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छोटे मीडिया समूहों पर मँडराता आर्थिक संकट और विपन्न होते पत्रकार

छोटे मीडिया समूहों पर मँडराता आर्थिक संकट और विपन्न होते पत्रकार
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चार माह बीतने के बाद भी कोरेना संक्रमण कम होने का नाम नहीं ले रहा है। कोरेना संक्रमण को नियंत्रित करने के दौरान केंद्र सरकार ने लॉक डाउन का प्रयोग किया। दो महीने से अधिक समय तक पूरा देश लॉक डाउन में फंसा रहा । ऐसे में प्रवासी मजदूरों द्वारा अपने घरों के लिए पैदल या जो भी साधन मिला, उससे निकलना सरकार के सामने चुनौती बन गया। फिर श्रमिक ट्रेने और बसें चला कर सरकार ने उन्हें भी जैसे तैसे उनके गाँव तक पहुंचाया। उन्हें क्वारंटीन किया गया। लेकिन कहीं न कहीं थोड़ी बड़ी चूक जरूर हुई, जिसकी वजह से कोरेना से संक्रमित होने वाले मरीजों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। हालांकि जांच में भी तेजी आई है। हजारों लोगों की रोज जांच की जा रही है । इस कारण भी संक्रमित मरीजो की संख्या बढ़ रही है ।

ऐसे में जब लोग कोरेना संक्रमण से भयभीत होकर अपने घरों में खुद द्वारा खीची गई लक्ष्मण रेखा का पालन कर रहे थे। सरकार द्वारा बिना किसी सुविधा और सहूलियत के अपने संसाधनों से पत्रकार अपने जान को जोखिम में डाल कर समाचार संकलन का कार्य कर रहे थे, और आज भी कर रहे हैं। छोटे मीडिया समूहों, समाचार पत्रों, इलेक्ट्रानिक्स चेनलो को जो आर्थिक मदद का जरिया था। वह भी सब बंद हो चुका था । ऐसे छोटे समाचारपत्रों और इलेक्ट्रानिक्स मीडिया में विज्ञापन ही धनागम का मार्ग होता है। लॉक डाउन के दौरान सब कुछ बंद हो चुका था। सभी लोग अपने – अपने घरों में रह रहे थे । इस कारण विज्ञापन मिलना पूरी तरह से बंद हो गया था। जो छोटे मीडिया समूह होते हैं, वह समाजसेवा की सनक मे चलाये जाते हैं। यह पाया गया है कि अधिकांश छोटे मीडिया वाले चाहे वे प्रिंट मीडिया वाले हों, या इलेक्ट्रानिक्स मीडिया वाले हों। सबकी आर्थिक हालत बहुत मजबूत नहीं होती है । लेकिन इस क्षेत्र में उतरने के पहले उनके पास एक गणित होता है कि पैसा यहाँ से आएगा और उसका उपयोग किया जाएगा । लेकिन चाहे जिंदगी हो या गतिविधियां मनुष्य के वश में नहीं होती हैं। हालांकि मनुष्य उसे अपने हिसाब से चलाने का प्रयास करता है। लेकिन वह चला नहीं पाता । ऐसा ही कोरेना संकट काल में हुआ । इन छोटे मीडिया समूहों में काम करने वाले पत्रकारों या कार्यालयों में काम करने वालों की तंख्वाह भी बहुत ही कम होती है । बड़ी मुश्किल से उनका जीवन यापन होता है। उनसे अधिक तो एक दिहाड़ी मजदूर कमाता है । इस कारण मीडिया समूह के मालिको के द्वारा इन चार महीनों में इधर-उधर से मांग करके या अपने पास जो जमापूंजी थी, उसमें इसे अखबार या इलेक्ट्रानिक्स मीडिया का खर्च और अपने लिए काम करने वाले पत्रकारों और कार्यालयीन कर्मचारियों का वेतन दिया गया। अनलॉक डाउन होने के बाद भी मार्केट की हालत बहुत अच्छी नहीं है। या पिछले चार महीने से जो बंदी थी, उसकी वजह से दूकानदारों के सामने भी आर्थिक संकट है। उनकी दूकान और ग्राहक भी टूट गए हैं। सब कुछ बंद होने की वजह से आम आदमी के पास भी पैसा नहीं रह गया। इन चार महीनों में उसने किसी तरह अपने परिवारवालों के लिए रोटी का प्रबंध किया, यही बहुत है । इस कारण अनलॉक होने के बाद भी बिजनेस अपने शबाब पर नहीं आया । बिक्री नहीं होने की वजह से अनलॉक होने के बाद भी इन छोटे अखबारों या इलेक्ट्रानिक्स मीडिया वालों को कोई विज्ञापन नहीं मिल पा रहा है ।

पाठकों की बदलती आदतों के कारण के एक और बदलाव आया है। अब अखबार पढ़ने के बजाय पाठक उसकी पीडीएफ मांगता है, जिसे वह चलते – फिरते या फुरसत के समय पढ़ सके । इस कारण छोटे अखबार वालों का एक खर्चा और बढ़ गया । अब हर छोटे अखबार वाला अखबार छापने के साथ – साथ उसकी पीडीएफ भी तैयार करवाता है। अपुष्ट सूचनाओं के अनुसार अब राज्य सूचना विभाग भी समाचार पत्र की मूल कॉपी के साथ उसकी पीडीएफ की मांग करता है। इस कारण भी छोटे समाचारपत्रों को पीडीएफ तैयार करना पड़ता है । इस कारण हर रोज पीडीएफ के लिए भी छोटे मीडिया समूहों को पैसे खर्च करने पड़ते हैं ।

समाचार दिखाने और छापने की प्रतिस्पर्धा के कारण भी छोटे मीडिया समूहों का खर्च बढ़ गया । अब वे पत्रकारों को भले ही कम वेतन दें, लेकिन उन्हें आधुनिक संसाधनों से लैस करना पड़ता है । इलेक्ट्रानिक्स से बने सामान महंगे होते हैं, और उनकी वारंटी भी नहीं होती है। इस कारण भी उन्हें साल मे कई बार जरूरी संसाधनों का प्रबंध करना पड़ता है ।

इतना ही नहीं, छोटे अखबार वालों और इलेक्ट्रानिक्स मीडिया समूहों के सामने एक और संकट है। वह संकट है पाठकों का। बड़े चेनेलो और चार पाँच बड़े अखबारों के अलावा छोटे अखबारों को न तो कोई खरीदना चाहता है और न पढ़ना चाहता है । इस कारण उसकी बिक्री दिन पर दिन कम होती जा रही है । गिरती बिक्री दर की वजह से भी वे बहुत परेशान हैं । अखबार की बिक्री से उनके पास जो पैसे आते थे, थोड़े थे, लेकिन वे भी आना कम हो गए । इस करना छोटे अखबार वालों और इलेक्ट्रानिक्स मीडिया समूहों को बहुत आर्थिक नुकसान हो रहा है। देश के चार-छ: बड़े अखबारों की प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिए छोटे अखबार सनसनीखेज खबरें प्रकाशित करने का प्रयास करते हैं। बिना किसी दबाब में आए सही सही खबर दिखाने में अपनी ऊर्जा नष्ट करते हैं। इसकी वजह से उन्हें प्रशासन से लेकर सरकार और संबन्धित व्यक्ति का भी कोपभाजन बनना पड़ता है । इस तरह से छोटे मीडिया वालों की पूरी जिंदगी का एक हिस्सा इस प्रकार के संघर्षों में व्यतीत हो जाता है ।

अब थोड़ी सी बात इन छोटे अखबारों या मीडिया समूहों में काम करने वाले पत्रकारों की कर लेते हैं । इनमें काम करने वाले अधिकांश पत्रकारों को कोई तनख्वाह नहीं मिलती है। उनके खर्चे और भरण पोषण विज्ञापन पर निर्भर करता है। छोटे मीडिया समूह वाले अपने पत्रकारों को विज्ञापन का एक बड़ा भाग पत्रकार को दे देते हैं। कहीं कहीं यह 50 प्रतिशत होता है और कहीं कहीं यह 60 प्रतिशत तक होता है । इसे हम इस रूप में भी समझ लेते हैं कि छोटे मीडिया समूहों में काम करने वाले पत्रकारों को अगर एक हजार रुपये का विज्ञापन मिलता है, तो पाँच सौ रुपये वे समाचार पत्र मालिक को दे देते हैं और पाँच सौ रुपये खुद रख लेते हैं । ऐसे में जब दिन पर दिन समाचारपत्रों की संख्या बढ़ती जा रही है। बड़ी मुश्किल से ही वे उतने ही विज्ञापन की व्यवस्था कर पाते हैं, जिससे बड़ी मुश्किल से उनका गुजारा हो पाता है । बचत की तो कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। इसी आर्थिक विपन्नता को दूर करने के लिए कहीं-कहीं कुछ पत्रकार थानों या सरकारी कार्यालयों में दलाली करने लगते हैं। इसमें उनकी अच्छी कमाई हो जाती है, लेकिन ऐसे पत्रकारों की खबरों की शुचिता नहीं रह पाती है। ऐसा करने वाले छोटे समाचारपत्रों को न तो कोई पढ़ता है और न ऐसे चेनलों को कोई देखता है । फिर भी बिचौलिया की भूमिका की वजह से उनकी उपयोगिता बनी रहती है।

कुछ भी हो, लेकिन कोरेना संक्रमण के कारण लगे लॉक डाउन में ऐसे छोटे समाचारपत्रों में काम करने वाले पत्रकारों की आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो गई। एक तरफ हर खबर कवरेज करने का दबाव और दूसरी तरफ एक भी रुपया या विज्ञापन न मिलने की विवशता के बीच वह रोज एक मौत मर रहा था। फ्री में राशन बाँट रहे कोटेदारों से कभी-कभार उन्हें मदद मिल जाया करती थी । इसी से उसका काम चल जाता था। इस दौरान न तो वह अपने घर में सब्जी ला पाया और न अपने बच्चों के बार – बार कहने के बाद भी एक टाफी । ऐसी विपन्न स्थिति तो इस देश के गरीब से गरीब व्यक्ति की नहीं होगी। लेकिन न तो सरकार द्वारा और न ही समाजसेवकों द्वारा उसकी खुल कर उसकी मदद की गई। अगर 10 रुपये का मास्क भी खरीदना हुआ तो उसे न तो प्रशासन ने दिया, न सरकार ने दिया और न ही किसी अन्य व्यक्ति ने। उसे खुद 10 रुपये की व्यवस्था करके खरीदना पड़ा । यही हाल सेनीटाइजर खरीदने के लिए भी हुआ । तमाम संक्रमित जगहों पर घूमने और तमाम लोगों के बीच से गुजरने की वजह से उसके सामने यह बड़ी समस्या रही कि समाचार संकलन के साथ-साथ वह खुद को भी कैसे बचाए । इस कारण सेनेटाइजर सहित अन्य जरूरी सामान भी खरीदने पड़े । या तो यह खर्च उसने अपनी थोड़ी बहुत बचत से किया। या किसी अपने परिचित के आगे अपनी खुद्दारी बेच कर उनसे मांगा या किसी को दया आ गई तो उसे दिया । इसके बाद इन चार महीनों में विज्ञापन या कही से किसी प्रकार की मदद न मिलने की वजह से वह हर दिन विपन्न होता गया । देश और विश्व की चिंता करने वाला पत्रकार अपनी इस चिंता में भी घुटता रहा और आज ही घुट रहा है ।

इस तरह से जहां एक ओर छोटे समाचारपत्रों के मालिक परेशान हैं, वहीं दूसरी ओर उनके साथ काम करने वाले पत्रकार से लेकर कर्मचारी तक आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं । लोकतन्त्र के इस चौथे खंभे की शुचिता बनाए रखने के लिए यह सरकार ही नहीं, सबकी ज़िम्मेदारी बनती है कि छोटे अखबार जिंदा रहें, छोटे मीडिया चेनल चलते रहे । नहीं तो यह चौथा स्तम्भ भरभरा कर गिर जाएगा। अगर लोकतन्त्र का यह स्तम्भ क्षतिग्रस्त हुआ, तो लोकतन्त्र को भी अपने अस्तित्व को बचाने के लिए नित्य आँसू बहाना पड़ेगा ।

प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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