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लेख

गंगा दशहरा :- निरंजन मनमाडकर

गंगा दशहरा :- निरंजन मनमाडकर
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(भाग-१)

प्रास्ताविक :-

प्राचीन कालसे, वैदिक काल से हम नदीयोंको देवता मानते है! ऋग्वेद संहिता के तिसरे, सातवे तथा दशम मंडल में नदीयों कें सूक्त प्राप्त होते है. विभिन्न प्रकारकें छंदों में नदीदेवी की स्तुती कि गयी है!

याः प्र॒वतो॑ नि॒वत॑ उ॒द्वत॑ उद॒न्वती॑रनुद॒काश्च॒ याः ।

ता अ॒स्मभ्यं॒ पय॑सा॒ पिन्व॑मानाः शि॒वा दे॒वीर॑शिप॒दा भ॑वन्तु॒

सर्वा॑ न॒द्यो अशिमि॒दा भ॑वन्तु ॥ ७/५०/४ ॥ आदि.

हमारे देश में नदीयों में सबसे महत्त्वपूर्ण तथा गरिमामय स्थान गंगाजी को प्राप्त है! सभी पुराणों में महाभारत तथा रामायण में इनकी महिमा बताई गयी है.

गीता में भगवान स्वयं कहते है की

स्रोतसास्मि जाह्नवी

मै नदीयों में गङ्गा हूँ! गंगाजी को विष्णुपादाब्जसम्भूता, शिवपत्नी, त्रिपथगामिनी आदि उपाधियोंसे संबोधित किया गया है.

वैसे देखा जाए तो जल ही स्त्री तत्व कहा है! आपःस्त्रीभूम्नि.... अमरकोश! तो जल रूपिणी देवताओंको शक्तिस्वरूपा तथा प्रकृतीस्वरूपा जाना जाता है! वे अपने जल से फसल को पानी प्रदान कर अपने पुत्रों का पोषण करती है! क्षुधा एवं तृषा दोनों का शमन करती है. ऐसी मातृस्वरूप नदीयों की पौराण महत्ता मन्तव्य है! हम सभी कों भगवती गङ्गा के अवतरण की कथा ज्ञात है इसी दशहरेंमे वे भूतलपर पधारी थी! किंतु शाक्त ग्रंथोंकें अनुसार गङ्गाजी का प्राकट्य सृष्टी के आदिकाल में आद्याप्रकृतीके अंशसे हुआ था तथा वे स्वर्गलोक में ही निवास करती थी! माँ भगवती की इन समस्त लिलाओंका वर्णन देवी भागवत महापुराणम्, ब्रह्मवैवर्त पुराणम्, महाभागवतम् देवीपुराण में आता है! अतः इस पर्व पर हम शाक्तसम्प्रदायिन महाभागवत पुराण देवीपुराण के अनुसार भगवती गङ्गाजी का चरित्र चिंतन करेंगे!

महाभागवत पुराणम्

महाभागवत पुराण की कथा देवर्षी नारद एवं हरिहर का संवाद है! यहा भगवान शिव एवं विष्णुजी भगवती की कथा नारदजी को सुनाते है! यह उपपुराण ८१ अध्यायोंमें वर्णित है. पहले दो अध्यायोंमें ग्रंथ रचना तथा पार्श्वभूमी कही है. मूल कथा का आरंभ तो तिसरे अध्याय से ही होता है! तिसरे अध्याय शुरूआत में महादेव कहते है......

या मूलप्रकृतिः शुद्धा जगदम्बा सनातनी |

सैव साक्षात्परं ब्रह्म सास्माकं देवतापि च |

जो शुद्ध शाश्वत और मूलप्रकृति स्वरूपिणी जगदम्बा है वे ही साक्षात् परं ब्रह्म है और वे हमारी उपास्य देवता है!

अयमेको यथा ब्रह्मा तथा चायं जनार्दनः |

तथा महेश्वरश्चाहं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणः ||

एवं हि कोटिकीटानां नानाब्रह्माण्डवासिनाम् |

सृष्टिस्थितीविनाशानां विधात्री सा महेश्वरी ||

जिस प्रकार ये ब्रह्मा, ये विष्णु और स्वयं मैं शिव इस जगत् की उत्पत्ति, पालन और संहार कार्य में नियुक्त है, ठीक उसी प्रकार अनेक ब्रह्माण्डोमें निवास करने वाले करोडों प्राणिओंके सृजन पालन तथा संहार का विधान करने वाली वे महेश्वरी ही है!

अरूपा सा महादेवी लीलया देह धारिणी |

तयैतत्सृज्यते विश्वं तयैव परिपाल्यते ||

विनाश्यते तयैवान्ते मोह्यते च तया जगत् |

निराकार रहते हुए भी वे महादेवी अपनी लीलासे देह धारण करती है, उन्हीके द्वारा इस विश्व का सृजन किया जाता है, पालन किया जाता है तथा अन्तमें संहार किया जाता है उन्ही के द्वारा यह जगत् मोहग्रस्त होता है!

इसके बाद भगवान महादेव सृष्टी निर्माण का कथन करते है यह इस पुराण का सर्ग कहा गया है!

आसीज्जगदिदं पूर्वमनर्कशशितारकम् |

अहोरात्रादिरहितमनग्निकमदिङ्मुखम् ||

शब्दस्पर्शादिरहितमन्यत्तेजोविवर्जितम् |

तत्तद्ब्रह्मेति यच्छृत्या सदेकं प्रतिपद्यते ||

स्थिताप्रकृतिरेका सा सच्चिदानन्दविग्रहा |

शुद्धज्ञानमयी नित्या वाचातीता सुनिष्कला ||

दुर्गम्या योगिभिः सर्वव्यापिनी निरूपद्रवा |

नित्यज्ञानमयी सूक्ष्मा गुरूत्वादिभिरूज्झिता ||

पूर्व कालमें यह जगत् सूर्य, चन्द्रमा, तारों, दिन-रात, अग्नि, दिशा, शब्द, स्पर्श आदिसे तथा अन्य किसी प्रकार के तेज से रहित था!

उस समय श्रुतियों के द्वारा जिनका प्रतिपादन किया जाता है, ब्रह्मस्वरूपिणी भगवती ही विद्यमान थी!

सच्चिदानन्दविग्रहा वे भगवती शुद्ध ज्ञान से युक्त तथा नित्य एवं जहांपर वाणी वर्णन नही कर सकती, निरवयव, योगियोंके द्वारा कठिणतासे प्राप्त होने वाली, उपद्रवोंसे रहित नित्यान्दस्वरूपिणि तथा सूक्ष्म, गुरूत्व आदि गुणोंसे परे है!

उन भगवती की सृष्टी निर्माण करने की इच्छा हुई तो अरूपा होते हुए भी उन्होने एक रूप धारण किया! अपनी ईच्छा से रजस् सत्व एवं तमोगुण से एक चैतन्य रहित पुरूष की उत्पत्ती की. तीनों गुणों के प्रभाव से वे शक्तिमान पुत्र ब्रह्मा विष्णु एवं शिव तीन पुरूषों के रूप में प्रकट हुए.

इसपर भी सृष्टी नही हुई अतः भगवती ने उस पुरूष को जीवात्मा व परमात्मा इन दो रूपों में विभाजित किया. इसके बाद वे प्रकृति अपनी इच्छा से स्वयं अपने को भी तीन भागोंमे विभक्त कर १)माया २) विद्या और

३) परमा इन तीन रूपों में प्रकट हो गयी!

प्राणियोंको मोहित करने वाली जो शक्ति है वही माया है और जगत् का संचालन करने वाली तथा प्राणियोंमे स्पन्दन आदिका संचार करने वाली शक्ति है वही परमा है! वही परमा शक्ति तत्वज्ञानमयी एवं संसार से मुक्ति दिलाने वाली है.....

इसके पश्चात का श्लोक मन्तव्य है

सा तृतीया पराविद्या पञ्चधा याभवत्स्वयम् |

गङ्गा दुर्गा च सावित्री लक्ष्मीश्चैव सरस्वती ||

तिसरी जो परा विद्या है, वह स्वयं गङ्गा, दुर्गा, सावित्री, लक्ष्मी, और सरस्वती इन पाँच रूपोंमें विभक्त हो गयी!

यही पर सर्व प्रथम गंगाजी को प्रकृती का स्वरूप कहा गया है तथा आगे इसी अध्याय में

पूर्णैव गिरिशं प्राप स्वर्गे गङ्गास्वरूपिणी

उत्तमाप्रकृति जो गङ्गा रूपमें स्वर्ग में स्थित है वह भगवान शिव को पूर्णा के रूप में प्राप्त हुई! और आगे ब्रह्माजी का सृष्टि विस्तार कहा गया है! और माँ सती के अवतारकी कथा आती है!

यहा हिमवान की पत्नी मेना की अष्टमी व्रत की कथा आती है! रानी मेना यथोचित समयपर भगवती की उपासना मे रत वे माँ सती से पुत्री रूप में पानें की ईच्छा प्रकट करती थी!

हर मास की शुक्ल अष्टमी को उपवास, पूजा जप आदि करके महादेवी को संतुष्ट करती! उन पर्वतराज की पत्नी की भक्तिसे महादेवी प्रसन्न हुई और महाअष्टमी के दिन वर प्रदान किया

अङ्गिचक्रे भविष्यामि सुता तव न संशयः!

मैं आपकी पुत्री के रूप में अवतरीत होऊंगी इसमे संशय नही!

इसके बाद सती माता के दक्षयज्ञके प्रवेश की कथा आती है! माँ के शरीर से एक्यावन शक्तिपीठों का संदर्भ देते हुए कामरूप कामाख्या शक्तिपीठ में त्रिदेव भगवती के पुनः अवतरण हेतु तपस्या करने की कथा आयी है! तिनों देवों के तपस्या से सन्तुष्ट हो कर आद्याशक्ती माँ जगदम्बा प्रसन्न होती है और दर्शन देकर अपने अभीष्ट माँगने को कहती है! तब शिव कहते है

यथा हि कृपया पूर्वं स्थिता मद्गेहिनी स्वयम् |

तथैव हि पुनश्चापि भव त्वं कृपयेश्वरी ||

जिस प्रकार आप पहले मेरी गृहिणी बन कर रहती थी वैसे ही कृपापूर्वक पुनः रहे!

श्रीदेव्युवाच

अतस्त्वहमचिरेणैव हिमालयसुता स्वयम् |

द्विधा भूत्वा भविष्यामि सत्यमेव महेश्वर ||

हे महेश्वर! शीघ्र ही मैं हिमालयकी पुत्री बनकर स्वयं अवतार लूँगी और निश्चय ही दो रूपों में प्रकट हूँगी!

यतस्तां शिरसा हर्षात्कृत्वा मन्नृत्यतत्परः |

अहं तेनांशतो भूत्वा गङ्गा जलमयी स्वयम् ||

त्वामेव पतिमापन्ना भविष्ये तव मूर्धनि |

चूँकी आपने सतीके शरीरको सिरपर उठाकर हर्षपूर्वक नृत्य किया था, अतः मैं उन सतीकें अंशसे जलमयी गङ्गा का रूप धारण कर आपको पतिरूप में प्राप्त करूंगी आपके सिर पर विराजमान रहूँगी!

ज्येष्ठा गङ्गा भवेद्देवी कनिष्ठा पार्वती शुभा |

और इसके पश्चात तेरहवे अध्याय में गङ्गाजी के जन्म की कथा तथा विवाह की कथा आती है उसे हम अगले लेखांक में देखेंगे

ॐ नमश्चण्डिकायै

ॐ श्री गङ्गादेव्यै नमः

ॐ श्री मात्रे नमः ॐ श्री गुरूभ्यो नमः

हर हर गङ्गे

लेखन व प्रस्तुती

©️निरंजन मनमाडकर पुणे महाराष्ट्र

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