गङ्गा दशहरा (भाग ४):- (निरंजन मनमाडकर )

महादेव जी बोले
एवं हरितनुं प्राप्ता ज्ञात्वा गङ्गां विधिस्तथा |
शून्यं कमण्डलुं चापि विलोक्य मुनिसत्तम ||
हे मुनिसत्तम! पितामह ब्रह्माजीने भगवती गङ्गा को भगवान श्रीविष्णु के चरणकमल में स्थित जानकर अपने कमण्डलु को जलविहिन देखा.
चेतसा चिन्तयामास क्षणं त्रिदशवन्दितः |
इयं द्रवमयी गङ्गा त्रिषु लोकेषु दुर्लभा ||
और वे मनमे चिन्तन करने लगे, कि अब ये द्रवमयी गङ्गा तिनों लोकों में दुर्लभ होगयी!
पुण्यात्पुण्यतमा धन्या स्थिता मम कमण्डलौ |
प्राप्ता हरिपदाम्भोजं निश्चला समभूदियम् ||
मेरे कमण्डलुस्थित यह गङ्गा अब भगवान श्रीहरी के चरणकमलोंको पाकर वही स्थिर होगयी!
नूनं नदी स्वयं भूत्वा स्वर्गं मर्त्यं रसातलम् |
पवित्रं प्रकरिष्यन्ति सिद्धसङ्गमवाप्स्यति ||
निश्चय ही नदी बनकर स्वर्गलोक पाताल तथा पृथ्वीपर को पवित्र करती हुई सिद्धजनों के सान्निध्य को प्राप्त करेगी!
तदहं तपसा सद्यो देवीं गङ्गां सुरेश्वरीम् |
भूयो विष्णुपदाम्भोजातद्द्रावयिष्यामि निश्चितम् ||
अतः शीघ्र ही तपके द्वारा सुरेश्वरी देवी गङ्गा को पुनः भगवान विष्णु के चरणकमलों से द्रवित करूंगा!
ऐसा विचार कर ब्रह्माजी वैकुंठ आए.
विप्णुपदी भगवती गङ्गा की प्रार्थना करने लगे. पितामह की चिरकाल प्रार्थना के पश्चात भगवती गङ्गा प्रकट हुई और कहा.....
अहं हरितनौ ब्रह्मन्स्थास्ये कालं कियद्ध्रुवम् |
ततो द्रवमयी भूत्वा विष्णोः पादाम्बुजात्पुनः |
निःसृत्य पावयिष्यामि लोकत्रमसंशयम् ||
ब्रह्मन्! कुछ काल तक मैं भगवान श्रीहरी के विग्रह में निवास करूंगी तथा पश्चात भगवान विष्णुके चरणकमलों से निकलकर द्रवमयी होकर पुनः तीनों लोकोंको पवित्र करूंगी इसमे संशय नही!
स्तुता भगीरथेनाऽहं राज्ञा चामिततेजसा |
भागीरथीति विख्याता यस्येऽहं धरणीतले ||
अमिततेजस्वी महाराज भगीरथ द्वारा स्तुति करने पर 'भागीरथी' के नामसे विख्यात होकर पृथ्वीलोक में आऊंगी तथा उनके सम्पूर्ण पूर्वजोंका उद्धार करूंगी, तत्पश्चात् सिद्धजनों का सान्निध्य प्राप्त कर आगें पाताल लोक में प्रवेश करूंगी.
ब्रह्माजी कहते है!
हे सुरोत्तमे! मैं भी अपनी ज्ञान दृष्टिसे यह जानता हूँ कि आप राजा भगीरथ की किर्ती बढाएंगी!
हे शिवसुन्दरी! मैं भी इसलिए आपके श्रीचरणों में प्रार्थना करता हूँ कि आप भगवान श्रीहरी के चरणोंसे प्रवाहित होकर त्रिलोक कों पावन करें!
तब भगवती गङ्गा शीघ्र ही अन्तर्धान होगयी और तथा लोकपितामह ब्रह्माजी अपने ब्रह्मलोककों प्रस्थान कर गएं!
यहाँ से आगे गङ्गावतरण की याने भगीरथ महाराज की कथा आती है!
यहापर सगरपुत्रों का कपिल महामुनीसे शापित होना आदि वर्णन नही आता, श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम स्कंध में सूर्य वंशका वर्णन करते समय शुकदेवजी यह कथा महाराज परीक्षित को सुनाते है!
श्रीमद्भागवत महापुराण नवम स्कंध अष्टमोऽध्यायः!
इस अध्याय में पुराण लक्षण वंशानुचरतिम् का वर्णन आता है
सूर्य वंशी राजाओंकी कथा
हरिश्चंद्र का पुत्र रोहित
रोहित का पुत्र हरित
हरित का पुत्र चम्प
चम्प का पुत्र सुदेव
सुदेव का पुत्र विजय
विजय का पुत्र भरूक
भरूक का पुत्र वृक
वृक का पुत्र बाहुक
और बाहुक के पुत्र हुए महाराज सगर
सगर बडे यशस्वी राजा हुए! उनकी दो रानियाँ थी सुमति एवं केशिनी!
सगर के पुत्रोंने ही पृथ्वी खोद कर समुद्र बना दिया!
एक समय की बात है जब महाराज सगरजी ने और्व ऋषि की आज्ञानुसार अश्वमेध यज्ञके द्वारा सम्पूर्ण वेद एवं देवतामय आत्मस्वरूप सर्वशक्तिमान परब्रह्म की आराधना की. उस यज्ञ के घोडे को देवराज इन्द्र ने चुरा लिया!
महारानी सुमति के पुत्रोंने अपने पिता सगर की आज्ञानुसार घोडेके लिएं सारी पृथ्वी छान डाली.
जब उनको घोडा नही मिला तब अहंकारवश सब ओरसे पृथ्वी को खोद डाला. खोदते खोदते वे जब पूर्वी उत्तर भाग में आए तब उन्हे कपिलमुनी के आश्रम में अपना घोडा दिखाई पडा!
घोडे को देखकर वे साठहजार सगरसुमति के पुत्र शस्त्र उठांकर यह कहते हुए मुनीश्री के और दौडे की यही घोडे कों चुराने वाला है. देखो तो सही इसने इस समय कैसे आँख मूँद रखी है! यह पापी है इसे मार डालो मार डालो! उसी समय कपिलमुनी ने उनकी पलके खोलीं!
इन्द्र ने राजकुमारोंकी बुद्धी हर ली थी अतः उन्होने कपिल जैसे महात्मा का तिरस्कार कियाँ. इस तिरस्कार स्वरूप उनके शरीर में आग लग गई और वे क्षणभरमें सबके सब जल कर भस्मसात हुएं.
सगर की दुसरी पत्नी थी केशिनी और केशिनी के गर्भ से उन्हे पुत्र हुआ असमंजस! असमजंस के पुत्र का नाम था अंशुमान!
अंशुमान अपने दादा सगरकीं आज्ञाओंका पालन तथा उन्हींकी सेवा में लगा रहता था! और वे महाराज सगर की आज्ञा से घोडे को ढुंढने निकले.
अपने चाचाओंके द्वारा खोदे हुए समुद्र के किनारे चलते चलते उनके शरीर के भस्म के साथ घोडा भी दिखाई दियि.
वही भगवान के अवतार कपिलमुनी बैठे हुए थे! उनको देखकर उदारह्रदय अंशुमानने श्रीचरणों में प्रणाम किया एवं स्तुती की!
अंशुमानुवाच
न पश्यति त्वां परमात्मनो जनो
न बुध्यतेऽद्यापि समाधियुक्तिभिः |
कुतोऽपरे तस्य मनःशरीरधी
विसर्गसृष्टा वयमप्रकाशाः ||
भगवन्! आप अजन्मा ब्रह्माजी से भी परे है! अतः वे आपको प्रत्यक्ष नही देख पाते! देखने की बात अलग रही वे समाधि करते करते एवं युक्ति लडाते लडाते हार गये, किन्तु आजतक आपको समझ भी नही पाये. हमलोग तो उनके मन शरीर और बुद्धिसे होनेवाली सृष्टिके द्वारा बने हुए अज्ञानी जीव है! तब भला हम आपको कैसे जान सकते है?
ये देहभाजस्त्रिगुणप्रधाना
गुणान् विपश्यन्त्युत वा तमश्च |
यन्मायया मोहितचेतसस्ते
विदुःस्वसंस्थं न बहिःप्रकाशा ||
संसार के शरीरधारी सत्वगुण रजोगुण तथा तमोगुण प्रधान है. वे जाग्रत और स्वप्न अवस्था में केवल गुणमय पदार्थों, विषयोंको और सुषुप्ति अवस्था में भी केवल अज्ञान ही अज्ञान देखते है क्यों की वे आपकी माया से मोहित है! बहिर्मुख हो ने के कारण बाहर वस्तुओंको देखते है अपने ह्रदयमें स्थित आपको नही देख पाते.
तं त्वामहं ज्ञानघनं स्वभाव
प्रध्वस्तमायागुणभेदमोहैः |
सनन्दनाद्यैर्मुनिभिर्विभाव्यं
कथं हि मूढः परिभावयामि ||
आप एकरस ज्ञानघन है! सनन्दन आदि मुनी जो आत्मस्वरूप के अनुभव से मायाके गुणों के द्वारा होनेवाले भेदभाव को और उसके कारण अज्ञान को नष्ट कर चुके है, वे आपका निरन्तर चिंतन करते रहते है!
माया के गुणों में भूला हुआ मैं आपका चिन्तन करू?
प्रशान्तमायागुणकर्मलिङ्ग
मनामरूपं सदसद्विमुक्तं |
ज्ञानोपदेशाय गृहीतदेहं
नमामहे त्वां पुरूषं पुराणम् ||
माया, उसके गुण और गुणोंके कारण होने वाले कर्म तथा कर्मोंके संस्कार से बना हुआ यह लिङ्गशरीर आप में है ही नही! न तो आप का नाम है न रूप! आप में कार्य है न कारण! आप सनातन आत्मा है! ज्ञान के उपदेश हेतु आपने यह शरीर धारण किया हुआ है! हे पुराण पुरूष हम आपको प्रणाम करते है
त्वन्मायारचिते लोके वस्तुबुद्ध्या गृहादिषु |
भ्रमन्ति कामलोभेर्ष्यामोहविभ्रान्तचेतसः ||
प्रभो! यह आपकी मायाकी करामात है, जिसे सत्य समझ कर काम, लोभ, ईर्ष्या और मोह से लोगोंका चित्त शरीर तथा घर आदिमें भटकने लगता है.
लोग इसी चक्कर में फस जाते है
अद्यः नः सर्वभूतात्मन् कामकर्मेन्द्रियाशयः |
मोहपाशो दृढश्छिन्नो भगवंस्तव दर्शनात् ||
समस्त प्राणियोंके आत्मरूप प्रभो! आज आपके दर्शन से मेरे मोह की वह दृढ फांसी कट गयी जो कामना कर्म और इन्द्रियोंको जीवनदान देती है!
शुकदेवजी कहते है! परीक्षित जब अंशुमानने भगवान कपिल मुनीके प्रभाव का इस प्रकार गान किया तब उन्होने मन ही मन अंशुमानपर बडा अनुग्रह किया! और कहा...
अश्वोऽयं नीयतां वत्स पितामहपशुस्तव |
इमे च पितरो दग्धा गङ्गाम्भोऽर्हन्ति नेतरत् ||
पुत्र! यह घोडा तुम्हारे पितामह का यज्ञ पशु है! इसे तुम ले जाओं! तुम्हारे जले हुए सभी चाचाओंका उद्धार केवल गङ्गाजलसे होगा और कोई उपाय नही है!
अंशुमानने बडी नम्रतासे उन्हे प्रणाम किया, प्रदक्षिणा की और घोडे को अयोध्या वापस ले आएं!
महाराज सगरने अश्वमेध यज्ञ की पूर्ती की!
तब राजा सगर राज्य का भार अंशुमान को सौंपकर महर्षी और्व के बतलाए हुएं मार्गका अनुसरण कर परमपद को प्राप्त हुएं!
परीक्षित! अंशुमानने गंगाजीको लाने की कामना से बहोत वर्षो तक तपस्या की किंतु सफलता प्राप्त न हुई!
अंशुमानके पुत्र दिलीप हुएं उन्होने भी दीर्घ काल तपस्या की वे भी असफल हुए और उनकी भी मृत्यु हुई!
दिलीप के पुत्र हुएं महाराज भगीरथ!
आगे से भगीरथ जी का चरित्र आता है
क्रमशः
ॐ नमश्चण्डिकायै
हर हर गङ्गे
लेखन व प्रस्तुती
निरंजन मनमाडकर पुणे महाराष्ट्र
दिनांक २८/०५/२०२०