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लॉक डाउन : ग्रामीण पशुपालकों के सामने रोजी-रोटी का संकट और पशुओं के भूखे मरने के हालात – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव

लॉक डाउन : ग्रामीण पशुपालकों के सामने रोजी-रोटी का संकट और पशुओं के भूखे मरने के हालात – प्रोफेसर डॉ. योगेन्द्र यादव
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सम्पूर्ण विश्व इस समय कोरेना संकट से उबारने के लिए लगे हुए लॉक डाउन से विषम परिस्थितियों से गुजर रहा है। पृथ्वी पर जीवन को बचाने के लिए जद्दोजेहाद हो रही है। विश्व के सभी देशों ने अपने – अपने यहाँ लॉक डाउन लगा घोषित कर दिये हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी अपने राष्ट्र धर्म का निर्वहन करते हुए एक महीने पहले लॉक डाउन का ऐलान किया। 21 दिन का पहला चरण पूरा होने के बाद 19 दिनों के लिए दूसरा चरण घोषित किया गया, जो अभी चल रहा है। जहां तक देश के प्रधानमंत्री का सवाल है, उनकी ओर से यह स्पष्ट आदेश दिया गया है कि कोई गरीब भूखा न रहे। इसके लिए सभी राज्य सरकारें आवश्यक कदम उठाएँ । उनके निर्देश के बाद सभी सरकारों ने आवश्यक कदम उठाए भी हैं। गनीमत यह है कि अभी तक कोरेना नगरों में ही अपना पैर पसारे हुए हैं। गावों तक उसकी पहुँच नहीं हो पाई है। जो इक्का दुक्का लोग मिले भी, उन्हें ठीक से क्वारंटाइन कर दिया गया और समस्त ऐतिहात बरतने की वजह से वे ठीक भी हो गए । शहर के गरीबों के लिए तो तमाम योजनाएँ हैं, जिसकी वजह से यहाँ पर गरीबों के हालात फिर भी बेहतर हैं । विभिन्न समाजसेवी संस्थाओं के भी मैदान में उतरने की वजह से उन्हें अपनी जरूरत के हर समान मिल जा रहे हैं। उनके काम –धंधे बंद हुए, तो उसका कोई विशेष प्रभाव उन पर नहीं पड़ा। सरकार ने पंजीकृत मजदूरों की आर्थिक मदद भी की है। समाजसेवी संस्थाओं के लोग भी उनकी मदद कर रहे हैं।

कोरेना महामारी के कारण सबसे अधिक संकट गाँव के गरीबों पर पड़ा। अगर हम भारत के गावों की बात करें, तो यहाँ दो तरह के लोग रहते हैं। एक खेती करने वाले लोग, दूसरे पशुपालन करने वाले लोग। लेकिन अगर ध्यान से देखा जाये, तो गावों का मुख्य धंधा जिससे दो पैसे नियमित आय होती है, वह पशुपालन ही है । पशुपालन सभी करते हैं, चाहे उनके पास खेती हो या न हो। पशुपालन पर भी अगर दृष्टि डालें तो दो तरह के पशुपालन दिखाई पड़ते हैं। कुछ लोग दूध के लिए पशुपालन करते हैं। जिससे दही, पनीर, छाछ, घी आदि का निर्माण कर उसे बाज़ारों में बेचा जाता है । दूसरे प्रकार के लोग मांस के लिए पशुपालन करते हैं। जैसे बकरा पालन, मुर्गी पालन, मछली पालन आदि। इस प्रकार के पशुपालन करने वाले कुछ दिन तक उन्हें जिलाते खिलाते हैं, और जब वे बड़े हो जाते हैं, परिपक्व हो जाते हैं, तो उन्हें मांस बेचने वालों के हाथों बेच देते हैं, जिससे उन्हें एकमुश्त पैसा मिल जाता है। और उसे अपनी जरूरतों के मुताबिक खर्च करते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में पशुपालन की अधिकांशत: ज़िम्मेदारी महिलाओं की होती है। अमूमन ऐसा देखा गया है कि पशुपालन करने में अधिक योगदान ग्रामीण महिलाओं का होता है ।

यहाँ पर हम चर्चा गाँव के छोटे पशुपालको की कर रहे हैं । जो दूध देने वाले गाय, भैंस, बकरी आदि का पालन करते हैं। इनके दूध को वे बाज़ारों में बेचते हैं, जिससे जो दो पैसे इन्हें लाभ के रूप में मिलते हैं, उनसे वे घर के लिए साग-सब्जी, नमक, तेल, बच्चों की फीस, कपड़े, खाद-पानी आदि की व्यवस्था करते हैं। लेकिन लॉक डाउन होने की वजह से इस समय वे सभी दुकाने बंद हैं, जहां वे दूध देते थे। इसलिए उनके पशु दूध तो दे रहे हैं, लेकिन उनके दूध की बिक्री नहीं हो रही है । घर और खुद की जरूरत पूरा करने के लिए जो दो पैसे रोज मिल रहे थे। वह आवक बंद हो गई। अब न तो कस्बों में चाय की दूकान खुल रही है। और न ही कोरेना के भय से लोग चाय-पानी के लिए इन दूकानों पर जा रहे हैं । इसकी वजह से गाँव का अधिकांश छोटा किसान और किसान मजदूर, जो पूरी तरह से पशुपालन पर ही निर्भर था, उसकी बड़ी ही दयनीय दशा है। पिछले कई दिनों से ऐसे लोगों से चर्चा हो रही थी, उन्होने जो अपनी स्थिति बयां की, वे काफी हतप्रभ कर देने वाली है ।

बातचीत के दौरान गाँव के छोटे पशुपालकों ने बताया कि इस साल तो ऊपर वाला भी हम लोगों से बेहद खफा है। सभी के यहाँ पशुओं को खिलाने के लिए भूसा खत्म हो चुका है। गेहूं की फसल खेतों में तैयार हुई, तो एक महिना पहले घनघोर तूफान के साथ ओलावृष्टि ने तबाह कर दिया। इधर लॉक आउट लागू होने के कारण मजदूर और मशीन दोनों उपलब्ध न होने के कारण घर के परिवारीजनों द्वारा ही लगातार कटाई और मड़ाई का काम हो रहा था। वह भी धीरे-धीर हो रहा है। इधर भी बीच –बीच में तूफान और ओलावृष्टि लगातार हो रहा है। जिसकी वजह से लोग अपने गेहूं या अन्य फसलों की कटाई समय से नहीं कर पा रहे हैं। तेज तूफान आ जाने के कारण और मिट्टी और डाँठ गीले-मुलायम होने के कारण वे गिर जा रहे हैं। उससे भी कटाई और मड़ाई में तमाम परेशानी हो रही है। मौसम के बदले मिजाज की वजह से किसान बेहद परेशान है। वह इसी ताक में है कि किसी तरह से अनाज उसके घर में आ जाए। इसलिए वे ऐसी मशीनों से कटाई करवा रहा है, जो अनाज तो निकाल लेती हैं। लेकिन भूसा तैयार नहीं हो पा रहा है इस कारण अभी से गाँव के पशुपालकों के सामने चारे की बड़ी समस्या हो गई है। ऐसे समय में जब गेहूं और अन्य रवि की फसलों की अभी कटाई भी नहीं हो पाई है। इतनी किल्लत गाँव वालों ने सूखे चारे की किल्लत कभी महसूस नहीं की ।

गाँव के क्षेत्र के पशुपालकों ने बताया कि इस साल तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि अब पशु भी बेचना पड़ेगा। वैसे ही गावों में भी पशुपालन बहुत महंगा हो गया है। घास वगैरह काटने की परंपरा ही धीरे-धीरे समाप्त हो चुकी है। पशुपालन तो पूरी तरह से चूनी-चोकर और भूसे पर ही आधारित है। चूनी – चोकर इतने महंगे हो गए हैं, कि पूछिए मत। दूध ऊपर से बाजार नहीं जा पा रहा है। उससे जो पैसे मिलते थे, भैंसों और गायों को खिलाने के लिए उन्हीं से चोकर-चूनी आता था। इस साल तो लगता है कि अब चूनी-चोकर के साथ –साथ भूसा भी खरीदना पड़ेगा। ऐसे में पशुपालन तो नहीं हो पाएगा । चूनी-चोकर खिलाने के बाद भी बहुत थोड़े से पैसे ही बचते थे। जिससे घर का खर्च आदि चल जाता था। लेकिन अगर भूसा भी खरीदना पड़ेगा, तो एक पैसा भी नहीं बचेगा। इस तरह से एक दूध देने वाले पशु के साथ दो और भी पशु पाल लिए जाते थे। अब तो वह भी मुश्किल प्रतीत हो रहा है । अगर भूसे का प्रबंध न हो पाया, तो गाँव के तमाम लोग ऐसे पशुओं को हटा देंगे, जो दूध नहीं दे रहे हैं। क्योंकि उन्हें खिलाने के लिए उनके पास सूखा चारा ही नहीं है। हरे चारे का वे कितना इंतजाम करेंगे, एक तो आज के लड़के – लड़कियों में हरा चारा आदि काटने की प्रवृत्ति ही नहीं रही । जो थोड़ा पढ़ लिख गए हैं, वे तो पशुपालन और खेती को निकृतष्टम कार्य समझते हैं। आज कल की बहुओं और लड़कियों को गोबर से घिन आने लगी है। ऐसे में धीरे-धीरे गाँव से पशुपालन का भी लोप हो जाएगा। या ऐसे लोगों के हाथों मे चला जाएगा, जो सिर्फ और सिर्फ इसे व्यवसाय के रूप में अपनाए हुए हैं ।

इसलिए गाँव के ऐसे पशुपालकों के सामने बड़ी समस्या है, जिनके यहाँ घर में आय का कोई दूसरा साधन नहीं है। अगर वे पशुपालन नहीं करते हैं, तो भी उनके घर का खर्च कैसे चलेगा, और करते हैं, तो चूनी-चोकर और भूसा खरीदने के लिए पैसा कहाँ से लाएँगे ? गाँव के आस-पास अब चरागाह भी नहीं बचें हैं, लोगों ने उसे जोत लिया है । इसलिए पशुओं को चरने की भी जगह नहीं बची हुई है। घास काटने की प्रवृत्ति नहीं है, अगर है भी तो एक आदमी कितनी घास काट सकता है। फिर ग्रासलैंड भी तो नहीं बचा हुआ है। जहां से उसे काट कर लाया जा सके । आने वाले समय में यह भी एक बड़ा संकट है ।

भारत सरकार और देश के प्रधानमंत्री और सभी प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों और संबन्धित विभाग के मंत्रियों को इस दिशा में भी चिंतक करने इसका भी कोई हल निकलना चाहिए । अगर पशुपालन पर निर्भर लोग खाली हो जाएंगे, तो बेरोजगारों की एक और फौज खड़ी हो जाएगी। कोरेना संकट और लॉक डाउन की वजह से वैसे ही बेरोजगारी का आलम है, इनके बेरोजगार हो जाने पर एक नया संकट उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए देश के प्रधानमंत्री को इस दिशा में भी चिंतक करके ऐसे लोगों के लिए भी कोई न कोई प्रबंध करना चाहिए। जिससे उनके पशुओं के लिए चारे का इंतजाम हो सके ।

प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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