अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्वतन्त्रता दिवस और आज की पत्रकारिता के हालात – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

(अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्वतन्त्रता दिवस पर विशेष )
आज ही दिन, 3 मई, 1991 में दिन संयुक्त राष्ट्र संघ और जन सूचना विभाग ने मिल कर यह निर्णय लिया था कि हर वर्ष सम्पूर्ण विश्व में इस तिथि को अंतर्राष्ट्रीय पत्रकारिता स्वतन्त्रता दिवस के रूप में मनाया जाएगा । तब से लगातार इस दिन को सम्पूर्ण विश्व में मनाया जा रहा है । इसका उद्देश्य पत्रकारिता की स्वतन्त्रता से था । इस समय सम्पूर्ण विश्व कोरेना के संक्रमण से बचने के लिए जूझ रहा है । हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कोरेना संक्रमण से देश की जनता को बचाने के लिए लॉक डाउन घोषित कर रखा है । पहला चरण 21 दिनों का था, दूसरा चरण 19 दिनों के लिए घोषित किया गया है। जो आज ही के दिन यानि 3 मई को समाप्त हो रहा है। लेकिन उसे समाप्त होने के दो दिन पहले ही गृह मंत्रालय ने एक बार फिर 14 दिनों के लिए तीसरे चरण के लॉक डाउन की घोषण कर दी । ऐसे में जब हर किसी को बाहर निकलने की मनाही है, सभी लोग अपने प्राण बचाने के लिए घरों में हैं, हमारे देश का ही नहीं, विश्व के समस्त पत्रकार रेड जोन से लेकर ग्रीन जोन तक क्षेत्रों में उन्मुक्त विचरण करते हुए समाचार संकलन का कार्य कर रहे हैं । अपनी जान, अपने परिवार वालों की जान को दांव पर लगा कर आज पत्रकार समाचार संकलन कर रहा है, प्रिंट मीडिया और इलेक्ट्रानिक्स मीडिया के माध्यम से उसे दिखा रहा है। लॉक आउट के दौरान पत्रकार सिर्फ इतना ही अपना कर्तव्य निर्वहन नहीं कर रहा है, अपितु गरीबों को राशन मिला कि नहीं, उसे भोजन मिला कि नहीं, उसे भोजन कौन दे रहा है ? उस पर कोई अत्याचार तो नहीं हो रहा है। उसकी क्या दशा है ? ऐसी सभी सूचनाओं को भी एकत्र करके जनता के सम्मुख परोस रहा है । इतने संकट के समय भी वह समय से निकल जाता है। लॉक डाउन के कारण बाजार बंद है। होटल बंद है, दूकाने बंद है। उसे न तो अपनी भूख की चिंता है, न अपनी प्यास की चिंता है, और न ही अपने जीवन और मरण की चिंता है। हर देश की सरकारें जब कोरेना संक्रमण के समय अपना-अपना योगदान दे रहे कोरेना योद्धाओं के लिए 50 लाख के बीमा की व्यवस्था है, कि अगर वह भी कोरेना का शिकार हो जाए, तो उसके परिवार वालों के भरण पोषण का प्रबंध हो जाए। लेकिन ऐसी संक्रमणकालीन अवस्था में भी एक पैसे की कहीं से मदद की आशा नहीं है। सरकारों से कई पत्रकार संगठनों ने मांग भी की, लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई । अपनी रिस्क पर वह अपने पत्रकारिता धर्म को निभा रहा है ।
भारत में जब हम पत्रकारिता की बात करते हैं तो हमें दो प्रकार के पत्रकार दिखाई देते हैं। एक ओर बड़े मीडिया समूहों में काम रह रहे हैं, उन्हें अच्छी सुविधाओं के साथ ही अच्छा वेतन और पैकेट भी प्राप्त हो रहा है। इसलिए बड़े मीडिया समूहों के साथ काम करने वाले पत्रकारों के लिए चिंता की बात नहीं है । उनके पास कोरेना संक्रमण से बचने के लिए सभी जरूरी संसाधन हैं। बड़े मीडिया समूहों के पत्रकारों को सरकारें और प्रशासन भी मदद करता दिखाई दे रहा है। दूसरे प्रकार के मीडिया समूहों में छोटे-छोटे समाचार पत्र निकाल कर सही मायने में पत्रकारिता कर रहे पत्रकारों का समूह है। इनके मालिकों के पास समाचार पत्र निकालने के लिए ही पैसे नहीं होते हैं। रोज गुणा गणित लगा कर ये समाचार पत्र निकालते हैं। इनके साथ काम करने वाले एक तरह से स्वयंसेवी होते हैं। इन छोटे मालिकों की ओर से उन्हें किसी प्रकार की मासिक या साप्ताहिक वृत्ति नहीं दी जाती है । बल्कि विभिन्न त्योहारों या विशेष दिनों में वे जो विज्ञापन लाते हैं, उसके मूल्य का पचास प्रतिशत उसे लौटा दिया जाता है। विज्ञापन भी कितने मिलते होंगे, इसका अंदाजा आप सहज लगा सकते हैं। इन छोटे अखबारों में काम करने वालो में से आज तक मुझे कोई ऐसा नहीं मिला, जो 20 हजार से अधिक का विज्ञापन एक त्योहार पर लाया हो। विज्ञापन भी प्राय: वही लोग देते हैं, जिनका वह नियमित रूप से समाचार लगाया करता है। इनमें से अधिकांश तो राजनीति से संबन्धित होते हैं, या किसी संगठन से संबन्धित होते हैं। साल में ऐसे एक आधे दर्जन त्योहार ही पड़ते है। यानि वह साल में 10 हजार के हिसाब से केवल 60 हजार रूपए ही कमाता है । इसी से वह अपने परिवार का भरण-पोषण करता है, और इसी से वह अपनी गाड़ियों में पेट्रोल की भी व्यवस्था करता है। लेकिन एक बात यह भी देखी गई है कि इसमें से भी अधिकांश पत्रकार उच्च शिक्षित होते हैं, लेकिन सिद्धांतों और अपनी आजादी के कारण बड़े समूहों के साथ काम नहीं कर पाते ।
लेकिन लोकतन्त्र के इस प्रमुख खंभे के ऊपर आज कल नाना प्रकार के आक्षेप भी लगाए जाते हैं। देश की जनता को ऐसा लगता है कि पत्रकार आज कल वह नही दिखाता, वह नही लिखता है, जो उसका पत्रकारिता धर्म कहता है। उसके पीछे कुछ कारण हैं। आज की पत्रकारिता और पहले की पत्रकारिता में जमीन आसमान का अंतर पाया जाता है । पहले के समय में मीडिया समूहों और पत्रकारो दोनों का धर्म एक था। दोनों ही समाज और देश के लिए पत्रकारिता करते थे। उनका खुद का जीवन भी त्यागपूर्ण होता था। बड़े से बड़ा अभाव भी उन्हें डिगा नहीं सकता था। लेकिन आज के समय में इसमें बदलाव आया। जबसे इलेक्ट्रानिक्स मीडिया का वर्चस्व हुआ। लोग पढ़ने के बजाय देखने में ज्यादा विश्वास करने लगे। ऐसा नहीं है कि इलेक्ट्रानिक्स मीडिया के आने से प्रिंट मीडिया के जीवन पर संकट आ गया। लेकिन एक चीज जरूर हुई, प्रिंट मीडिया भी कुछ बड़े घरानों के हाथों में सिमट कर रह गई । इन घरानों ने आधुनिकता की दौड़ में अपने को प्रतिस्पर्धी बनाते हुए बड़े-बड़े प्रतिष्ठान खोले। काम करने वाले पत्रकारों को सुविधाएं और ऊंची-ऊंची तनख़्वाहें देने लगे । पत्रकारिता के लिए सबसे बुरा तब हुआ, जब इनकी नजदीकियाँ राजनेताओं से अधिक बढ़ गई। ये सत्ता बनाने और बिगाड़ने का खेल खेलने लगे। जिनसे पैसा मिला, उसके पक्ष मे लिखने और दिखाने लगे। समाचारों में आवश्यकता अनुसार तोड़-मरोड़ करके दिखाने लगे। फील्ड का पत्रकार चाहे जितनी ही सनसनीखेज खबर लाए, छपने के पहले मीडिया मालिक उसका मोल-भाव करने लगे। खबर छपेगी कि नहीं, कैसी छापेगी, कितनी छापी जाएगी, जबसे इसका निर्णय मीडिया मालिकों के हाथों में चला गया, तब से इस प्रकार के सवाल उठने लगे । इस पर रोक लगनी चाहिए । बड़े बड़े मीडिया समूहों को इस पर पुनर्विचार करना चाहिए। और लोकतन्त्र के इस खंभे को जर्जर होने से बचाना चाहिए।
ऐसा नहीं है, समाज में आज भी पत्रकार और पत्रकारिता का उतना ही महत्त्व है। आज की विषम परिस्थितियों में भी घरों मे बैठे लोग भी यही देखना और पढ़ना चाहते हैं कि कहाँ क्या हो रहा है ? हर सुबह लोगों को अखबार का इंतजार करते हुए देखा जा सकता है । इसी से इसकी अहमियत का पता चलता है। आज के दिन हम सभी पत्रकारों को यह संकल्प लेना चाहिए कि हम सभी पत्रकारिता के वसूलो पर काम करेंगे। खुद के स्वार्थ की पूर्ति का साधन पत्रकारिता को नहीं बनाएँगे। दलाली मक्कारी करके अकूत संपत्ति कमाने का जरिया इसे नहीं बनाएँगे। बल्कि देशप्रेम और मानव सेवा के लिए पत्रकारिता धर्म का पालन करेंगे। तभी लोकतन्त्र को अक्षुण्य रखने की जो ज़िम्मेदारी पत्रकारों के कंधों पर है, उसका ठीक से निर्वहन हो सकेगा । देश और उसका एक –एक नागरिक आजादी का अनुभव करेगा। पत्रकार के सुख और पत्रकारिता दोनों का यही धर्म है ।
प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव
पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट