"किसान का कोई सगा नहीं"
BY Suryakant Pathak10 Jun 2017 2:48 PM GMT

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Suryakant Pathak10 Jun 2017 2:48 PM GMT
पता नहीं वह कौन सा मुहूर्त था, जब दिल्ली की गद्दी पर बैठे किसी छोटी देह पर बड़े दिलवाले शासक ने कहा था- "जय जवान जय किसान", पर बाद के शासकों की देह बड़ी होती गपतायी और दिल छोटा होता गया, और किसी ने उस नारे को गंभीरता से लेने का प्रयास नहीं किया। आज जब अपनी रोटी सेकने के लिए किसानों के नाम पर प्रायोजित दंगे कराने का दौर चल ही पड़ा है, तो क्यों न किसानों की असली दशा पर भी विचार कर ही लिया जाय।
पन्द्रह दिन पहले मेरे घर शादी थी, उसमें पुलाव के लिए जो चावल खरीद के लाया था उसकी कीमत थी 85 रुपये किलो। आपको पता है, उस 85 रूपये में चावल का धान उगाने वाले किसान को कितना मिला होगा? ज्यादा से ज्यादा बीस से पच्चीस रूपये। ये बीच के साठ रूपये किसके पास और क्यों गये, यह सोचने की फुर्सत न सरकार को है, न किसानों के लिए परियोजनाएं बनाने वाले विद्वानों को है, न देश की बुद्धिजीविता को।
किसान का आलू सात रूपये किलो बिकता है, और उसी आलू से बनने वाले चिप्स की कीमत लगभग ढाई सौ रूपये किलो है।
किसान अपना गेहूं पन्द्रह रूपये किलो बेचता है और उसी गेहूं का छिलका "चोकर" पच्चीस रूपये किलो, और आटा पैंतीस रूपये किलो खरीदता है।
किसान अपना अरहर पच्चीस रूपये किलो बेचता है, और उसी का दाल दो सौ रूपये किलो खरीदता है।
मेरे पास मेरे पूर्वजों की पन्द्रह बीघे जमीन है, पर मैं खेती नहीं करता। मेरे सारे खेत बटाईदार रोपते हैं, और मैं 12936.00 रूपये महीने की सरकारी नौकरी करता हूँ। जानते हैं क्यों? मैं बताता हूँ, सन दो हजार पांच में बिहार सरकार ने 1500 रूपये की तनख्वाह पर शिक्षा मित्रों का नियोजन किया था। तब धान का मूल्य साढ़े नौ रूपये किलो था। आज बारह बर्ष बाद शिक्षामित्रों की तनख्वाह लगभग बीस हजार है और धान का मूल्य पन्द्रह रूपये किलो। क्या आगे कुछ कहने की आवश्यकता है?
मुझे याद है, सन तिरानवे चौरानवे में जब हम बच्चे थे तो घर से धान ले जा कर बेंच कर मिठाई खाने की विशुद्ध देहाती आदत थी। तब धान तीन रुपये किलो बिकता था। आज बाइस साल बाद धान पन्द्रह रूपये किलो बिकता है। आप इस मूल्य बढ़ोतरी की तुलना सोना या पेट्रोल से कर के देख लीजिए, किसानों की दशा समझ में आ जायेगी।
देश के नेता जब किसानों के हित की बात करते हैं, तो उनकी सबसे बड़ी कृपा कर्जमाफी के रूप में झलकती है। लगता है जैसे किसान का कर्ज माफ करना ही उसका सबसे बड़ा उपकार करना है। पर किसी ने आज तक यह नहीं सोचा कि आजादी के सत्तर साल बाद भी किसानों को बीज खरीदने के लिए कर्ज क्यों लेना पड़ता है। किसी ने यह नहीं समझा कि विकास के बड़े बड़े दावों के बीच किसान को बेटी की शादी में जमीन क्यों बेचनी पड़ती है।
किसानों के लिए लाभकारी कही जाने वाली सरकारी योजना बनाने वाली समितियों में क्या कोई एक व्यक्ति भी ऐसा रहता है, जो दस कट्ठा में भी खेती करता हो? पिछले सत्तर साल में क्या कभी भी किसी सरकार ने योजना बनाते समय किसानों से उनकी राय पूछी है? नहीं। सच यह है कि योजनाएं किसानों को ध्यान में रख के नहीं, बल्कि उसमे से निकल सकने वाले कमीशन की मलाई को ध्यान में रख कर बनाई जाती रही हैं।
किसी भी समय का सत्ता पक्ष और विपक्ष किसानों के हित का कितना भी दावा करे, पर सच यह है कि पिछले सत्तर साल की किसी भी सरकार ने किसानों के सम्बन्ध में गंभीरता से नहीं सोचा। सबने किसानों के नाम पर अपनी रोटी सेंकी है। किसान सदैव विपक्ष से सत्ता तक पहुँचने की सीढ़ी भर रहा है। सुनने में थोड़ा कड़वा लगेगा, पर सच यही है कि हर वह पार्टी जो विपक्ष में है, चाहती है कि कोई किसान आत्महत्या करे ताकि हम हल्ला करें।
मेरे बाबा कहते थे, पहले समाज में किसान नम्बर वन, ब्यावसायी नम्बर टू, और नौकरी करने वाले नम्बर थ्री पर गिने जाते थे। अब दशा ठीक उलटी हो गयी है। नौकरी करने वाला सबसे ऊपर है और किसान सबसे नीचे, ब्यावसायी अब भी मध्य में हैं।
काश कि कोई सरकार इसपर विचार करती कि किसान नम्बर वन से नम्बर थ्री पर क्यों आ गया।
देश से हजारों किलोमीटर दूर निकलने वाले पेट्रोल की कीमत सीधे बाजार से जोड़ दी गयी है, पर किसान की फसल अब भी सौ जगह बिकती और मुनाफा देती है, तब जगह पर पहुँचती है। ये बीच के सौ बटखरे ही वे फंदे हैं जो किसानों का गला घोंटते हैं। काश! कोई इन फंदो को काट देता।
किसानों के नाम पर आज हल्ला करने वाले भूल गए हैं कि सत्तर साल में 55 साल उनकी ही सरकार रही है, और उनका विरोध करने वाले यह भूल गए हैं कि सत्ता में आने के पहले वे भी इसी तरह हल्ला करते थे। काश! कि उनकी यादाश्त तनिक अच्छी होती।
हो सकता है कि आज के हो-हल्ले के बाद किसानों का कर्ज माफ़ हो जाय, पर यह तय है कि किसानों की दशा नहीं बदलेगी, क्योंकि हल्ला उनकी नहीं अपनी दशा बदलने के लिए हुआ है। किसान का कोई सगा नहीं।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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