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गंगा दशहरा :- (निरंजन मनमाडकर )

गंगा दशहरा :-    (निरंजन मनमाडकर )
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भाग-२

महादेव कहते है

श्रृणु वत्स प्रवक्ष्यामि द्विधा भूत्वा स्वयं सती |

यथाऽभवन्मेनकाया गर्भे हिमवतः सुता ||

हे वत्स! मै वह कथा सुना रहा हूँ, जिस प्रकार सतीने दो रूप धारण कर मेनका के गर्भ से हिमवान् के घर में पुत्रीरूपमें जन्म लिया!

तत्रादौ समभूद्गङ्गा निजांशेन सितप्रभा |

स्थातु शिरसि शम्भोः सा भूत्वा द्रवमयी मुने ||

हे मुने! पहले वे अपने अंश से धवल कान्तियुक्त गङ्गा के रूपमें प्रकट हुई! भगवान शिव के सिर पर स्थान पाने केलिए उन्होने जलरूप धारण किया!

तत्पश्चात वे पूर्णावतार धारण कर गौरी के रूप में प्रकट हुई जो उनकी अर्धांगिनी बनी!

भगवान कहते है! नारद सुनो! वे प्रकृति गङ्गारूप में कैसे प्रकट हुई, उस प्रकरण को सुनो! जिसका श्रवण कर मनुष्य ब्रह्महत्यादि पापसे मुक्त हो जाता है!

तत्राभूत्सा यथा गङ्गा तच्छृणुष्व महामते |

यच्छृत्वा मुच्यते पापी ब्रह्महापि नरः क्षणात् ||

भोलेनाथ आगे कहते है

सुमेरूतनया मेना गिरिराजस्य गेहिनी |

तां जन्मनि सुता प्राप निजांशेन माहेश्वरी ||

सुमेरू पर्वत की पुत्री एवं हिमालय की पत्नी मेना! जिनके गर्भसे जगदम्बा ने कन्या रूप में अवतार लिया!

सती माता गङ्गा के रूपमें मेना के गर्भ में आयी और गिरीश्रेष्ठ हिमवान् की पत्नी ने एक सुमुखी सर्वाङ्गसुन्दरी कन्या को जन्म दिया!

वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को मध्यान्ह काल में गौरवर्णा सुचारू मुखपङ्कजा गङ्गाजी का प्राकट्य हुआ!

वैशाखे मासि शुक्लायां तृतीयायां दिनार्धके |

वे कृष्णकटाक्ष याने की शामलवर्ण के त्रिनेत्रों वाली थी तथा चतुर्भुजा थी!

कन्यां के जन्म की बात सुनकर पर्वतराज हिमालय बडे प्रसन्न हुएं! उन्होने ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन करवाया, प्रचुर दान-दक्षिणा प्रदान की!

शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह एवं वर्षाकाल के नदी की तरह वह कन्या पिता के घर में बडी होने लगी!

एकसमय की बात है एक दिन पर्वतराज हिमालय जब उस कन्या कों गोदमें लेकर अन्तःपुरमें बैठे थे, उसी समय साक्षात् भगवती के अंश से गङ्गा को उत्पन्न हुआ जानकर ब्रह्माजी के पुत्र देवर्षी नारद उनके दर्शन हेतु पधारे!

गिरिराजने देवर्षी नारद जी को आया जानकर उनके चरणोंमें वन्दना की पाद्य आचमनादिसे उनका सत्कार किया.

हिमालय ने कहा! बडे भाग्यसे आपके दर्शन प्राप्त होते है! ब्रह्मन्! कहिए क्या आज्ञा है आपका कैसे आना हुआ?

नारदजी कहते है! मैने लोगोंसे सुना है कि आपके घर में एक परमसुन्दरी कन्या का जन्म हुआ है! मै उन्हे देखने आया हूँ!

हिमालय कहते है! मेरा परमसौभाग्य की देवोंकोंभी जिनके दर्शन दुर्लभ है ऐसे आप स्वयं मेरी इस कन्या को देखने पधारे है!

नारदजी कहते है!

आप धन्य है कृतकृत्य है! और परमसौभाग्यशाली भी है, जो ऐसी देवदुर्लभ कन्या आपको प्राप्त हुई!

गिरीराज हिमालयसे ऐसा कहकर मुनिवर नारदजी ने उत्सुकतापूर्वक उस कन्या को अपनी गोद में ले लिया!

मुनिवरने त्रैलोक्यपावनी उन गङ्गाको गोद में लेकर रोमाञ्चित हुए और मै धन्य हुआ ऐसा कहा!

तब हर्षपूर्वक मुस्कुरातेहुएं हिमवान् से पूछा.... क्या आप अपनी पुत्री को यथार्थ रूप से जानते है भी या नही?

हिमालय बोले.... मुनिवर मैं तो केवल इतना ही जानता हूँ कि शुभलक्षणा यह बालिका मेरी पुत्री ही है! इसके अतिरिक्त मुझे कुछ भी ज्ञात नही है!

नारद उवाच

या मूलप्रकृतिः सूक्ष्मा दक्षकन्याभवत्पुरा |

नाम्ना सती सैव देवी निजांशेन महामते ||

कन्या तवेयं सम्भूता प्रतिलब्धुं हरं पतिम् ||

हे महामते! जो सूक्ष्मामूल प्रकृती है उन्होने दक्षप्रजापतीकी कन्या रूप में अवतार लिया था. वे भगवती सती अपने अंशरूपसे भगवान् शिवको पतिरूपमें पुनः प्राप्त करने हेतू आपकी कन्या बनकर आयी है!

गङ्गेति क्रियते नाम सर्वपातकनाशनम् |

लोकानां त्राणकर्त्रीयं महापातक नाशिनी |

इनका नाम गङ्गा रखा जाता है जो सभी पापोंका नाश करने वाला है!

ये सभी प्राणियोंका परित्राण करनेवाली तथा पापविमोचिनी है!

गिरीराज! इनका विवाह स्वर्ग में होगा!

भगवान शिव ही इनके पती होंगे - यह पहलेसे ही तय है.

इन्हे ले जाने केलिए लोकपितामह ब्रह्माजी स्वयं आपके पास आकर यत्नपूर्वक प्रार्थना करेंगे - तब आपको यह रूपवती कन्या प्रदान करनी चाहिए, जिसे लेकर वे स्वर्ग चले जाएंगे और वहाँ भगवान् शिव को सादर आमन्त्रित कर तुम्हारी इस कन्या का कन्यादान शिव को करेंगे!

हिमालय बोले! मुनिवर! आप तो भूत भविष्य और वर्तमान सभी कों जानते है! अपनी ज्ञानदृष्टिसे सबकुछ प्रत्यक्ष देख लेते है! अतः जो विधी का विधान है वही होगा!

तत्पश्चात नारदजी वहाँसे ब्रह्मलोक चले गये, जहा पितामह ब्रह्माजी विराजमान थें. उन्हे प्रणाम कर नारदजी कहते है......हे प्रभो सतीने अंश रूपसे परमसुन्दरी गङ्गा के रूप में जन्म लिया है.!

ब्रह्माजी बोले! यह सत्य है! मुझे भी ज्ञात है की हिमालय के घर में त्रैलोक्यपावनी गङ्गा के रूपमें अपने अंशावतार से भगवती प्रकट हुई है और वे महेशको पुनः पती रूपमें प्राप्त करेंगी! भगवान भी उन्हे पुनः प्राप्त कर बहोत आनंदित होंगे!

किंतु वे आशुतोष भूतभावन भगवान् शिव सतीके शरीर को सिरपर लेकर ताण्डव कर रहें थे, तब उनके सिरपर स्थित सतीके शरीर को जगत् कल्याणहेतु मेरी सम्मतिसे स्वयं भगवान हरी ने ५१ टुकडोंमें विभाजित किया..... इस अपराध के कारण भगवान भोलेनाथ हमसे अभीतक रूष्ट है! इस विषय में अब हमें क्या करना चाहिए? कि जिसे वे आशुतोष शीघ्र प्रसन्न हो जाएं!

ब्रह्माजी के ऐसे कहनेपर नारदजी कहते है...... हे ब्रह्मन्! ऐश्वर्यवान गिरीराज हिमालय धर्मज्ञ एवं उदार भी है.! इन्द्रादि देवगणों के साथ आप उनके पास जाकर गङ्गा को माँग लें! आपके अनुरोध से वे अवश्य भगवती गङ्गा को आपको प्रदान कर देंगे तत्पश्चात आप उन्हे स्वर्ग में लाकर बडे उत्सव का आयोजन कर भगवान शिव को प्रदान करें... जैसे सतीका शरीर उनके सिर पर था वैसे ही जलरूपिणी उनके सिरपर सुशोभित हो जाएगी.... इससे प्रभु शिवशंकर भी प्रसन्न हो जाएंगे!

तत्पश्चात ब्रह्माजी की आज्ञा पाकर देवर्षी देवलोक में गये वहाँपर इन्द्रादि देवताओंको समुची बात कही और देवताओं सहित वे पुनः ब्रह्मलोक आए!

ब्रह्माजी एवं समस्त देवगण पर्वतराज हिमालय के यहा जाने केलिए सिद्ध हुएं!

ठीक उसी समय त्रैलोक्यपावनी जगत् जननी गङ्गाजी ने हिमालय को स्वप्न में दर्शन दिए.

रात्रिके अन्तिम प्रहरमें गिरीराज को

शुक्ला त्रिनयना काचिद्देवी मकरवाहना

स्वप्न में श्वेतवर्णा त्रिनयना मकरवाहना एक देवी स्वप्न में दिखाई दीं.

वे सामने आकर बोली.... पिताजी! मैं आपकी पुत्री हूँ!

उवाच प्रमुखे स्थित्वा पितुस्ते तनया ह्यहम् |

आद्या प्रकृतिरेकैव साहं दक्ष प्रजापतेः ||

एकमात्र आद्या प्रकृती हूँ! मैं वही हूँ जिसका दक्षप्रजापतीकी पुत्री सतीरूपसे पिताकेंं यज्ञमें शरीर त्यागकर अपने पती शिवसे वियोग होगया था! शिवभी मेरे वियोग से कामरूप क्षेत्रमे तप कर रहे है!

आपकी तपस्या के कारण मै आपकी पुत्री बनी हूँ! मुझे ले जाने केलिए ब्रह्मादि देवगण आपके पास आएंगे! अतः आपको चाहिए की आप मुझे उन्हें सौंप दे! वे देवगण उत्सवपूर्वक मुझे भगवान शिव को अर्पण कर देंगे!

हे तात आप मोहासक्त बनकर कभी शोक न करें! ऐसा कहकर भगवती अन्तर्धान होगयी... और हिमवान् की निद्रा खुल गई.

तत्पश्चात देवगणों के साथ ब्रह्माजी हिममहल में पधारे. सभी देवताओं का स्वागतकर हिमालय ने पूछा! हे ब्रह्मन् तथा सभी देवणग आप को प्रणाम है आप किस हेतू पधारे है!

तभी सब देवगणोंसहित ब्रह्माजीने गङ्गाजी को स्वर्ग ले जाने हेतू माँग की...

तब रात्रिकाल के स्वप्न का चिंतन करते हुए एवं नारदजी की भविष्यवाणीको याद करते हुएं कहा... कन्या अपने पिता के घर में सदैव नही रहती फिर भी गङ्गा के जाने का मुझे असहनीय दुःख होगा! और वे रोने लगे.. तब भगवती स्वयं कहती है की पिताजी आप दुःख न करे.. आप मुझे ब्रह्माजी को सौंप दे! मै आपसे कभीभी दूर नही हूँ और न आप मुझसे दूर है.. आप सदैव मुझे निकट पाएंगे..

अपने पिता को ऐसा कहकर गिरीसुता गङ्गा भूतपति सदाशिव को पतिरूपमें पाने हेतू ब्रह्माजी के पास चली गयी!

हे महामुने! तब ब्रह्माजीने उन्हे अपने कमण्डलु में लेकर शीघ्र स्वर्गलोक में आएं!

ब्रह्माजी के कमण्डलु में आने के कारण उनका नाम ब्रह्मकमण्डलुकृतालया पडा

तत्पश्चात्

अथा मेना समागत्य गिरीन्द्रस्यान्तिकं तदा |

अदृष्ट्वा तनयां वाचमुवाच गिरीपुङ्गवम् ||

जब महारानी मेना गिरीराज के पास आयी तब अपनी पुत्रीकों वहाँ न पाकर हिमालय से कहने लगी

क्व गता में सुता राजन् गङ्गा प्राणसमा प्रभो |

संस्थिता तु तवाङ्के सा केन नीता वद प्रभो ||

राजन्! मेरी प्राणप्रिय पुत्री गङ्गा कहाँ गयी? वह तो आपकी गोद में बैठी थी उसे कौन ले गया? हे प्रभो आप मुझे बताईए.

तब हिमालय ने अश्रूपूरीत नेत्रोंसे ब्रह्माजीकी याचना तथा गङ्गाका स्वर्गारोहण का वृत्तांत कथन किया!

ऐसा सुनकर पुत्रीकें वियोग से महारानी रोने लगी. ज्ञानियों में श्रेष्ठ पर्वतराज हिमालय ने उन्हे सान्त्वना दी और वह सारी बात बताई जो स्वयं गङ्गा ने कही थी.

ततः स्वतनया रोषाच्छशाप गिरिगेहिनी |

असम्भाष्य गतां स्वर्गं गङ्गां प्राणसमामपि ||

अपनी माँ से बिना बात किए ही स्वर्ग चले जाने के कारण गिरीराज पत्नी मेना ने कुछ इस प्रकार शाप दिया...

मातरं मामसम्भाष्य गतायस्मात्रिविष्टपम् |

ततो द्रवमयी भूत्वा पुनरेहि धरातलम् ||

मुझ मातासे बात किए बिना तुम स्वर्ग चली गयी, इसलिए तुम्हे जलरूप में पुनः पृथ्वीपर आना होगा.

इसप्रकार महारानी मेनाने गङ्गा को शाप दिया!

इधर स्वर्गलोक में गङ्गाजी को पाकर देवगण अत्यंत उल्लासित हुएं तथा विवाह सम्बन्धी सभी माङ्गलिक क्रिया करने लगे. तद्नंतर प्रसन्न मन ब्रह्माजी ने नारदजी को आशुतोष भगवान महादेव को लाने कामरूप क्षेत्र में भेजा!

नारदजी कामरूप पीठ पर आएं साधना में रत भगवान शिव को प्रणाम करके निवेदन किया और अपनी प्राणप्रिया सती को पुनः प्राप्त करने हेतू स्वर्ग आने की विनती की!

भगवान महादेव स्वर्ग पधारे वहापर बडे ही मंगलमय वातावरण में गङ्गा जी के साथ उनका विवाह सम्पन्न हुआ!

अध्याय के अन्तमें वक्ता शिव कहते है

जो जगदम्बा ब्रह्मा के कमण्डलु में रही थी वे शिव को पुनः प्राप्त करने के बाद जलरूपमें अवतीर्ण होकर जलरूपमें मायापूर याने हरीद्वार आयी, स्वर्ग से आकर सगरपुत्रों का उद्धार किया और अंत में सागर को मिलकर पाताललोक में प्राणियोंका उद्धार किया.... क्रमशः

ॐ नमश्चण्डिकायै

हर हर गङ्गे

ॐ श्री मात्रे नमः ॐ श्री गुरूभ्यो नमः

लेखन व प्रस्तुती

निरंजन मनमाडकर पुणे महाराष्ट्र

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