जहूर मियाँ.......: रिवेश प्रताप सिंह
BY Suryakant Pathak13 July 2017 7:29 AM GMT

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Suryakant Pathak13 July 2017 7:29 AM GMT
आस-पास के इलाके में जहूर मियाँ के बैलों का कोई जोड़ न था। जहूर मियाँ अपने तो हल्के कद-काठी के थे लेकिन उन्होंने अपनी सारी कसर अपने बैलों में पूरी कर ली थी। बैलों के पुट्ठे गोश्त से लदे रहते थे। दोनों की सींग जैसे एक सांचे मे ढली। दोनों की बराबर लम्बाई एक का रंग हल्का पीला और दूसरा चितकबरे रंग का। अगर जहूर अपने बैलों की पीठ की तरफ खड़े रहते तो घरवालों उनकी टागें देखकर ही जान पाते कि जहूर मियाँ अपने बैलों की ख्याल और हिफ़ाज़त में मशग़ूल हैं।
आस-पास का ऐसा कौन सा गृहस्थ या व्यापारी था जो जहूर मियाँ को न जानता था। इलाके भर के वजनदार सौदे के लिये जहूर मियाँ की बैलगाड़ी बुलवाई जाती थी।
जहूर मियाँ का दाम भले थोड़ा ज्यादा था लेकिन उनकी बैलगाड़ी औरों के मुकाबले डेढ़ गुना वजन थामती थी। व्यापारी भारी सौदे के लिये जहूर को पहले से ही तय करके रखते। जहूर के बैल हफ्ते में दो बार शहर का चक्कर जरूर लगाते।
एक बार नदी पार से बाँस लादने का सौदा जहूर को मिला। जेठ का महीना था। जहूर सुबह तड़के अपने बैलों को खिला-पिला कर बैलगाड़ी में नाध कर नदी पार पहुँचे। नदी पार करने के लिये पीपे का पुल था और नदी के किनारे रेत पर लोहे की चादर बिछायी गयी थी जिससे पहिये वाली गाड़ी आसानी से निकल जाये। जहूर अपनी बैलगाड़ी बाँस से कसकर बैलों को हांक दिये। बैलों के लिये यह रोज का वजन था। बिना किसी कसमसाहट के बैलों ने रफ्तार थाम ली। पीपे का पुल गुजरने के बाद गाड़ी लोहे के चादर पर आ गयी। बैलगाड़ी अभी कुछ दूर ही गयी कि अचानक बैलगाड़ी का दाहिना पहिया चादर से रेत में उतर गया। बैलगाड़ी अचानक थम गयी। बैलों ने जोर लगाना शुरू किया लेकिन पहिया वहीं का वहीं। जहूर मियाँ ने अपने आवाज़ और इशारे से बैलों को बल देने लगे। बैल जहूर का सारा इशारा बखूबी समझते भी थे और हुक्म मानते भी थे। बैलों ने दुबारा प्रयास किया लेकिन फिर पहिया नाचकर फिर वहीं रह गया।
बैलगाड़ी के आस-पास भीड़ इकट्ठा हो गई। जहूर मियाँ पसीने से लथपथ हो चुके थे। उनकी बनियान में रखी दस की नोट और चुनौटी पसीने के कारण साफ़ झलक रही थी। भीड़ ने धक्का लगाने का प्रयास किया लेकिन जहूर ने साफ मना करके कहा- या तो आज ये लोग आज बैलगाड़ी खींच कर निकालेंगे नहीं तो बैलगाड़ी से छूटकर सीधे कसाई के हाथ जायेंगे।
जहूर ने अपनी इज्ज़त का सवाल बना लिया। दुबारा जहूर ने एक बैल की पूंछ अपने हाथ में लपेट कर ललकारा.... "चल बेटा चल" आज जहूर के इज्जत का सवाल है। शायद बैलों ने जहूर के जज्बात को समझ लिया दोनों अपने घुटने तोड़ कर आगे झुक गये। उनके नथुनों की हवा और गर्मी से रेत घबराकर उड़ने लगी। जहूर अपने बैलों को ललकारने लगा-
बैलों ने अपनी पूरी जान झोंक दी। पहिया बैलों के बल के सामने राह बदल कर चादर पर आ गया। बैलों ने ताकत इतनी झोंकी थी कि उसके बल पर बैलगाड़ी कुछ दूर तक अपने आप दौड़ पड़ी। जहूर भी बैलों के साथ भगा लेकिन तुरन्त बैलगाड़ी रोककर उसने दोनों बैलों को बैलगाड़ी से छटका कर अलग कर दिया। और एक पेड़ के नीचे बांधकर लगा उनका पैर और शरीर सहलाने, पुचकारने। जहूर अपने बैलों को पुचकार कर पांच मिनट बाद एक किसान के घर से एक सेर तेल और पांच सेर गुड़ लाया। तेल बैलों की मालिश के लिये तथा गुड़ उनकी ताकत के लिए।
तभी, आस-पास भीड़ में से एक आदमी ने पूछा कि- बैलों को बैलगाड़ी से खोल क्यों दिया ? जहूर ने कहा- बाबू हमारे बैल अब "बल खा" गये उन्होंने आज अपनी पूरी ताकत झोंक दी। आज पूरी रात ये दोनों आराम करेंगे अब कल सुबह ही गाड़ी जायेगी।
तब तक दूसरे आदमी ने टोंका अरे! जहूर मियां जरूरत क्या थी बैलों को "बल खिलवाने" की। हम लोग तो धक्का देने को तैयार ही थे। अब तक कभी गाड़ी निकल गयी होती और तुम बहुत दूर निकल गये होते अब तक। तुमने अपने जिद्द पर अपनी एक दिन की कमाई गवां दी।
जहूर मियाँ सूर्ती मसलते हुए बोले- बाबू आज हमरी बैलगाड़ी को धक्का लगाने का मतलब था जहूर के जनाजे को हाथ लगाना। बाबू रूपया-पैसा, बहुत आयेगा-जायेगा लेकिन हमारी इज्ज़त नहीं। अपने बैलों को अपने बेटों की तरह पालते हैं हम। अगर हमरे हिस्से में आठ रोटी आती है तो हम दो-दो रोटी चुपके से,इनकों खिला देते हैं। रात में जाग-जाग देखते हैं कि ये लोग आराम से हैं न। इन लोगों के चक्कर में नात-बात, रिश्तेदार रूठे रहते हैं कि जहूर को अपने बैलों के सिवा किसी की परवाह नहीं रहती। इलाके में लोग हमें भले न पहचाने लेकिन हमारे बैलों को देखकर लोग कहते हैं कि इ जहूर मियाँ के बैल हैं। बाबू सीना फूल जाता है एकदम। आज जब ये खबर गांव -जवार में फैलती कि जहूर के बैल एक पहिया न खींच पाये तो क्या इज्ज़त रहती हमारी।
बाबू अपनी पूरी कमाई इन्हीं पर लुटाता हूँ। हमारी पूरी ताकत इन्हीं में है। पूरे जवार में इन्हीं के बल पर सीना ठोंकता फिरता हूँ लेकिन जब ये ही घुटने टेक देंगे तो इनके रखने और पालने का मतलब क्या हुआ।
बाबू भले न गाड़ी जायेगी, लेकिन इज्जत से सोऊँगा तो।
उसके बाद फिर मियाँ जहूर अपने बैलों के पैर और शरीर मालिश में ऐसे में लग गये जैसे उनके बेटे मैराथन जीत कर लौटे हों।
रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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