ रहा था, जिसे आजतक किसी ने टूटते नहीं देखा। चइत के महीने में गांव की नई दुल्हिनें कभी कभी मन ही मन गाली देती हुई कहती थीं- पता ना ई बुढ़वा कइसे रोज अतना फजीरे जाग जाला कि सबके हरान क के ध देला। एकरा दुःखो बेमारी ना होला का.... ( पता नहीं यह बूढ़ा रोज कैसे इतनी सुबह में जग जाता है कि सबको परेशान कर के रख देता है, इसे कभी बीमारी भी नहीं होती क्या..) पर मनोहर बाबा का व्रत अनवरत चला आ रहा था।
गांव के लोग कहते थे, मनोहर बाबा से ज्यादा आजाद पंछी कोई दूसरा नहीं। बात सच भी थी, मनोहर बाबा सचमुच आजाद आदमी थे। तीस पैंतीस साल पहले जब गांव में कलरा फैला, तो मनोहर बाबा की पत्नी और चार साल के बेटे को साथ ही लेता गया। तब से फिर किसी बंधन में नहीं बंधे मनोहर बाबा। ईश्वर के भजन और गांव के सहयोग में ही उमर काट दिए। दिन भर या तो बगीचे में बैठे चार आदमी को बटोर कर तास खेलते, या फिर घर में बैठे सारंगी बजाते। बाबा के सारंगी की भी एक लंबी कथा है। कहते हैं, जवानी के दिनों में किसी जोगी के फेर में पड़ के बाबा दू तीन साल तक जोगी बने भीख मांगते फिरे थे, पर जल्द ही ऊब कर गांव लौट आये। उन तीन सालों में बाबा सारंगी बजाने में पूरे पंडित हो गए थे, सो आये तो सारंगी भी लेते आये। उनके जैसा सारंगी का जानकार बजवैया पुरे जिले में नहीं था कोई। सारंगी बजा के जब कजरी गाने लगते
तो लगता है कि पेंड़ पौधे, चिरई चुरुंग भी रुक कर सुन रहे हों।
किसी जमाने में बाबा के पास लगभग चालीस बीघे जमीन थी, जिसमें अब मात्र तीन चार बीघे बचे थे। गांव में जब कोई परेशानी में होता तो बाबा जमीन बेच कर उसकी मदद करते, और इसी तरह सारी जमीन साफ हो गयी थी।
बाबा का जीवन तीस-पैंतीस साल तक एक ही डगर पर चल रहा था, पर पिछले तीन साल से उनके जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया था, और उस परिवर्तन का नाम था 'बंडू'। अब बाबा के जीवन में पांच साल के बंडू की उतनी ही बड़ी हिस्सेदारी थी, जितनी भगवान जी की थी। अब बाबा या तो भगवान के लिए गाते थे,या बंडू के लिए।
बंडू के पिता मूलतः सीतामढ़ी जिले के रहनेवाले थे। तीन साल पहले उनकी नियुक्ति श्रीपुर के ग्रामीण बैंक में शाखा प्रबंधक के पद पर हुई, तो वे सपरिवार यहीं रहने लगे थे। गांव में किराए के फ्लैट तो मिलते नहीं, सो लोगों ने उन्हें मनोहर बाबा के घर में ही रहने की सलाह दी। मनोहर बाबा भी आसानी से मान गए और उन्होंने अपना बोरिया बिस्तर घर के बाहर बंगले में निकाल लिया और घर मैनेजर साहेब को बिना किराए के दे दिया।
बाबा को एक मुफ्त का किरायेदार तो मिला ही, बंडू के रूप में एक जबरदस्त दोस्त मिल गया। बंडू की माँ उसे रोज नहला खिला के बाबा के पास पहुँचा जाती, और फिर बाबा देर तक इस बिना नाते के नाती के साथ खेलते रहते। पता नहीं उस कम्बख्त को भी किस जन्म का शौक था, कि तीन साल की उम्र में ही सारंगी के सुर समझने लगा था। आते ही कहता- बाबा, मिलजापुल आला बजाइये न... बाबा मुस्कियाते, बंडू सारंगी पकड़ कर बैठ जाता और बाबा बजाते बजाते झूम कर गाते- मिर्जापुर कइलs गुलजार हो, कचौड़ी गली सून कइलs बलमु... बंडू कहता- छूंदल बदाओगे तो किस्सी देंगे। बाबा किस्सी का इनाम पाने के लिए झूम झूम कर बजाते।
अब बाबा की सारंगी में तब तक सुर नहीं उपटता, जबतक बंडू सारंगी पकड़ न ले। बाबा का तास खेलना लगभग बन्द हो गया था। जब भी तास वाले संघतिया सब बुलाने आते, तो बाबा बहाना मारने लगते थे- आज मन नहीं है हो रामसुनर, तुं लोग अपने में खेल लो। सुनर मुस्किया के कहते- अरे हम बुझ रहे हैं बाबा, मन तो आपका बंडूआ में है। बाबा मुस्किया के कहते- हं हो, बंडू तो अब मालिक हो गया हमारा।
बाबा का मन बंडू में ही बस गया था।
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आज सुबह से दोपहर हो आया था पर बाबा को बंडू के दर्शन नहीं हुए थे। बाबा अब तक बगीचे का दस चक्कर लगा चुके थे, पर समय कट ही नहीं रहा था। बंडू अब बाबा का दोस्त मात्र नहीं रह गया था, बाबा को उसकी आदत हो गयी थी। हार कर बाबा ने घर जा कर आवाज लगाई- बहू, अरे बंडू कहाँ है हो, आज दिखाई न दिया।
बाबा बंडू की माँ को बहू ही कहते थे। बाबा की आवाज सुनते ही वह घर से बाहर निकली और बोली- उ का है बाबा कि आज तैयारी में ही रह गयी, सो बंडू को आपके पास पहुँचाना भूल गयी। असल में उसके पापा का सीतामढ़ी में बदली हो गया है, सो कल ही निकल जाना है। उसके पापा को तो अभी दस दिन लगेंगे यहां सो वे फिर आएंगे, पर हमलोगों को कल ही वहां पहुँचा देंगे।
बाबा को जैसे किसी ने धक्का दे दिया, वे मुरझा कर बोले- बदली हो गया और हमें बताया भी नहीं?
बहु लजाती हुई बोली- वो असल में इसके पापा को कल ही चिट्ठी मिली सो बता नहीं पाए। छह महीने से प्रयास में लगे थे कि अपने यहां बदली हो जाय, पर अब जा के जुगाड़ लगा है। आप बैठिए ना, मैं चाय लाती हूँ।
बाबा थस से वहीं बैठ गए। बंडू की माँ कब चाय रख गयी, उन्हें कुछ ध्यान नहीं रहा। कुछ देर में बंडू घर से निकला तो बाबा मुस्कुरा उठे और पूछा- जा रहे हो?
बंडू ने मुह बनाते हुए कहा- मुधे नहीं दाना, मम्मी दबलदस्ती ले दा लही है।
बाबा की आँखे भरने लगीं थी। बोले- वहां तुमको सारंगी कौन सुनाएगा बंडू?
बंडू बोला- मैं तो लोद ही भाद आऊंगा बाबा, फील हम लोद गीत छुनेंगे। मिलजापुल वाला...
बाबा ने मुह घुमा लिया। वे धीरे धीरे बंगले की ओर लौट गए।
शाम को बंडू बाबा के पास धमक पड़ा और अपने चिर परिचित अंदाज में बोला- बाबा, तनि गीत छुनाइये ना, आपको किस्सी देंगे।
बाबा का कपार बथ रहा था, फिर भी मुस्कियाते हुए सारंगी उठा लिए और गाना शुरू किये- मिर्जापुर कइलs गुलजार..... पर जाने क्यों गाना नहीं जमा। बार बार सारंगी के सुर उलझ जाते थे। बंडू किस्सी दे कर लौट गया।
आज सुबह में बाबा का भजन नहीं हुआ। पिछले चालीस साल में पहली बार नियम टूटा था। पांच बजे भाड़े की गाड़ी से बंडू का परिवार सीतामढ़ी निकल गया।
दोपहर में रामसुनर तास खेलने के लिए बुलाने आया तो देखा- बाबा का शरीर बुखार से तप रहा था, और वे बुखार के जोर में बड़बड़ा रहे थे- अरे सुन तो.... अरे तू सांरगी पकड़ेगा नहीं तो मैं बजाऊंगा कैसे रे बदमास... पकड़ न बंडू, तुझे मिर्जापुर वाला सुनाता हूँ.....
रामसुनर ने गमछा भिगो कर बाबा का मुह पोंछा तो जैसे उनका नशा टूटा। जाने कैसे मुस्कुरा कर बोले- कचौड़ी गली सून हो गयी रे रामसुनर, अब तास कैसे जमेगा।
रामसुनर ने बाजार से दवा ला कर बाबा को खिलाया, पर शाम तक बुखार तनिक भी कम नहीं हुआ। कभी ठीक रहते तो कभी बड़बड़ा उठते। बस वही- ऐ बंडू, तनि सारंगी पकड़ न तुझे मिर्जापुर वाला सुनाता हूँ। होश में आते तो सन्यासी की तरह गम्भीर हो कर कहते- देख न रामसुनर, खुद तो गया, ससुरा सारंगी का सुर भी ले गया। अब बताओ न, सारंगी कैसे बजेगी भला? बाबा की दशा देख कर रामसुनर की भी आँखे भर आतीं। वह देर रात तक उनके पास बैठा रहा। रात को जब बाबा सो गए तो रामसुनर अपने घर लौट गया।
सुबह को जब रामसुनर उनका हाल चाल लेने उनके बंगले में गया तो देखा- बाबा निकल गए थे, उनकी सारंगी उनकी गोद में ही पड़ी थी। जैसे उन्होंने रात को मिर्जापुर वाली कजरी गाने का प्रयास किया हो, पर सुर न मिलने के कारण सुर को खोजने निकल पड़े हों।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज,
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