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भोजपुरी कहानिया

"स्वाद".................इं. प्रदीप शुक्ला

स्वाद.................इं. प्रदीप शुक्ला
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आप हॉलीवुड की कोई भी मूवी उठा कर देख लीजिये, जब कोई किसी के घर डिनर पर जाता है तो शैम्पेन की बोतल ले जाना नहीं भूलता। ये आज भी पश्चिम की रीति है जो वे लोग कायम रखे हैं।

हमारे यहाँ पहले लोग जब अपने रिश्तेदारों के घर उनसे मिलने जाते थे, तो दही, भुट्टे (मक्का), लौकी, कद्दू (कोंहड़ा), चावल, दाल इत्यादि अपने साथ ले जाते थे। यही रीति थी। कोई पैसे नहीं देता था, लेकिन आजकल लोग पैसे देने को ही रिवाज बना बैठे हैं। यहाँ तक कि अगर आप रिश्तेदार के बच्चे को पैसे न दो, तो रिश्तेदार बुरा भी मान जाते हैं। मैं कभी कभी ये सोच कर आश्चर्य करता हूँ कि जब कागजी मुद्रा का लोप हो जाएगा, तब लोग क्या करेंगे? शायद लोग अपने रिश्तेदार से कहेंगे कि स्वाइप मशीन ले आओ, पैसे डालना है। या फिर कहेंगे,.. बच्चों अपने पेटीएम् का नंबर बताओ, पैसे देता हूँ।
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खैर, बात स्वाद की करनी थी। मुझे लगता है मैं इस आज की दुनिया में मिसफिट हूँ। मेरे पापा भी कहते हैं कि बेटा तुमको सत्तर अस्सी साल पहले पैदा होना चाहिए था।

दही-
मुझे केक से ज्यादा अच्छी लगती है दही। दही वो नहीं जो आज हम लोग खाते हैं। वो दही जो मेरे चार नाना, आठ मौसियाँ, चार मामा मामियां याद रखती हैं कि प्रदीप को यही खाना है, जब भी आएगा। दूध को मिट्टी की कढ़ाई (कंहतरी) में खूब औंटा (खौला) कर, जब वो लाल होने लगे, तब उसमें जोरन डालना। वो ललछहीं दही, जिसके ऊपर मोटी सी मलाई की परत जम जाती है। मैं इसके साथ दो चार रोटी अधिक खा जाता हूँ। आज उपलब्ध नहीं है, शायद ही कहीं मिलती हो।

सत्तू-
सत्तू को पानी से गूंथ कर, मिर्च वाले देशी सिरके के साथ खाना। ये भी नसीब नहीं आज।

छाछ-
ढंग की छाछ मिले तो कोई जहर जैसी कोल्डड्रिंक्स को पूछेगा भी नहीं .

कटहल-
पके कटहल के कोवे को दूध में डाल कर, रोटी से कितने लोग खाए हैं? एक बार खा लें, अगर चोकलेट न भूल जाएँ तब कहें। कच्चे कटहल की सब्जी, जो आज भी यदा कदा गाँव में खाने को मिल जाती है किसी शादी विवाह के प्रयोजन पर। जिसको ब्राह्मण बनांते हैं, अपने अधोवस्त्र उतार कर। एक बार खा लें, अगर कबाब शबाब न भूल जाएँ तो कहें। ये भी आज की लाइफस्टाइल में विलुप्त ही है।

दाल-
मिट्टी के बर्तन में, हलकी आंच में पकी हुई, फिर घी और मिर्च के तडके के साथ तली हुई दाल। ये भी आज दुर्लभ है क्योंकि हर जगह गैस और कुकर जो अपने पैर पसार लिए हैं।

लौकी, तोरई, सरपुतिया, घिया, घेंवड़ा-
आज हर किसी को लौकी से नफरत है। अगर गाँव की बनी लौकी खाए होते, तो शायद कोई नफरत की बात नहीं करता। हलकी मद्धम आंच पर, बिना एक बूँद पानी मिलाये, मिट्टी के बर्तन में पकती हुई लौकी जब बनती थी, पास से गुजरने वालों की नाक ही बता उठती थी कि आज इस घर में क्या पक रहा है।
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मैं सत्य कहता हूँ कि आज मछली मटन चिकन के अलावा आप और कुछ नहीं बता सकते कि फलां घर में क्या पक रहा है। आज सिर्फ मसालों की खुशबु होती है, सारी सब्जियों की अपनी सुगंध विलुप्त हो चुकी है। कभी कभी तो लगता है कि हम थर्मोकोल को मसालों के साथ पका रहे हैं, और वही खा रहे हैं। बाकि की रही सही कसर न्यूज़ चैनल पूरी कर दे रहे हैं। इसमें ये वाला जहर है, तो लौकी इंजेक्शन से उगाई जा रही है। कोई साला ये नहीं बताता कि फिर खाएं क्या ?

आज सिर्फ हमें इतना याद रहता है कि फलां फ़ूड कार्नर वाले की रोटी अच्छी है, और फलां वाले का मुगलई चिकन !!

अगर किसी नवीन ज्ञानी विज्ञानी से पूछ लो, तो पिज्जा और बर्गर के विटामिन की आराधना शुरू हो जाती है। जबकि प्राकृतिक सब्जियों में इतने विटामिन होते थे, किसी सप्लीमेंट विटामिन की आवश्यकता ही नहीं थी। आजकी तुलना में इसीलिए डॉक्टर भी बहुत कम होते थे। ज्यादातर, गाँव का पुरोहित ही वैद्य का कार्य कर लेता था। मेरे नाना अगल बगल के कई गाँव के अध्यापक और वैद्य दोनों ही थे।

हम अपनी जड़ों से पूरी तरह कट चुके हैं। और जड़ों से कटे हुए पेंड़ पौधे ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सकते। देर सबेर कोई हल्का सा हवा का झोंका पर्याप्त है आपको मिट्टी में मिलाने के लिए, भले ही आप कोई विशालका्य वट वृक्ष ही क्यों न हों।

जड़ें खोजो, जड़ों की और लौटो !!

इं. प्रदीप शुक्ला
गोरखपुर
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