रविवार विशेष... फिर एक कहानी और श्रीमुख "शाप"
BY Suryakant Pathak9 July 2017 11:20 AM GMT

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Suryakant Pathak9 July 2017 11:20 AM GMT
वर्तमान पंजाब का गहन वन प्रांतर, उस युग में वन में पक्षियों के कलरव के साथ उपनिषद के मन्त्र गूंजते थे। भारतीय सनातन परम्परा को कठोपनिषद के रूप में ज्ञान का सागर देने वाली कठ जनजाति बसी थी इस वन में। आर्यों को बाहरी और समस्त बनवासियों को अनार्य बताने वाले पूर्वग्रही कथित इतिहासकारों के पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नही, कि कठों की यह विशुद्ध वनवासी जनजाति आखिर आर्य परंपरा की ध्वजवाहक कैसे हो गयी।
इसी वन के एक गांव में एक प्रेमी युगल रहता था। कन्या प्रियम्बदा षोडसी थी, वन की तरह सुन्दर और उपनिषद मन्त्रों की तरह पवित्र। चलती तो लगता जैसे यज्ञ के हवन कुण्ड की लपटें हो, हँसती तो लगता जैसे रात्रि के अंतिम प्रहर की मनोरम वायु से मत्त होकर पक्षी चहचहा रहे हों। शाम को सखियों संग क्रीड़ा में नाच उठती तो जैसे सारा वन उसके साथ नाचने लगता था। उसका प्रेमी सौम्य उसी गांव का तरुण था। जितना सुंदर उतना ही विद्वान। दोनों जब एक साथ होते तो लगता जैसे धन-कंचन की छाया से भी दूर वन में कोई राजा रानी घूम रहे हों। दोनों का प्रेम सब जानते थे। यह प्रेमी-युगल गांव की आँखों का तारा था।
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वनक्षेत्र राज्य के अन्य भाग से दूर भले हो पर हवाओं के साथ दूर का समाचार वन में पहुचता रहता है। वैसे हीं कठ क्षेत्र में एक दिन यह समाचार पंहुचा कि क्रूर यवन आक्रांता अलक्षेन्द्र( सिकंदर) अपनी क्रूर सेना के साथ कुर्मु, सिंधु और रावी को लांघता कठक्षेत्र की ओर बढ़ रहा है। अलक्षेन्द्र की क्रूरता की कथाएँ वन की मनोरम वायु में गूंज रही थीं।
उधर सिकन्दर वायु के वेग से बढ़ रहा था। कुर्मु नदी पार करने में भरपूर सहयोग करने वाली अश्वक जनजाति ही जब सिकन्दर की रक्त पिपासा की भेट चढ़ी, तब विश्व् इतिहास में प्रथम बार अश्वक स्त्रियों ने शस्त्र सम्हाला और अंतिम संख्या तक अपना उत्सर्ग किया।लगभग पचास हजार अश्वकों को मारने के बाद आगे बढ़ते सिकन्दर ने तक्षशिला कुमार आम्भिक से मित्रता कर पर्वतेश्वर पुरू को पराजित किया। पुरू को राजनैतिक लाभ और वापसी के समय प्रतिरोध से बचाव के लिए सौदे में जीवनदान देता सिकन्दर आगे बढ़ा और अब कठ क्षेत्र के पास पहुच चूका था।
विद्या की साधना करने वाले कठ योद्धा तो थे पर क्रूर नही थे, किन्तु भारत से अबतक दो लाख स्त्री पुरुषों को दास बना कर मखदुनिया और डेढ़ लाख को यमलोक भेज चुके सिकन्दर की क्रूरता जगजाहिर हो चुकी थी।
दो दिन के बाद जब सिकन्दर की सेना कठों के दुर्ग संगल तक पहुची तो कठ सेना ने पूरी वीरता से प्रतिरोध किया। पर कठ सेना में न यवन सेना जैसी क्रूरता थी, उनके जैसी युद्ध शैली, और न हीं उन्हें युद्ध का अभ्यास था। प्रहर भर में ही यवन विजयी हुए और संगल दुर्ग लूट लिया गया। किन्तु इसके बाद वह हुआ जो अलक्षेन्द्र जैसे योद्धा की गाथा का सबसे काला अध्याय है। विजय के बाद उन्मत्त यवन सैनिकों ने गांवों में आग लगाना और सभी निवासियों को मारना प्रारम्भ किया। गांव के गांव समाप्त होने लगे। क्रूरता की यह यवन धारा जब प्रियम्बदा-सौम्य के गांव में पहुची तो वह गांव भी जल उठा।
विश्व् को "माँ विद्विषामहे" और "ॐ शांति शांति शांति" जैसे स्नेह और शांति के मन्त्रों से जीवन का सबसे बड़ा रहस्य समझाने वाले सन्यासियों के शरीर को एक आक्रांता की तलवार से समाप्त होने में कुछ क्षण ही लगे।
प्रेम कभी कभी मनुष्य में अतुल्य शौर्य भर देता है तो कभी कभी उसे कायर भी बना देता है। मृत्यु का साक्षात् तांडव नृत्य देख कर बचने के लिए सौम्य प्रियम्बदा को एक अश्व पर लेकर भाग चला। किन्तु रक्त के प्यासे यवनों के हृदय में न दया थी, ना ही वे प्रेम समझते थे। भागते युगल पर दृष्टि पड़ते ही सिकन्दर आगे बढ़ा और कुछ ही क्षण पश्चात उसका भाला अश्व पर पीछे बैठी प्रियम्बदा के शरीर को भेद चूका था। वह अश्व से गिर पड़ी।प्रियम्बदा के गिरते हीं जैसे सब कुछ हार चुके सौम्य ने अश्व रोक लिया और उतर कर उसकी मृत देह के पास खड़ा हो गया।
सिकन्दर मुस्कुराया और उसकी तलवार हवा में लहराई, पर उसका हाथ रुक गया। जैसे वह इस अंतिम कठ की बात सुन लेना चाहता हो। सौम्य के मुह से निकला- तुम्हारी क्रूरता अपने चरम पर पहुच गयी अलक्षेन्द्र, अब तुम्हारा नाश होगा। जैसे तुमने मेरी प्रिया को तड़पाया, वैसे ही तुम भी एक मास के अंदर ही तड़प कर मरोगे।
सिकन्दर अट्ठहास कर उठा- मैं तुम्हारे देश को रौंदने निकला हूँ बालक, तेरा शाप मेरा कुछ बिगाड़ नही पायेगा।
सौम्य बोला- तुम्हारा भ्रम है मुर्ख, तुम अब मेरा शव भी पार नही कर पाओगे।
सिकन्दर की भृकुटि तनी, अगले ही क्षण सौम्य का शीश उसके धड़ से अलग था। सौम्य की सरकटी देह प्रियम्बदा के शरीर पर इस तरह गिरी कि उसका गर्म रक्त प्रियम्बदा के खुले मुख में समा रहा था। उनका प्रेम अपनी पराकाष्ठा पर पहुच चूका था।
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प्रेमी युगल के शव के पास से जब सिकन्दर वापस अपनी सेना में आया तो सारे सैनिक विजय के गर्व् में नाच रहे थे। सिकन्दर ने उस दिन उसी जगह पड़ाव डलवा दिया।
अगली सुबह जब सिकन्दर ने आगे बढ़ने का आदेश दिया तो सारे सैनिक इस आदेश के विरुद्ध हो गए। यवन सेना को घर छोड़े कई वर्ष हो गए थे, अब वे आगे बढ़ने को बिल्कुल भी तैयार नही थे। सिकन्दर ने खूब जोशीला भाषण दिया, उनको धन, पद का सैकड़ो लालच दिया पर सैनिक टस से मस नही हुए। मायूस सिकन्दर दोपहर में सेना के साथ वापस हुआ तो उसकी आँखों के सामने सौम्य का शाप देता मुखड़ा घूम गया। पर वह विश्वविजेता था, वह सर झटक कर आगे बढ़ गया।
वापसी में सिकन्दर झेलम के पास के सौभूति समूह, झेलम के पार शिवी जनजाति और अग्रश्रेणी जाति का समूल नाश करते हुए लगभग एक लाख लोगों की हत्या कर मालवों और शुद्रकों की सम्मिलित सेना से आ टकराया।
मालव और शूद्रक एक दूसरे के परम्परागत शत्रु थे, पर क्रूर यवन सेना के लिए वे सम्मिलित हो कर तैयार थे। मालवों की साठ हजार की सेना से लड़ती यवन सेना आधी हो गयी। सिकन्दर यह युद्ध तो जीत गया किन्तु इस युद्ध में उसके हृदय में एक तीर लग चूका था। मालवों से जल्द संधि कर घायल सिकन्दर मखदुनिया की ओर लौट चला। अब वह शीघ्र अपने देश पहुचना चाहता था। जितनी तेजी से सिकन्दर अपने देश की ओर भाग रहा था, उतनी ही तेजी से उसकी बीमारी बढ़ती जा रही थी थी। अब बीमार सिकन्दर की आँखों के आगे प्रियम्बदा का भाला से बिंधा हुआ शव और सौम्य का शाप देता मुखड़ा छाया रहता था। वह ज्यों ज्यों अपने देश की ओर बढ़ता जाता था, उसकी तड़प, उसकी पीड़ा बढ़ती जाती थी। अंत में इराक के बेबिलोनिया शहर में सिकन्दर की बीमारी अपने अंतिम चरण में पहुच गयी। सेना का शिविर लगा दिया गया, अनेक बैद्य जो सेना के साथ थे सभी सिकन्दर के शिविर में हर संभव प्रयास कर रहे थे, पर उसके स्वास्थ्य में कोई सुधार नही हो रहा था। वह मरते हुए कुत्ते की तरह छटपटा रहा था। अचेतावस्था में बड़बड़ाते सिकन्दर के मुह से अंतिम शब्द निकले- "उस बालक का शाप मुझे ले डूबा" और धीरे धीरे उसकी आँख बन्द हो गयी।
विश्वविजेता अलक्षेन्द्र का शरीर जब शांत हुआ तो उसकी कमर में दो बीते से भी कम कपड़ा था, यही उसकी परिणति थी।
सौम्य का शाप उसे ले डूबा था।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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