थैलेसीमिया रोग की प्रकृति और उसका नेचरोपैथी उपचार – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

(विश्व थैलेसीमिया दिवस पर विशेष )
थैलेसीमिया रक्त से संबंधित एक ऐसी आनुवंशिक बीमारी है, जो हीमोग्लोबिन प्रोटीन के निर्माण को गंभीर रूप से प्रभावित करता है। हीमोग्लोबिन प्रोटीन लाल रक्त कोशिकाओं को ऑक्सीजन ले जाने में मदद करती है। इस बीमारी से ग्रसित रोगी के शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे हड्डियों में विकृति आ जाती है । थेलेसीमिया में रेड ब्लड सेल्स और हीमोग्लोबिन में कमी के कारण एनीमिया हो सकता है। सामान्य रूप से शरीर में लाल रक्त कणों की उम्र करीब 120 दिनों की होती है, परंतु इस रोग में उसकी उम्र सिमटकर मात्र 20 दिनों की हो जाती है। इससे हीमोग्लोबिन की मात्रा शरीर में कम होने लगती है और शरीर दुर्बल होने लगता है । परिणाम स्वरुप शरीर किसी न किसी रोग से ग्रसित रहता है और रोगी को बार बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है। रोगी हर समय कमजोरी और थकावट महसूस करता है। अगर यह रोग अपने चरम पर पहुँच गया तो हार्ट अटैक का कारण भी बन जाता है ।
सामान्यत: हीमोग्लोबिन की दो शृंखला होती है - अल्फा और बीटा । थैलेसीमिया के मरीज में अल्फा या बीटा हीमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। हीमोग्लोबिन अणु की कौन-सी शृंखला प्रभावित है, उसी के आधार पर इसका वर्गीकरण किया जाता है ।
सामान्यतौर पर इस बीमारी का इलाज रक्त चढ़ा कर किया जाता है। लेकिन इसमें सावधानी यह बरतना चाहिए कि जिसका रक्त चढ़ाया जा रहा है। उसे आयरन सपलीमेंट लेने से परहेज करना चाहिए । अन्यथा आयरन की मात्रा कम करने के लिए फिर उसे आयरन कीलेशन थेरेपी से नियंत्रित किया जाता है ।
थैलेसीमिया के रोगियों को इलाज की आवश्यकता नहीं होती है, यदि वे थैलेसीमिया के लक्षण वाले किसी अन्य व्यक्ति से शादी करते हैं, तो उनसे होने वाले बच्चे के थैलेसीमिया से पीड़ित होने का जोखिम होता है।
थैलेसीमिया दो प्रकार का होता है -
1. मेजर थैलेसीमिया : जब पति-पत्नी दोषपूर्ण जीनों के वाहक हों और जब वे संतान पैदा करते हैं, तो उनके चार में से एक बच्चे में उनके वाहक जीन आने की आशंका हो सकती है और वह बच्चा बीटा थैलेसीमिया मेजर से पीड़ित हो सकता है।
2. माइनर थैलेसीमिया : थैलेसीमिया माइनर तब होता है, जब मरीज माता-पिता में से केवल एक से दोषपूर्ण जीन प्राप्त करता है। अल्फा और बीटा थैलेसीमिया के माइनर रूप वाले लोगों में लाल रक्त कोशिकाएं छोटी होती हैं।
रोग की पहचान : इस रोग की पहचान तीन महिने की आयु के बाद ही होती है। महिला व पुरुष में क्रोमोज़ोम में खराबी होने की वजह से उनके बच्चे के जन्म के छह महीने बाद शरीर में खून बनना बंद हो जाता है और उसे बार-बार खून चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।
थैलेसीमिया के लक्षण :
1. थकान : रक्त में हीमोग्लोबिन की मात्रा कम होने की वजह से पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन का प्रवाह नहीं हो पता है। भोजन पचाने और उसे ग्लूकोज और ऊर्जा में परिवर्तित करने में पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन की जरूरत होती है। जो इस रोगी को नहीं मिल पाती । कम ग्लूकोज बनने की वजह से उसे जल्द ही थकान महसूस होने लगती है ।
2. भूख कम लगना : थैलेसीमिया रोगी में हीमोग्लोबिन कम बनने की वजह से समस्त अंत:स्रावी अभिक्रियाये सुस्त पड़ जाती हैं। जिसकी वजह से रोगी को भूख कम लगती है।
3. बच्चे में चिड़चिड़ापन होना : थैलेसीमिया से ग्रसित बच्चे कमजोरी की वजह से अक्सर चिड़चिड़े हो जाते हैं । उनके शरीर को जितनी ऊर्जा की जरूरत होती है, वह नही मिल पाती है।
4. गहरा व गाढ़ा मूत्र : थैलेसीमिया रोगी का मूत्र गहरा और गाढ़ा हो जाता है । जिसकी वजह से उसे काफी तकलीफ होती है ।
5. सामान्य तरीके से विकास न होना : समस्त अंत:स्रावी अभिक्रियाओं के सुचारु रूप से काम न करने, जितना वह खाता है, उसका सम्पूर्ण रूप से पाचन न होने, उसके ग्लूकोज में परिवर्तित न होने की वजह से इस रोग से ग्रस्त रोगी का विकास सामान्य तरीके से नहीं होता है ।
6. कमजोरी महसूस होना: सम्पूर्ण अंत:स्रावी अभिक्रियाओं को सम्पन्न करने के लिए जितनी मात्रा में आक्सीजन की जरूरत पड़ती है, लाल रक्त कणिकाओं की उम्र कम होने की वजह से नहीं मिल पाती। इससे रोगी द्वारा किया गया भोजन ग्लूकोज और ऊर्जा में परिवर्ती नहीं हो पाता और रोगी कमजोरी महसूस करता है ।
7. पीलिया होना: कमजोर होने और समस्त अंत:स्रावी अभिक्रियाओ के पूर्ण न होने की वजह से जल ही थैलेसीमिया रोगी पीलिया का शिकार हो जाता है ।
8. आंतों में सूजन होना : थैलेसीमिया रोगी के खून में आयरन की मात्रा अधिक होने के कारण और भोजन के सुचारु रूप से न पच पाने के कारण उसकी आंतों में सूजन आ जाती है ।
9. हमेशा सर्दी, जुकाम से ग्रसित रहना : थैलेसीमिया रोगी की रोग प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास हो जाता है। इसी कारण वह हमेशा सर्दी-जुकाम से पीड़ित रहता है। सर्दी – जुकाम की सामान्य दवाएं उस पर काम नहीं करती हैं ।
नेचरोपैथी से थैलेसीमिया का इलाज :
रक्त संबंधी बीमारी होने के कारण सामान्यतौर पर यह माना जाता है कि थैलेसीमिया रोग का नेचरोपैथी में कोई इलाज नहीं है। ऐसा रोगी भी सोचता है और चिकित्सक भी मानता है । लेकिन ऐसा नहीं है थैलेसीमिया रोग की चिकित्सा नेचरोपैथी में भी संभव है। यह एक ऐसी वैकल्पिक चिकित्सा है, जिसमें प्रकृति के पांच तत्वों की सहायता से व्यक्ति का इलाज किया जाता है। अपनी इलाज पद्धति के द्वारा जल्द ही नेचरोपैथी रोग की तीव्रता पर नियंत्रण पा लेती है । आज के समय में लोगों का लाइफस्टाइल जिस तरह का है, उसके कारण हर व्यक्ति किसी न किसी समस्या से ग्रस्त रहता ही है। लेकिन हर समस्या के लिए दवाइयों का इस्तेमाल करना उचित नहीं माना जाता। रोगी का इलाज प्राकृतिक तरीके से हो सकता है । एक नेचरोपैथ का मुख्य काम सिर्फ रोगी का इलाज करना ही नहीं होता, बल्कि वह अपने रोगी के खानपान और उसके लाइफस्टाइल में भी बदलाव करता है, ताकि व्यक्ति जल्द से जल्द ठीक हो सके। इतना ही नहीं, एक नेचरोपैथ रोगी के मनोविज्ञान को समझकर उसे बेहतर उपचार दे सकता है । लेकिन फिर भी बच्चा थैलेसीमिया रोग के साथ पैदा न हो, इसके लिए शादी से पूर्व ही खून की जांच होना जरूरी है। यदि शादी हो भी गयी है तो गर्भावस्था के 8 से 11 सप्ताह में ही डीएनए जांच करा लेनी चाहिए। माइनर थैलेसीमिया से ग्रस्थ इंसान सामान्य जीवन जी पाता है और उसे आभास तक नहीं होता कि उसके खून में कोई दोष है।
थैलेसीमिया रोगी का इलाज करते समय नेचरोपैथ पंच कर्म का प्रयोग करने के साथ –साथ उसके आहार विहार पर भी विशेष ध्यान देता है । इसके अलावा वह रोगी को ऐसा आहार देता है, जिसमें आयरन और प्रोटीन की मात्रा न्यूनतम हो। इसके साथ – साथ वह रोगी को नियमित व्यायाम और ध्यान करने के लिए भी प्रेरित करता है। जिससे वह मानसिक और शारीरिक रूप से मजबूत बन सके । वह रोगी को ऐसा पौष्टिक आहार देता है। जिसमें कैल्शियम प्रचुर मात्रा में होता है। जिससे आयरन के अभाव में भी उसकी हड्डियाँ कमजोर नहीं होती है। कैल्शियम उसे मजबूत बनाता है । दूध और दूध से बने समस्त उत्पाद में प्रचुर मात्रा में कैल्शियम होता है। इसके साथ ही दूध और दूध से बने उत्पाद शरीर में अवशोषण की क्षमता को भी कम कर देता है। इस कारण यह और प्रभावी होता है। उम्र के साथ कैल्शियम की जरूरत भी घटती बढ़ती रहती है । इस कारण नेचरोपैथ रोगी की उम्र के हिसाब से उसे भोज्य या पेय पदार्थ देता है। जिससे उसकी आपूर्ति हो सके । वह 6 महीने के बच्चे को 200 एमजी, 7महीने से लेकर 1 वर्ष तक के मरीज को 260 एमजी, 1 से 3 वर्ष तक के मरीज को 700 एमजी, 4 से 8 वर्ष तक के मरीज को 1000 एमजी, 9 से 18 वर्ष तक के मरीज को 1300 एमजी, 19 से 70 वर्ष तक के मरीज को 1000 एमजी, 71 से 100 वर्ष तक के मरीज को 1200 एमजी प्रतिदिन की आपूर्ति का भी ध्यान रखता है। क्योंकि अधिक मात्रा में भी कैल्शियम की मात्रा होने पर रोगी को दूसरी तकलीफ़ें बढ़ जाती हैं ।
लेकिन नेचरोपैथ इस बात का भी ध्यान रखता है कि जो कैल्शियमयुक्त भोज्य या पेय पदार्थ रोगी को दिया जा रहा है। वह पूर्ण रूप से अवशोषित हो। कैल्शियम को अवशोषित करने में विटामिन डी बहुत ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है । इसलिए वह कैल्शियमयुक्त भोज्य व पेय पदार्थ देने के साथ – साथ विटामिन डी युक्त भोज्य और पेय पदार्थ भी देता है । वह उसे ऐसी खुराक भी देता है। जिसमें फोलिक एसिड हो । साथ ही पंच कर्म के दौरान ऐसी विधियों का प्रयोग करता है, जिससे रोगी कोई किसी प्रकार का संक्रमण न हो ।
इस रोग में आयरन की कमी के कारण रोगी की हड्डियाँ कमजोर हो जाती हैं । इसी कारण नेचरोपैथ उसके स्थान पर कैल्शियम का उपयोग करता है। जो रोगी के दांतों और हड्डियों को मजबूत करता है । घुटनों और जोड़ों के दर्द से निजात दिलाता है। रक्त को सुचारु रूप से प्रवाहित होने में मदद करता है । मांसपेशियों में अकड़न और जकड़न नहीं आने देता है । अंत:स्रावी तत्रों को ठीक करने में मदद करता है । गर्भवती महिलाओं को होने वाले जोखिम को कम करता है। हार्मोन्स और एंजाइम्स को सक्रिय बनाता है । वजन को संतुलित करने में मदद करता है ।
नेचरोपैथ रोगी को खुले और छायादार माहौल में रखता है। साथ ही रोगी के परहेज पर विशेष ध्यान देता है। वह रोगी को तरबूज, पालक, खुबानी, हरी पत्तेदार सब्जियाँ, आलू, खजूर, किशमिस, बकरोली, फलियाँ, मटर, सूखी फलियाँ, दालें, दलिया, चाय, कॉफ़ी आदि कभी नहीं देता है । मसले का भी उपयोग औषधीय रूप में करता है ।
प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट