"ज्ञान-वैराग्य सिद्ध्यर्थ, भिक्षां देहि च पार्वती"

रत्नाकर...
सप्तर्षि आरती होगी या नहीं होगी; उसमें कौन लोग होंगें, कौन नहीं होंगे, ये तो बाबा तय करते; थोड़ा इंतज़ार कर लेते, इतनी क्या व्याकुलता कि धर्मसंहारकों, मंदिर विध्वन्सकों के आगे दंडवत हो पड़े? मां अन्नपूर्णा की नगरी में भूखे थोड़ी मरते? जो स्टेट तुम्हें अर्चक बनाते हैं, वही तुम्हारे जीवनयापन का इंतजाम करते, वो न करते, तो बाबा करते; भरोसा तो रखा होता।
काशी में सबके अन्न-जल की चिंता तो बाबा विश्वनाथ और मां अन्नपूर्णा करती ही हैं, अगर कोई भूखा सोया तो उसका दोष, उसका पाप इनके माथे लगेगा। इसलिए आस्थावान लोग काशी में बाबा की स्तुति गाते हैं और मां से "ज्ञान-वैराग्य" की भिक्षा मांगते हैं, अन्न-जल की नहीं; तुमने काशी की भिक्षा-परम्परा भी तोड़ी। तुम ये नही समझ पाये कि इतने सालों से जिसकी सेवा करते हो, वो बाबा तुम्हें और तुम्हारे परिवार को भूखा रख कर अपने माथे पाप थोड़ी लेते।
काशी में हैं या फिर काशी के हैं, तो बाबा विश्वनाथ में आस्था रखिये। उनके न्याय में विश्वास रखिये; धर्म-अधर्म, नीति-अनीति, स्नेह-अत्याचार; तीन नेत्रों के स्वामी से कुछ भी छूटता नहीं हैं। जो जैसा करता है, वैसा पाता है; दंड और फल दोनों मिलता है, लेकिन समय आने पर। बाबा की साधना का दावा और नश्वर प्राणी से इतना भय कि उसके सामने घुटने तक दिये?
बाबा ने तुम्हें आस्था की कसौटी पर कसा और तुम खरे नहीं उतरे; और फिर इतना गिर कर तुम्हें मिला भी क्या; एक पत्र जिसमें लिखा है कि सभी स्टेटों द्वारा नया अर्चक नियुक्त होने तक पुरानी व्यवस्था कायम रहेगी; यानी कि जल्द ही नये अर्चक आ जायेंगे और तुम्हारी इतिश्री हो जाएगी; धर्म भी गया, इज्जत भी गयी।ब्राह्मण की पूंजी उसकी साधना, उसका स्वाभिमान, और उसका तपोबल होता है, उससे कैसा समझौता? लेकिन तुम इत्ती सि बात नहीं समझ पाये। वस्तुतः अब इतना तो तय है कि आने वाले समय में तुम न स्टेट के रहोगे, न बाबा दरबार के, आतताइयों से माफी का कलंक अलग से लगा, जो अश्वत्थामा के सर के घाव की तरह कभी भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेगा।
जिस रावण के वंशज होने का तुम पर आक्षेप लग रहा है, उस रावण ने तो महादेव को अपना सर काट का अर्पित करते समय ये भी न सोंचा था कि शिव दूसरा सर देंगें कि नहीं, बस अर्पण का मन हुआ और काट कर अर्पित कर दिया; और तुम्हें सप्तर्षि पूजा मात्र से निकाले जाने का इतना डर कि माफ़ी मांग बैठे? रावण ने तो राम जी से यह जानते हुए भी अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी कि रामेश्वरम में पुरोहित बन कर वह उन्हें 'विजयी भव' का आशीर्वाद दे आया है।
इतिहास तुम्हें क्षमा नहीं करेगा, अगर कोई स्नेही है तो उससे लड़ाई कैसी, और अगर कोई आतताई है तो उससे क्षमा-याचना कैसी? तुम सप्तर्षि आरती परंपरा की दुहाई दे रहे हो, लेकिन तुमने तो वो परंपरा तोड़ी है जो प्राण जाए पर धर्म न जाये को परिभाषित करती है; वही परम्परा जिसमें औरंगजेब के हाथों महादेव के प्रतीक का अनादर न हो, इसलिये पुजारी जी शिवलिंग लेकर कुएं में कूद गये।
आज तुमने अपने को उन लोगों की परंपरा में शामिल कर लिया जिन्होंने जरा से कष्ट में पाला बदल लिया, औरंगजेब से माफ़ी मांगी और इस्लाम स्वीकार कर लिया; उसी औरंगजेब से, जिसने विश्वनाथ मंदिर का तब विध्वंस किया था। अंतर बस इतना है कि तब के पुजारी ने उस औरंगजेब के आगे झुकने से बेहतर मर जाना समझा और तुमने आज के औरंगजेबों से लड़ने के बजाय झुक जाना बेहतर समझा।