पैदल अपने घर जा रहे मजदूरों को भोजन उपलब्ध कराना सरकार की ज़िम्मेदारी : प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बिना किसी पूर्व तैयारी के जो लॉक डाउन लागू किया गया, उसका साइड इफेक्ट दिखाई पड़ने लगा है । लॉक डाउन के कारण पूरी तरह से बंद काम धंधे की वजह से विभिन्न कल-कारखानों में काम करने वाले प्रवासी मजदूर बेकार हो गए। रोज कमाने और रोज खरीद कर खाने की आदतों की वजह से लॉक डाउन लागू होने के दूसरे ही दिन से उनके सामने भूखे मरने की नौबत आ गई। प्रवासी मजदूरों की संख्या लाखों में होने के कारण प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों द्वारा जो भी प्रबंध किए गए, वे नाकाफी सिद्ध हुए । फिर भी प्रधानमंत्री के निर्देश का पालन करते हुए उन्होने प्रथम चरण के लॉक डाउन के दौरान किसी तरह से गुजर बसर किया। लेकिन जैसे ही दूसरे चरण के लॉक डाउन की घोषणा प्रधानमंत्री द्वारा की गई, उनका धैर्य जवाब देने लगा। उन्हें अपने घर की याद आने लगी। निकट भविष्य में कल कारखाने के न शुरू होने की संभावना को देखते हुए मजदूरों ने अपने-अपने गाँव लौटना मुनासिब समझा । हालांकि प्रधानमंत्री ने लोगों को विश्वास दिलाया कि किसी को भूखे नहीं सोने दिया जाएगा। लेकिन जमीनी हकीकत अलग होने के कारण अपने परिवार के लिए लोग अपने घरों के लिए पैदल, सायकिल, या जो भी सवारी उन्हें मिली, उससे निकल पड़ी । हालांकि पुलिस ने कड़ाई करने की कोशिश की। लेकिन भूख और प्यास से तड़फते और उनके पैरों के छले और उनकी हालत देख कर वह भी द्रवित हो गई। ऊपर से सख्ती का प्रदर्शन करने वाली पुलिस अंदर से द्रवित होती रही। अगर संभव हो सका, तो उनके खाने – पीने की व्यवस्था की, नहीं तो ढील देकर उन्हें आगे बढ्ने दिया। कहीं – कहीं झुंड को साधन की व्यवस्था के आश्वासन के साथ रोक दिया । लेकिन इसके भी अपने अधिकार सीमित होते हैं। उन्होने इसकी सूचना अधिकारियों को दी, लेकिन अभी तक उन्हें उनके घरो तक पहुंचाने का कोई इंतजाम नहीं हुआ । वहाँ पर भी न लोगों को भोजन मिल पा रहा है, और न ही साधन ।
कई झुंड ऐसे भी देखे गए कि लोग अपनी पुरानी सायकिलों से घरो के लिए रवाना हो चुके हैं। उनका भी हाल बहुत बुरा है। हाइवे पर चलते झुंड के झुंड सायकिल यात्रियों के लिए भी कहीं कोई व्यवस्था नहीं है । वे भी भूखे-प्यासे बिलबिला रहे हैं। यह भी देखने में आया कि मुंबई, पुणे, बंगलौर, चेन्नई और कोलकाता से अपने अपने घरों के लिए निकले मजदूरों ने या तो रास्ते में या घर पहुँचते – पहुँचते दम तोड़ दिया । कई मजदूरों ने सड़क दुर्घटनाओं की चपेट में आकर अपना दम तोड़ दिया ।
ऐसे कई मजदूरों से जब मैंने बात की, तो उन्होने बताया कि सरकार की ओर से उनके खाने – पीने का कोई इंतजाम नहीं किया गया है । जब वे ग्रामीण क्षेत्रों से निकलते हैं, तो वे उन्हें खाना पानी जरूर उपलब्ध कराते हैं। लेकिन उनके मन मे भी यह भय है, कि कहीं हम लोग कोरेना से संक्रमित तो नहीं है । इस कारण न तो वे हमें अपने गाँव में घुसने देते हैं, और न ही अपने घरों में आश्रय देते हैं। गाँव से कहीं बाहर किसी पेड़ या किसी खंडहर और स्कूल में हम सभी को रुका देते, वहीं पर हम लोगों के खाने पीने का इंतजाम करते । उन्होने यह भी बताया कि कहीं कहीं हाइवे पर भी शहरो के लोग खाने या पानी के पैकेट हम लोगों को उपलब्ध कराते हैं । खाने पीने की दूकाने न खुली होने के कारण अगर हम लोगों के पास कुछ पैसे भी हैं, तो हम लोग खा पी नहीं सकते हैं। ऐसे मजदूरों ने यह भी बताया कि गाँव के आस-पास की तो नहीं, लेकिन शहरों की पुलिस अधिक परेशान करती है । हम लोग इन पुलिस वालों से खाने के लिए भी मिन्नत करते रहे, लेकिन कहीं पर तो वे प्रबंध करा देते, और कहीं पर वे हमें गाली के साथ पिटाई करके भगा देते । आइये इन यात्रियों के कुछ प्रसंगों पर विचार कर लेते हैं ।
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले का इंसाफ अली मुंबई में हेल्पर का काकाम करता था। लॉकडाउन में काम बंद काम बंद होने की वजह से वह 13 अप्रैल को मुंबई से अपने घर के लिए निकला । 1500 किमी से अधिक दूरी तय करके जब वह अपने घर पहुंचा तो उसे क्वारंटाइन कर दिया गया, और उसी दिन दोपहर में उसकी मौत हो गई । जब उसकी बेगम से उसके बारे में बात की गई, तो उसने बताया कि वे मुंबई से गाँव तक आने के दौरान केवल बिस्कुट खाकर ही चलते रहे। इस कारण उनकी आँतें वगैरह सूख गई थी।
इसी प्रकार की दूसरी घटना जो कुछ समाचारपत्रो में छपी, वह इस प्रकार है - मध्य प्रदेश के सीधी के मोतीलाल साहू मुंबई में पेंटर का काम करता था । किसी तरह से उसने पहला लॉक डाउन तो पूरा किया। लेकिन जैसे ही दूसरे लॉक डाउन की घोषणा हुई,उसका धैर्य जवाब दे गया । वह 24 अप्रैल को मुंबई से पैदल ही अपने घर के लिए रवाना हो गया । उसके साथ 50 मजदूर और थे । उसके पास खाने को कुछ नहीं था। लगता है कि वह कई दिनों से भूखा हुआ था। अभी उसने 60 किलोमीटर की ही दूरी तय की थी, कि उसकी मौत हो गई । वह बहुत गरीब था। उसकी बीबी के अलावा उसके तीन बच्चे भी थे। उसके मौत की खबर सुन कर उनका रो-रोकर बुरा हाल है ।
तीसरी घटना नई दिल्ली की है । बिहार के बिहार के बेगूसराय के रहने वाले रामजी महतो भी लॉक डाउन लागू होने बाद पैदल ही अपने घर के लिए निकल पड़े । नई दिल्ली से उनके घर की दूरी 1100 किलोमीटर है । अभी उसने 850 किलोमीटर की दूरी ही तय की थी कि वाराणसी पहुँचते – पहुँचते वह गश खाकर गिर पड़ा। हालांकि स्थानीय लोगों ने तुरंत फोन करके एंबुलेंस बुलाया। लेकिन हॉस्पिटल पहुँचते- पहुँचते उसने भी दम तोड़ दिया ।
चौथी घटना भी नई दिल्ली से संबन्धित है । मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के रहने वाले रणवीर सिंह भी लॉक डाउन लागू होने के बाद अपने घर के लिए पैदल ही निकल पड़े। नई दिल्ली मे वे डिलिवरी ब्वाय का काम करते थे । दिल्ली से उनके घर की दूरी करीब 300 किलोमीटर थी। पैदल चल कर उन्होने करीब 200 किलोमीटर की दूरी भी तय कर ली । लेकिन खाने पीने को ठीक से न मिलने की वजह से आगरा पहुँचते – पहुँचते उसका भी दम जवाब दे गया । उसके घर वालों का कहना है कि उसकी मौत भूख की वजह से हुई। जबकि पोस्ट मार्टम में उसकी मौत का कारण हार्ट अटैक की वजह से बताई गई ।
अगली घटना गुजरात के वापी शहर की है। आसाम के रहने वाले जादव गोगोई लॉक डाउन के बाद अपने घर जाने के लिए निकले । 2800 किलोमीटर की दूरी तय करके वे अपने घर पहुँच गए। वे चार हजार रुपये लेकर गुजरात से निकले थे । रास्ते मे कहीं कहीं उन्होने ट्रक की लिफ्ट ले ली थी। उनके साथ कोई दुर्घटना नहीं हुई। लेकिन वे भी सूख कर काटा हो गए ।
इस लेख में जो विषय मैंने उठाया है, वह यह है कि जब केंद्र सरकार इन मजदूरों के लिए फ्री राशन वितरण करने के साथ तमाम सहूलियतें दे रहा है, तब क्या सरकार का यह कर्तव्य नहीं बनता कि वह अपने घरों के लिए पैदल या सायकिल जैसे किसी अन्य वाहन से निकले लोगों के लिए वह खाने- पीने का इंतजाम न करे। उनके निकलने के कारण एक ओर जहां लॉक डाउन के दौरान लागू सोशल डिस्टेन्सिंग का पालन नहीं हो पा रहा है। लोग भीड़ के रूप में जा रहे हैं। आज तो कुछ घटनाएँ ऐसी हुई, जिसमें पैदल जाते मजदूरों की पुलिस वालों से झड़प भी हुई । खाने –पीने की व्यवस्था न होने के कारण वे काफी आक्रोशित दिखे । जब देश लॉक डाउन की स्थिति से गुजर रहा हो, होटल और खाने-पीने की दूकाने बंद हों, उन्हें घर पहुंचाने के लिए सरकार ने जो कदम उठाया, एक तो वह देर से उठाया, जब लोगों ने अपना धैर्य खो दिया। दूसरी ओर कोई भी एक दिन भी रुकने को तैयार नहीं है। वे लोग ट्रेन का इंतजार नहीं करना चाहते । न ही बस का। बस किसी तरह अपने घर पहुँचना चाहते हैं, जब लोगों की ऐसी मानसिकता बन गई है। तो सरकार को अपनी नीतियों में थोड़ा सा बदलाव लाकर उनके खाने – पीने का इंतजाम करना चाहिए । नहीं तो सरकार के सारे किए कराये पर पानी फिर जाएगा । वैसे भी आपातकालीन स्थितियों में यह सरकार का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक नागरिक को भोजन उपलब्ध कराये ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट