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बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अहिंसात्मक दृष्टि और सामाजिक आंदोलनों में उसका प्रयोग – प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अहिंसात्मक दृष्टि और सामाजिक आंदोलनों में उसका प्रयोग – प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव
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जब देश विषम परिस्थितियों से गुजर रहा है। कोरेना की महामारी से पूरा विश्व आक्रांत हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लॉक डाउन के घोषित लॉक डाउन का आज बीसवाँ दिन है। लॉक डाउन के 21 दिन देश के संविधान निर्माता के रूप में ख्यातिलब्ध बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जयंती है। आज ही के दिन 14 अप्रैल, 1891 को उनका जन्म मध्य प्रदेश के मऊ जिले में हुआ था। जो अंग्रेजों के समय में एक छवानी में तब्दील हुआ और इंदौर के पास स्थित है । उनका संबंध तत्कालीन महार जाति से है, जो मध्य प्रदेश में अनुसूचित जाति मानी जाती है। आज से करीब 129 वर्ष पहले जब देश की जातीय व्यवस्था आज जितनी न तो शिथिल थी और न ही आज जैसी उनमें राजनीतिक जागरूकता ही आई थी। ऐसे समय में भीमराव अंबेडकर ने केवल उच्च शिक्षा ही ग्रहण की, अपितु वे कानून के मर्मज्ञ बने। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपने कानूनी ज्ञान से प्रभावित किया। उनकी ही अनुशंसा पर देश के कानून मंत्री बने और संविधान के निर्माण में अहम भूमिका निभाई। इतना ही संविधान के निर्माण के समय अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और पिछड़ों के उत्थान के लिए उसमें प्रावधान भी कराये । जिससे उनका हर क्षेत्र में विकास हुआ । इसी कारण इतनी विषम परिस्थितियों में भी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति और पिछड़े वर्ग के लोग अपने – अपने घरों में रहते हुए उनका जन्मदिन मनाएंगे । अब सोशल मीडिया का जमाना है। उनके जन्मदिन मनाने के लिए उनके समर्थक विभिन्न प्रकार से अपील कर रहे हैं । इसके पीछे सिर्फ उनका संविधान लिखना ही नहीं है। बल्कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने दलितों पर हो रहे अत्याचारों का मुखर विरोध किया। उन्हें शिक्षित करने के लिए अहम कदम उठाए । समाज में फैले अंधविश्वासों और रूढ़ियों के खिलाफ उन्हें सजग किया। इन सबके लिए उन्होने समय – समय पर बहिष्कृत भारत, मूक नायक और जनता के नाम से पाक्षिक और साप्ताहिक पत्र भी निकाले । जिन्हें तत्कालीन शिक्षित अनुसूचित जाति, जन जाति के लोग न सिर्फ पढ़ते बल्कि अपने समाज के अशिक्षित लोगों को पढ़ कर भी सुनाते थे । अनुसूचित जाति और जन जाति के लोगों में उनके बौद्ध धर्म ग्रहण करने का व्यापक असर पड़ा। 14 अक्तूबर, 1956 को देश के आजाद होने के बाद उन्होने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया । इनके इस कदम से अनुसूचित जाति के समाज के लोग आज अधिकांश बौद्ध धर्म को मानते हैं। अनूचित जाति, अनुसूचित जन जाति, पिछड़ों को जगाते-जगाते देश का यह मसीहा उन्हे 6 दिसंबर, 1956 को रोता-बिलखता छोड़ कर चला गया। किन्तु संविधान में ऐसा प्रावधान कर गए, जिसकी बदौलत आज भी वे लोग उन्हें श्रद्धापूर्वक याद करते हैं ।

महात्मा गांधी और उनके जीवन का अध्येयता होने के कारण मैंने बाबा साहब आंबेडकर और उनके जीवन का दूसरे रूप में अध्ययन किया है। हालांकि महात्मा गांधी और बाबा साहब अंबेडकर को लेकर आज समाज में मिथ्या प्रसंग अधिक सुने जाते हैं। जबकि सही बात तो यह है कि देश की आजादी में दोनों ने अहम योगदान किया। महात्मा गांधी सीधे तौर पर आजादी के आंदोलन में शरीक हुए और बाबा साहब आंबेडकर ने अपने दबे- कुचले समाज को जागृत करके अपना योगदान किया । जब मैं अहिंसा की दृष्टि से बाबा साहब के जीवन और आचरण को देखता हूँ, तो मुझे ऐसा लगता है कि महात्मा गांधी की तरह उन्होने भी अहिंसा का अपने जीवन में प्रयोग किया। अन्यथा कई बार ऐसे अवसर आए, जब हिंसा हो सकती थी, और अगर ऐसा हुआ होता, तो जिस काम के लिए बाबा साहब आज जाने जाते हैं, नहीं जाने जाते। विरोधी कामयाब हो जाते । अपने समय में उन्होने जितने आंदोलन चलाये, उसमें शामिल होने वाले सभी कार्यकर्ताओं के द्वारा अहिंसा धर्म का पालन किया गया । वे अहिंसा के प्रति बड़ी ही व्यापक दृष्टि रखते थे। उनकी अहिंसा मानवाधिकार से प्रेरित थी। बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की अहिंसा दृष्टि को समझने के लिए हमें पाँच बिन्दुओं के आधार पर उनकी जीवन यात्रा को समझना होगा ।

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का जन्म जिस जाति में हुआ था, वह महार जाति अनुसूचित जाति में आती थी। इसलिए उनकी जीवन यात्रा और अहिंसा को उनकी जाति से भी जोड़ना होगा। तत्कालीन परिस्थितियों और हालातों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति के लोगों की जिंदगी पशुओं की जिंदगी से बहुत विलग नहीं थी। जिस प्रकार पशुओं को चाहे जहां बांध दिया, जब मन किया, खाना दिया, मन किया तो पानी दिया, अगर थोड़ा बहुत भी मानस के खिलाफ हरकत कर दी, तो उसे दो – चार डंडे जमा दिये। अगर कुछ ज्यादा तकलीफ दे दी, तो उसे भूखा रख दिया। ऐसी ही दशा अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों की थी। भारत की उच्च जतियों और अंग्रेजों के जो भी आदेश होते, उसका उन्हें पालन करना पड़ता था। न करने, मुकरने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। इसी कारण मैला ढोने जैसे कामों के लिए भी अनुसूचित जाति के लोगों को चुना गया था। समाज में अपनी दयनीय स्थिति के कारण वे सबकी बातें और लाते दोनों सहते रहे और उफ तक नहीं किया। बाबा भीमराव अंबेडकर ने ऐसी विकट सामाजिक व्यवस्था में न केवल शिक्षा ग्रहण की, अपितु विदेश जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण की । यह सब ऐसे समय की बात है, कालेजों की बात तो छोड़ दीजिये स्कूलों में भी अनुसूचित जाति और जन जाति के बच्चों को घुसने नहीं दिया जाता था। इसी कारण उनके पिता की कर्म स्थली रत्नागिरी के स्कूलों में उनका प्रवेश ही नहीं हुआ । शिक्षा का महत्त्व समझने वाले उनके पिता उन्हे लेकर मुंबई चले गए, जहां अग्रेजों का प्रभाव होने के कारण बाबा साहब भीमराव अंबेडकर को दाखिला मिला और उन्होने मैट्रिक की परीक्षा पास की । इसके बाद बड़ौदा नरेश द्वारा स्कालरशिप मिलने से वे विदेश जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण कर सके । शिक्षा के ही दौरान ही नहीं, अपने पूरे जीवन उन पर, उनके समाज पर जातिपरक हिंसा होती रही । इसी कारण वे समतामूलक समाज के लिए आजीवन प्रयासरत रहे । उनकी अहिंसा प्रवृत्ति के परिणामस्वरूप ही उनके उस पत्र का नाम मूकनायक पड़ा, जिसको उन्होने 1919 में निकालना शुरू किया। उन्होने उस पत्र में साफ-साफ लिखा कि यदि भारतवासियों को ब्रिटिश शासन से मुक्ति चाहिए, तो उन्हे अनुसूचित जाति, जन-जाति के लोगों को पहले मुक्त कर देना चाहिए । अहिंसा को अपने जीवन में आत्मसात किए बाबा साहब अंबेडकर द्वारा अपने पाक्षिक पत्र का नाम मूकनायक रखना उनकी अहिंसात्मक प्रवृत्ति का ही परिचायक है । 20 जुलाई, 1924 को उन्होने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की। समतामूलक और अहिंसात्मक समाज की रचना पर बल देते हुए उन्होने कहा कि जब तक देश का इतना बड़ा तबका दीन-हीन दशा में पंगु बना हुआ है, तब तक यह सारा देश दीन हीन हाल में ही रहेगा ।

महात्मा गांधी उच्च वर्ग का हृदय परिवर्तन करने अनुसूचित जाति और जनजाति के प्रति हो रही हिंसा को समाप्त करना चाहते थे। लेकिन बाबा साहब अंबेडकर को विश्वास था कि समतामूलक समाज की स्थापना के लिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को सांस्कृतिक, धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में बिना सबल बनाए नहीं हो सकती । 1926 में महार जाति के अधिवेशन में बोलते हुए उन्होने कहा था कि जैसे जैसे अनुसूचित जाति जन जाति के हाथ में अधिकार आते जाएंगे, उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी। वैसे वैसे उनकी प्रगति होने लगेगी । उनके अहिंसात्मक विचार 1927 में दिये गए उनके भाषण में परिलक्षित होते हैं। महाड़ परिषद में शामिल होने के लिए इकट्ठा हुए एक बड़े समुदाय को संबोधित करते हुए उन्होने कहा कि आप लोग मृत जीवों के मांस खाना बंद करें। किसी का झूठा भोजन न करें । ऊंच नीच की भावना मन से निकाल दें। इतना कहने के बाद वे सभी चवदार तालाब पर पहुंचे और उसका पानी पीया । दबंग सवर्णों को उनका यह कदम नागवार गुजरा और उन लोगों ने वहाँ उपस्थित कार्यकर्ताओं पर हमला बोल दिया। जो मिला, सभी को मारा, लेकिन बाबा साहब का निर्देश था कि कोई हाथ नही उठाएगा। इसलिए वे लोगों को बुरी तरह पीट कर चले गए। बाबा साहब अंबेडकर को इतना मारा कि वे बेहोश हो गए, फिर भी न हाथ उठाया और न हाथ उठाने दिया । ऐसे समय में भी उन्होने अपने लोगो को समझाया कि इस समय आपे से बाहर मत होइए । अपने हाथ मत उठने दीजिये । अपने गुस्से को पी जाइए । मन शांत रखिए । हमें उनके वारों को सहन करना होगा और इन सनातनियों को अहिंसा शक्ति का परिचय करना होगा । 25 नवंबर, 1927 को उन्होने अपने समाज के लोगों को सत्याग्रह कर अर्थ समझाते हुए लिखा कि जिस कार्य से जन संगठित होते हैं, वह सत्कार्य है और उसके लिए जो आग्रह किया जाता है, वह सत्याग्रह है । हालांकि बाबा साहब ने अपने इस लेख में अहिंसा का नाम नहीं लिया, लेकिन यह सभी जानते हैं कि सत्याग्रह का मूल तत्व अहिंसा है । इसके बाद सवर्णों के दबाव में 4 अगस्त, 1927 को महाड़ नगरपालिका ने नया प्रस्ताव लाकर तालाब को सार्वजनिक घोषित करने वाले अपने पहले के निर्णय को निरस्त कर दिया । उस निर्णय के खिलाफ 25 दिसंबर 1927 को उन्होने फिर से महाड़ सत्याग्रह किया । महाड़ के लोगों को संबोधित करते हुए उन्होने कहा कि अगर हमने चवदार का पानी नहीं पिया, तो हमारी जान के लाले पड़ जाएंगे, ऐसी बात नहीं है। हम तो यह दिखा देना चाहते हैं कि औरों की तरह हम भी इंसान हैं। 26 दिसंबर, 1927 को उन्होने सत्याग्रहियों को समझाया कि सब लोग शांति से सत्याग्रह करेंगे और कितना भी कष्ट क्यों न सहना पड़े, क्षमा याचना करके वापस नहीं लौटेंगे । इससे साफ जाहीर होता है कि बाबा साहब अंबेडकर अहिंसा के व्यावहारिक पक्ष के हिमायती थे। क्योंकि शांतिपूर्वक जितने भी आंदोलन किए जाते हैं, उसकी पहली जरूरत यही होती है कि सभी लोग अहिंसा धर्म का पालन करेंगे । इस प्रकार के जितने भी सामाजिक आंदोलन उस समय हुए, बाबा साहब अंबेडकर की यही इच्छा रही कि वे सभी सत्याग्रही आंदोलन शांतिपूर्वक किए जाएँ। उन्हें यह अच्छी तरह पता था कि अगर हम अहिंसात्मक आंदोलन नहीं करेंगे, तो सवर्ण और तत्कालीन प्रशासन जिस पर सवर्णों का आधिपत्य है, दमनात्मक रवैया अपना कर न केवल उसे विफल कर देगा, अपितु बलपूर्वक उसे दबा कर अनुसूचित जाति और जन जाति के लोगों का मनोबल भी तोड़ देगा । अपने जीवन के अंतिम समय उन्होने बौद्ध धर्म ग्रहण करके भी यह सिद्ध कर दिया कि वे मानवतवादी और व्यावहारिक अहिंसा के समर्थक हैं।

अनुसूचित जाति और जनजाति के वर्तमान नेताओं को बाबा साहब भीमराव अंबेडकर के जीवन के इस पहलू से भी सबक लेना चाहिए । वे जो भी आंदोलन करें, वे सत्याग्रह के साथ – साथ शांति के प्रतीक भी हों, और उसमें सफल बनाने के लिए बाबा साहब भीमराव अम्बेकर की भांति अहिंसात्मक दृष्टि से पूरी रणनीति तैयार की जानी चाहिए । तभी सफलता मिलेगी और बाबा साहब ने जो समतवादी समाज की परिकल्पना की थी, वह साकार हो सकेगी ।

प्रोफेसर डॉ योगेन्द्र यादव

पर्यावरणविद, शिक्षाविद, भाषाविद,विश्लेषक, गांधीवादी /समाजवादी चिंतक, पत्रकार, नेचरोपैथ व ऐक्टविस्ट

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