फिर एक कहानी और श्रीमुख "सोगडाली"
BY Suryakant Pathak13 Jun 2017 12:35 PM GMT

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Suryakant Pathak13 Jun 2017 12:35 PM GMT
रै भतारकाटी, मारेब एक्के ठूसा से तोर नकलोल फुट जाइ...
मैं उछल पड़ा हूँ, युगों बाद यह गाली सुनी है। मेरे गांव में अब ऐसी गालियां सुनने को नहीं मिलती, मेरा गांव सभ्य हो गया है, शायद मर गया है।
चुनाव में तृतीय मतदान अधिकारी के रूप में ड्यूटी लगी है। एक दिन पहले से पूरी तरह बुखार की चपेट में हूँ, पर मतदान कार्य को टाल सके इतनी औकात सरकारी कर्मियों की नही होती। जिस गांव में हूँ वह पूरा गांव मुसहरों और हरिजनों का है। इस दलित बस्ती में जो चार मतदान कर्मी आएं हैं उनमे से एक ब्राम्हण है, दूसरा राजपूत है, तीसरा भूमिहार है, और चौथा कायस्थ है। मतलब पूरा मनुवादी कुनबा....
सब ठीक चल रहा है। अछूत और भेदभाव के तमाम नारों के बीच दलित रसोइया आ कर खाना बना चुकी है, और चारो मनुवादी दो बार खा चुके हैं। मैं उम्र में सबसे छोटा हूँ, और वह मुझे माँ की तरह सामने बैठ कर पंखा झलती है... मां ही है, कल तक किसी और की, आज से मेरी भी... रात को मुझे बेमन से खाते देख को उन्हें लगा है कि सुखी रोटी तरकारी खाने में मुझे कष्ट हुआ है, तो अभी मेरे लिए किसी यादव जी के घर से अँचार मांग कर लाईं हैं। मैं जानता हूँ, जीवन की आपाधापी में मैं कल शायद इसे भूल जाऊंगा, पर आज का सत्य यह है कि यह मेरी माँ है।
लाइन खचाखच है, एक बुजुर्ग महिला साइड से जुगाड़ लगा कर घुसने के चक्कर में मेरे पास आती है- ए साहेब, पैर दुःख गया है, हमको पास करा दीजिये। मैं इस 'पास करा दीजिए' पर मुस्कुराते हुए पूछता हूँ- भोट किसको देना है?
वो जैसे झल्ला कर जवाब देती है- किसको दिया जाय, आज कल तो सगरी अबाड़ कबाड़ चुनावे लड़ जाता है, अब बताइये ना, एगो मुसहर लड़ गया है। बाप का नाम साग पात, पूत का नाम परोरा....
मेरी मुस्कराहट बढ़ रही है, मैं अपनी बुखार भूल रहा हूँ। पूछता हूँ, आप कवन आसरे हैं चाची?
हम तो हरिजन हैं बाबू.....
मेरी मुस्कुराहट और बढ़ गयी है। कथित मनुवाद की यह कौन सी धारा है समझ नही पा रहा....
मैं उनको आगे निकलवा कर बगल में कुर्सी पर पसर गया हूँ।
पीछे का हल्ला धीरे धीरे तेज हो रहा है। दो महिलाएं भिड़ गयी हैं। आवाज तेज होती जा रही है।
- काहें बीच में घुस गयी रे भतारकाटी? बाकी लोग तेरे भतार के चाकर हैं जो खड़े रहेंगे???
- रै बेट्टागाड़ी, भतार का नाम मत ले नही तो तेरे सब भतारों का नाम उघट दूंगी।
- आय हाय.... बाह रे सतभतरी... गांव का एको जवान बाकि नही जिससे मुह न सटाई हो, तुम हमको कहेगी रे पुतकाटी.....
-आ हा हा... अन्हरिया रात में मुखीयवा बइठ के तेरे आँगन में परोरा का चोखा खाता है,उ नही कहेगी...
कह कह... किसके कमाई पर गमकौआ तेल लगाती है तनी ई भी बता दे...
- रै पुतखौकी, जबान संभाल नही तो मार कर तेरा बेल्ला फार दूंगी....
युद्ध अब प्रारम्भ होने ही वाला है कि एक मीठी आवाज सुनाई देती है, ए चाची चुप रहिये.... देखतीं नही कि कहाँ कहाँ के लोग आए हैं, क्या कहेंगे जा के..
मैं अचकचा के उठ कर देखता हूँ। हे भगवान, यह तो अप्सरा है..... यह रेंड़ के जंगल में जूही का फूल कहाँ से खिल गया देव.... गज़ब...
चाची उसको जवाब देती है- चुप सोगडाली.. देखती नही कि कैसे ई डायन मेरे पीछे पड़ी है।
"सोगडाली".. गालियों के इतिहास में इससे मीठी गाली नही है कोई। सोगडाली सोहागडालि का विकृत रूप है। तुझे सुहाग पड़ जाय.... तू सुहागिन हो जाय....जा तेरा सुहाग अमर हो... ऐसी गाली सिर्फ भोजपुरी में ही हो सकती है।
मैं भी कहता हूँ, जा तेरा सुहाग अमर हो.... तुझे राजा दूल्हा मिले।
झगड़ा देख कर सिपाही जी कान से मोबाईल सटा कर तेज आवाज में कहते हैं- हाँ सर, मैं बन्तरियां बूथ से बोल रहा हूँ, यहां महिलाएं बड़ी उत्पात कर रही हैं, जल्द चार गो लेडीज पुलिस भेजिए तो......
हल्ला एकाएक शांत हो गया है।
चार बजे तक मतदान एकदम आराम से होता है, पर चार बजे एकाएक ढाई सौ लोग आकर लाइन में लग गए। अब तो आठ बजे के पहले छूटी होने वाली नही है। छः बजे बिडिओ साहिबा आतीं हैं और सौ लोगों की लाइन देख कर भड़क जाती हैं। पीठासीन पदाधिकारी को दस झाड़ लगाती हैं- कैसे इतने आदमी को घुसा लिए? रात को दस बजे तक चुनाव कराओगे क्या?
दनादन कंट्रोल रूम में फोन करतीं हैं- सर यहां बन्तरियां में.................
कुछ देर में पीठासीन पदाधिकारी महोदय के फोन पर फोन आता है- मैं कन्ट्रोल रुम से बोल रहा हूँ, अपना जमीर बेच के खा गए हो क्या बे??
प्रोजाईटिंग सर रुआंसे हो गए हैं। एक शिक्षक के जमीर पर अंगुली उठाई गयी है। कन्ट्रोल रुम वाले साहब कोई बड़े अधिकारी होंगे, और निन्यानबे पर्सेंट चांस है कि उनकी माँ का कफ़न भी घूस के पैसे से ख़रीदा गया होगा, पर वे अधिकारी ठहरे,किसी की जमीर पर ऊँगली उठा सकते हैं। उन्हें इससे क्या कि सामने वाले शिक्षक को दिन भर में किसी ने एक कप चाय के लिए भी नही पूछा।
आठ बजे मतदान ख़त्म होता है, मैं जल्दी जल्दी कंधे पर बैग लटका कर गाड़ी निकालता हूँ, तभी नजर पड़ती है मेरी रसोइया माँ उधर कोने में खड़े हो कर मेरी ओर देख रही है। मैं उतर कर उसके पास जाकर कहता हूँ, प्रणाम चाची, अब चल रहा हूँ।
वह छूट कर बोलती है, हमको परनाम मत करिये बाबू... हमको नरक में मत भेजिए...
वह जान गयी है कि मैं ब्राम्हण हूँ। मैं गंभीर हूँ, तुम्हे प्रणाम न किया तो मैं नर्क में जाऊंगा चाची....
मैं उनके दिए आशीर्वादों का हिसाब करना नही चाहता, हिसाब करने की मेरी औकात भी नही। पर यह कहूँगा कि ये गांव बड़े प्यारे हैं।
घर आ कर सोचता हूँ, बिहार और उत्तर प्रदेश के गांवों की गरीबी पर किताब लिख कर अकादमी पुरस्कार पाने वालों को शायद पता नही होगा, ये गांव बहुत अमीर हैं।
सर्वेश तिवारी "श्रीमुख"
यूपी बिहार में कहीं भी....
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