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पूर्वांचल के शैक्षिक विकास में गोरखपुर विश्वविद्यालय का अप्रतिम योगदान: डॉ. प्रमोद शुक्ला

पूर्वांचल के शैक्षिक विकास में गोरखपुर विश्वविद्यालय का अप्रतिम योगदान: डॉ. प्रमोद शुक्ला
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आज दिनाँक 1 मई 2020 को दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय की स्थापना दिवस के उपलक्ष में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग (ज़ूम) के जरिये राजीव गांधी स्टडी सर्किल की बैठक आयोजित हुई, जिसकी अध्यक्षता करते हुए गोरखपुर क्षेत्र के समन्वयक डॉ. प्रमोद कुमार शुक्ला ने कहा कि पूर्वांचल के शैक्षिक एवं सामाजिक विकास में गोरखपुर विश्वविद्यालय का अप्रतिम योगदान है।

इनके इतिहास को स्मरण करते हुए कहा कि यद्यपि गोरखपुर में आवासीय विश्वविद्यालय का विचार पहली बार सेंट एंड्रयूज कॉलेज (1899 में स्थापित एक मिशनरी संस्थान) जो तत्कलीन आगरा विश्वविद्यालय के अधीन था, के तत्कालीन प्राचार्य सी.जे. चाको द्वारा पैदा किया गया था, जिन्होंने अपने कॉलेज में स्नातकोत्तर और स्नातक विज्ञान शिक्षण की शुरुआत कर ली थी और इस विचार को ठोस आधार दिया, जिसे व्यापक रुप में डॉ. एस.एन.एम. त्रिपाठी, तत्कालीन डीएम (जिला मजिस्ट्रेट), के साथ हुई सितंबर 1948 की वार्ता ने ठोस आधार दिया।

श्री त्रिपाठी विश्वविद्यालय स्थापना का कार्य डॉ. चाको को सौंपना चाहते थे लेकिन सेंट एंड्रयूज़ कॉलेज के शासी निकाय की स्वायत्तता और पहचान के नुकसान की आशंका थी। इस कारण से शासी निकाय ने प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। हालाँकि श्री एस.एन.एम.त्रिपाठी इस प्रयास के बाद भी हतोत्साहित नहीं हुए। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए बनी समिति के अध्यक्ष के रुप में पं. सुरति नारायण मणि त्रिपाठी ने रायबहादुर मधुसूदन दास को मंत्री बनाया। वह सहर्ष तैयार हुए और वायदे के मुताबिक नाथ चन्द्रावत ट्रस्ट (गोरखपुर से सटा एक स्टेट, जिसके सचिव थे) से 2,25,000 रु. का भुगतान किया। आगे चलकर पं. सुरति नारायण मणि त्रिपाठी ने क्षेत्र के सभी संभ्रात लोगों से मिलकर विश्वविद्यालय को दान दिलाया, जिनमें सरदार मजीठिया और तमकुही राज स्टेट प्रमुख थे। वही मुख्यमंत्री पंत जी ने ईस्टर्न ग्रुप की चीनी मिल का अतिरिक्त शीरा विश्वविद्यालय हेतु स्वीकृत किया, जिससे 1949-50 के दौरान 5,50,000 रु. की आय हुआ। यह सब विश्वविद्यालय की स्थापना में बहुत सहायक हुआ। कुल 25 लाख रुपया एकत्र किया गया।

अध्यक्ष त्रिपाठी जी ने ही विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए एक ट्रस्ट की स्थापना की और महंत श्री दिग्विजयनाथ जी महाराज और उद्योगपति सरदार सुरेंद्र सिंह मजीठिया जी को उपाध्यक्ष बनाया। गोरखपुर यूनिवर्सिटी फाउंडेशन सोसाइटी नाम से एक संस्था रजिस्टर्ड कराई गई। समिति के अन्य सदस्य पंडित प्रसिद्ध नारायण मिश्र, पं. हरिहर प्रसाद दुबे, श्री बब्बन प्रसाद मिश्र, श्री केदार नाथ लाहिड़ी, राय राजेश्वरी प्रसाद, खान बहादुर मो. जकी, श्री रायबहादुर मधुसूदन दास, रायबहादुर रामनारायण लाल, श्री महादेव प्रसाद, श्री परमेश्वरी दयाल, श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार थे।

पं. त्रिपाठी ने जिलाधिकारी की हैसियत से सिविल लाइन की नजूल भूमि (वर्तमान कैंपस) को विश्वविद्यालय फाउंडेशन सोसाइटी को अलॉट करने का प्रस्ताव सरकार

को दिया, जिसपर उदारमना तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. गोविंद बल्लभ पंत ने 170 एकड़ भूमि 99 वर्ष के पट्टे पर विश्वविद्यालय के लिए मामूली वार्षिक रेंट पर देने के लिए कैबिनेट से पास करा लिया वह बिना प्रीमियम दिए।

यद्यपि यह प्रक्रिया चलती रही और डॉ. संपूर्णानंद जी के मुख्यमंत्री बनने के बाद पं सुरति नारायण मणि त्रिपाठी एक प्रतिनिधिमंडल के साथ उनसे मिले और तमाम बाधाओं को दूर करते हुए अंततः एक विधेयक दिसंबर 1955 में असेम्बली में प्रस्तुत हुआ और प्रवर समिति से होते हुए मई 1956 में विधिक रूप से पारित हुआ।

विश्वविद्यालय का वर्तमान परिसर कभी सेना का परेड ग्राउंड हुआ करता था। श्री एस.एन.एम.त्रिपाठी ने अपने अधिकार और संबंधों की बदौलत पहले १७० एकड़ और बाद में २५० एकड़ जमीन १.१२ किराये पर लीज पर ली थी। श्री एस.एन.एम.त्रिपाठी ने ही उत्तर प्रदेश के पहले और दूसरे मुख्यमंत्रियों, गोबिंद बल्लभ पंत और डॉ सम्पूर्णानंद से अपने सम्बन्धों का इस्तेमाल किया, ताकि 99 साल की लीज पर ली गई 170 एकड़ (बाद में 250 एकड़) सार्वजनिक भूमि उनके पास हो।

विश्वविद्यालय स्थापना समिति ने सर्वप्रथम सेंट एंड्रयूज कॉलेज के एल.टी. कॉलेज का अधिग्रहण किया और उसे शिक्षा विभाग के रूप में विश्वविद्यालय के प्रथम विभाग को स्थापित किया। बाद में जब विश्वविद्यालय की स्थापना हो गयी तो सेंट एंड्रयूज कॉलेज के एल. टी. कॉलेज के सभी छह शिक्षक यहाँ स्थानांतरित हो गये। इसी प्रकार महाराणा प्रताप एजुकेशनल ट्रस्ट के तीस से अधिक शिक्षक और कर्मचारी इसमें स्थानांतरित हुए।

विश्वविद्यालय के अस्तित्व में आने में गोरक्षपीठ के महंत दिग्विजयनाथ जी की एक प्रमुख भूमिका थी क्योंकि क्रिश्चियन सेंट एंड्रयूज कॉलेज के विपरीत, उन्होंने नये बनने वाले विश्वविद्यालय में अपने कॉलेज का विलय करने की पेशकश की थी। महाराणा प्रताप डिग्री कॉलेज के विलय को लेकर उनकी शर्तें थीं कि डिग्री कॉलेज के सभी कर्मचारियों को विश्वविद्यालय के पेरोल पर स्वीकार किया जाना चाहिए और महाराणा प्रताप एजुकेशनल ट्रस्ट के एक प्रतिनिधि को स्थायी रूप से विश्वविद्यालय के शासी निकाय पर होना चाहिए। यह विश्वविद्यालय के अधिनियम में स्वीकार किया गया।

एस.एन.एम.त्रिपाठी का जन्म 1900 में देवरिया जिले (तब गोरखपुर जिले का हिस्सा) के बरपार गाँव के एक सरयू पारीण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उस समय त्रिपाठी को काफी कुशल प्रशासक माना जाता था। विश्वविद्यालय की स्थापना के लिए उनके 'अपार' योगदान को सी.जे. चाको द्वारा इस प्रकार प्रस्तुत किया गया था:

"पंडित त्रिपाठी और स्वयं ने गोरखपुर विश्वविद्यालय के नियोजन और गठन की प्रक्रियाओं में एक साथ काम किया है, लेकिन मैं गोरखपुर में हर किसी को आश्वस्त कर सकता हूं कि उनके दृढ़ संकल्प, अनिश्चित प्रयासों के अलावा, गोरखपुर विश्वविद्यालय के अधिकांश ईमानदार, जागरूक और कर्तव्यनिष्ठ उत्साह ने शायद नहीं किया होगा। जिस समय यह किया था उस दिन के प्रकाश को देखा। निस्संदेह वह गोरखपुर के पंडित मदन मोहन मालवीय हैं।"

पंडित सुरति नारायण मणि त्रिपाठी, जो गोरखपुर के तत्कालीन जिलाधिकारी थे, के अथक प्रयासों से गोरखपुर में विश्वविद्यालय स्थापित करने के प्रस्ताव को सैद्धांतिक रूप से यूपी के पहले मुख्यमंत्री गोबिंद बल्लभ पंत द्वारा स्वीकार किया गया था, लेकिन यह केवल 1956 में विश्वविद्यालय उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पारित एक अधिनियम द्वारा अस्तित्व में आया। किन्तु अपना परिनियम न होने के कारण यह विधिक रूप से यह वास्तव में 1 सितंबर 1957 से काम करना शुरू कर दिया था, जब कला, वाणिज्य, कानून और शिक्षा के संकाय शुरू किए गए थे जिसमें अंगरेजी, मनोविज्ञान, संस्कृत, वाणिज्य, प्राचीन इतिहास, शिक्षा विभागों का संचालन और स्नातकोत्तर कक्षाएं शुरू की गयीं

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