शिक्षा में फर्जीवाड़ा या फर्जीवाड़ा में शिक्षा – प्रोफेसर (डॉ.) योगेन्द्र यादव

किसी भी व्यक्ति या समाज के उत्थान में शिक्षा और शिक्षक का क्या महत्त्व है ? इसकी अनुभूति सभी को है। यह बात दूसरी है कि कोई उसे अभिव्यक्त कर लेता है, कोई अभिव्यक्त नहीं कर पाता है । लेकिन जानते सभी हैं। इसके महत्त्व के कारण ही गरीब हो या अमीर सभी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। जिससे उनके बच्चे का भविष्य उज्ज्वल हो सके और आर्थिक और सामाजिक दृष्टि से उनकी स्थिति सुदृढ़ हो सके । इसी कारण शिक्षक को गुरु माना जाता है। अधिकांश छात्र और छात्राएं गुरुजी के नाम से ही शिक्षक को संबोधित करते हैं और कई मनीषियों ने गुरु का स्थान परमपिता परमेश्वर से भी ऊंचा बताया है। ऐसा माना जाता है कि जिसे अच्छा गुरु मिल जाता है, उसमें अच्छे संस्कार पड़ते हैं, अच्छी आदतें होती हैं, सही और गलत की समझ होती है। कर्मठता कूट-कूट कर भर जाती है । इसी कारण अपनी मेधा और कर्मठता के बल पर वह एक सफल जीवन जीता है।
समाज के सभी वर्गों को शिक्षा मिले। गरीब से गरीब बच्चा भी पढ़ सके । इसी कारण सरकार ने सरकारी स्कूल खोले और साथ ही ऐसे कई विद्यालय भी खोले, जहां पर गरीब और मेधावी बच्चों को शिक्षा मिल सके। कई विद्यालयों में रहने और खाने-पीने की भी समुचित व्यवस्था की गई । प्रायमरी स्कूलों में तो मिड डे मील के नाम से प्रतिदिन बच्चे को दोपहर को पौष्टिक आहार की व्यवस्था की गई। उसके लिए हर प्रायमरी स्कूल में एक रसोई घर और खाना पकाने के लिए एक आया को नौकरी दी गई। जो प्रतिदिन बच्चों को पका कर खिलाती रहे ।
प्राथमिक शिक्षा के महत्व को समझने के बाद सरकारों ने शिक्षकों के वेतन में वृद्धि की। इस कारण एक सम्मानजनक वेतन सभी को मिलने लगा । कई शोध अध्ययन के बाद सरकार इस नतीजे पर पहुंची कि प्रायमरी शिक्षा के लिए स्त्रियाँ श्रेष्ठतर होती हैं। इस कारण प्रायमरी स्कूलों में स्त्रियों को तरजीह दी जाने लगी। इस कारण अभिभावकों का भी रुझान बढ़ा। वे अपनी बेटियों को पढ़ाने लगे और ऐसे पाठ्यक्रम कराने लगे। जिससे उनकी पुत्री को प्रायमरी स्कूल में नौकरी मिल जाए । शुरू –शुरू में सब ठीक रहा। जब तक प्रायमरी शिक्षा में स्त्रियों की संख्या कम रही, तब तक उन्हें घर-गाँव के पास ही नौकरी मिल जाया करती थी। और वह नियमित रूप से पढ़ाने भी जाती रही । लेकिन जैसे – जैसे स्त्रियों की संख्या में इजाफा होने लगा, फिर उनकी नियुक्ति दूर-दूर प्रायमरी स्कूलों में होने लगी। एक कुंवारी या शादीशुदा महिला के लिए अपने घर और मुख्य मार्ग से दूर स्थित स्कूलों में नौकरी करना काफी दुष्कर प्रतीत हुआ। आने – जाने की परेशानी के अलावा सूनसान रास्ते पर इज्जत पर भी बन आई । यहीं से भ्रष्टाचार की शुरुआत हुई ।
ऐसी हर महिला शिक्षिका जिसकी नियुक्ति अपने गाँव घर से दूर किसी इंटीरियर में पोस्टिंग हो जाती । वह वहाँ जाने के पहले या पहले दिन से ही यह जुगाड़ करने लगती कि उसे कम से कम आना पड़े, तो अच्छा है। भले इसके लिए कुछ पैसे खर्च करने पड़ें, तो वह कर देगी। इसके लिए सबसे पहले ऐसी महिलाओं ने प्रधानाध्यापक की सहानुभूति जीतने की कोशिश की । इस साँठ-गांठ में उसके घर वाले भी शामिल होते हैं । धीरे-धीरे जब बात बन जाती, तो फिर एक निश्चित राशि प्रधानाध्यापक को देने की शर्त पर उसे स्कूल आने में छूट मिल जाती । अगर इस बात की भनक ग्राम प्रधान को लग जाती, तो वह भी एक निश्चित राशि लेकर उस महिला शिक्षिका को आने की छूट देता । लेकिन बच्चों की पढ़ाई बाधित न हो, और किसी को शक भी न हो, इस कारण उस शिक्षिका के स्थान पर वहीं समीप की किसी बेरोजगार महिला या पुरुष को पढ़ाने के लिए रख लिया जाता । और वह पढ़ाने लगता। यह बात शिक्षा अधिकारियों से भी छिपी नहीं रह सकती, उन्हें भी जैसे तैसे मैनेज कर लिया जाता । अगर नहीं मैनेज होते, तो जिस दिन वे दौरे पर होते, उस दिन उस अमुक शिक्षिका को बुला लिया जाता, या उसकी छुट्टी का आवेदन पत्र अधिकारी को दिखा दिया जाता। जो ऐसे मामलों में पहले से ही लिख कर रखा होता है । धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति बढ़ती गई। और कई मसलों में तो जिस स्त्री का शिक्षिका के रूप में चयन हुआ होता है, उसे तो कोई जानता ही नहीं है। उनके द्वारा एक निश्चित राशि देकर भेजा गया शिक्षक ही पढ़ाता और लोग उसी की जानकारी भी रखते । हालांकि इस प्रकार की प्रवृत्ति को रोकने के लिए सरकार द्वारा समय समय पर कई प्रयोग किए गए। लेकिन सरकार की हर व्यवस्था का तोड़ ऐसे लोग निकाल ही लेते हैं । इस प्रकार की प्रवृत्ति सिर्फ प्रायमरी स्कूलों में ही पाई जाती है, ऐसा नहीं है । स्ववित्त पोषित महाविद्यालयों में भी कई ऐसे शिक्षक मिल जाएंगे, जिन्होने एक से अधिक जगह अपना एप्रूवल करा रखा है। यानि ऐसे शिक्षको की भी सैलरी भी एक से अधिक महाविद्यालयों से निर्गत होती है ।
जब से अनामिका शुक्ला के 25 से अधिक विद्यालयों में नौकरी करने और एक करोड़ से अधिक वेतन लेने का समाचार सुर्खियो में आया है, तब से यह समझ में ही नहीं आता कि शिक्षा में फर्जीवाड़ा है, या फर्जीवाड़ा में ही शिक्षा चल रही है। अगर सरकार इसकी सीबीआई से जांच कराये तो शिक्षा में हो रहे फर्जीवाड़ा और फर्जीवाड़ा में चल रही शिक्षा का खुलासा हो सकता है। वैसे विभागीय जांच चल रही है। समाचारपत्रों और सोशल मीडिया पर इस प्रकरण के उछलने की वजह से इसकी विभागीय जांच चल रही है, और कई और इस प्रकार के प्रकरणों का खुलासा हो रहा है ।
जैसे – जैसे ऐसे प्रकरणों का खुलासा हो रहा है, वैसे वैसे यह विश्वास होता जा रहा है कि पूरी शिक्षा ही फर्जीवाड़ा में चल रही है। लेकिन ऐसा भी नहीं है, मैं बहुत से ऐसे प्रायमरी स्कूलों के शिक्षकों और शिक्षिकाओं को जानता हूँ, जिनकी कर्मठता, शिक्षण शैली और नियमितता की चर्चा सिर्फ विभागों में ही नहीं, स्थानीय गावों में भी प्रतिदिन होती रहती है ।
अब आइये थोड़ी सी चर्चा अनामिका शुक्ला के प्रकरण की भी कर लेते हंप । अभी तक अनामिका शुक्ला या उस जैसे जितने प्रकरण प्रकाश में आ रहे हैं, उनका संबंध कस्तूरबा विद्यालयो से ही है । ये आदर्श विद्यालय माने जाते हैं। जहां पर बालिकाओं को शिक्षा के साथ रहने और खाने की भी व्यवस्था सरकार की तरफ से होती है ।
अनामिका शुक्ला द्वारा पच्चीस स्कूलों में एक साथ नौकरी करने और एक करोड़ से अधिक वेतन आहरण करने की घटना साधारण घटना नहीं कही जा सकती है । व्यापक स्तर पर फर्जीवाड़े के बिना यह कैसे संभव है। सरकार द्वारा की जा रही नियुक्तियों और उसकी प्रक्रियाओं का जब अध्ययन करता हूँ, तो वे बेहद पेचीदी दिखाई पड़ती हैं। बिना ऊंची पहुँच या बड़े स्तर पर लेन-देन के यह संभव प्रतीत नहीं होता है । अभी अनामिका शुक्ला का प्रकरण चल ही रहा है। तभी एक दूसरा प्रकरण भी सामने आ गया ।
दीप्ति नाम की एक शिक्षिका मैनपुरी के करहल स्थित कस्तूरबा गांधी आवासीय बालिका विद्यालय में फर्जी शिक्षिका के रूप में बच्चों को पढ़ा रही थी। अनामिका शुक्ला के फर्जीवाड़े का खुलासा होते ही उसने चार दिन पहले इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा प्राप्त होते ही विभाग हरकत में आ गया। बेसिक शिक्षा अधिकारी विजय प्रताप सिंह ने मामले की पेचीदगी समझते हुए दो सदस्यीय जांच समिति बना कर उन्हें रिपोर्ट देने को कहा है । इस फर्जी शिक्षिका की पहले भी शिकायत हो चुकी थी, लेकिन उसकी पहुँच के कारण शिकायतकर्ता को अपनी शिकायत वापस लेना पड़ा था । इसी कारण अधिकारियों ने जांच करना मुनासिब नहीं समझा । उधर अनामिका शुक्ला के संबंध में संदिग्ध भूमिका वाले तीनों कर्मचारियों वार्डन वीना, लेखाकार हरिशंकर और जिला समन्वयक बालिका शिक्षा गजेंद्र सिंह की जांच चल रही है।
जांच के दौरान असली अनामिका शुक्ला भी सामने आई और उसने गोंडा जिले के बेसिक शिक्षा अधिकारी को शपथ पत्र देते हुए कहा कि उसने आज तक नौकरी की ही नहीं। उसके शैक्षणिक अभिलेखों का गलत उपयोग किया गया है । जैसे- जैसे इस मामले की जांच आगे बढ़ रही है, वैसे-वैसे दिन-प्रतिदिन इस मामले की पेचीदगी भी बढ़ती जा रही है ।
यह मामला सिर्फ अनामिका शुक्ला का नहीं है। पूरे सिस्टम का है । जिसमें सरकार, बेसिक शिक्षा अधिकारी कार्यालय के अधिकारी और कर्मचारी, और इन विद्यालयों के प्राचार्यों की संलिप्तता किसी न किसी रूप में जरूर है। हो सकता है कि इसमें से कई सीधे तौर पर शामिल न हों, लेकिन इस पूरे प्रकरण को जानते हुए कहीं न कहीं नजर फेरने का काम तो उन्होने किया ही है। सवाल फिर शिक्षा पर आकर खड़ा होता है । जिन शिक्षको और अधिकारियों के हाथो में इस देश का भविष्य गढ़ने की ज़िम्मेदारी दी गई है। अगर वे ही ऐसा कृत्य करेंगे, तो प्राथमिक या कस्तूरबा गांधी आवासीय विद्यालय पढ़ने वाले बच्चों का क्या होगा ? जिसका गुरु ही फर्जीवाड़ा कर रहा हो, उसके विद्यार्थी भविष्य में ऐसा कृत्य नहीं करेंगे, यह कैसे हो सकता है । क्योंकि ऐसा देखा गया है कि बच्चों के ऊपर सबसे अधिक प्रभाव शिक्षक का पड़ता है। उसके पढ़ाने का पड़ता है, उसके आचरण का पड़ता है। हालांकि जिस तत्परता के साथ सरकार इस सारे प्रकरण की जांच करवा रही है, उससे उसकी निष्ठा तो सही प्रतीत होती है। ऐसा प्रकरण आने के बाद सरकार को एक बार पूरे प्रदेश के शिक्षकों की सरसरी तौर पर जांच करवा लेना चाहिए। जिससे कम से कम उत्तर प्रदेश की शिक्षा फर्जीवाड़े से निकल कर अपनी शुचिता कायम कर सके ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट