कश्मीरी पंडितों के टीस के 30 साल:- (धनंजय सिंह)

आतंक की उस अंधेरी रात में यूं शुरू हुआ था पलायन
श्रीनगर:19 जनवरी 1990 को कड़ाके की ठंड थी। हब्बा कादल में शाम होते ही लोग अपने-अपने घरों में दुबक गए थे। संजय टिक्कू टीवी के सामने अपनी पसंदीदा कुर्सी पर जमे हुए थे। अभी उन्होंने टीवी देखना शुरू ही किया था कि अचानक पास की मस्जिद के लाउडस्पीकर से आवाजें आने लगीं। अगले कुछ घंटों में ये आवाजें और तेज हो गईं। इससे टिक्कू का परिवार बुरी तरह डर गया।
इस बारे में घाटी में बचे कुछ कश्मीरी पंडितों में एक संजय टिक्कू ने बताया कि आजादी के लिए लाउडस्पीकर से कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़ने का फरमान सुनाया जा रहा था। मुस्लिमों से सड़क पर उतरने को कहा गया। रात के 11 बजते-बजते धमकाने का सिलसिला और तेज हो गया था।
उधर, टिक्कू के घर से दो किलोमीटर दूर शहर के मुख्य इलाके में भी हल्ला मचा हुआ था। 46 साल के एक अधेड़ के दो मंजिला घर के बाहर यह शोरगुल कुछ ज्यादा ही था। यह देख वह सरकार में अपने संपर्कों को फोन करने में जुटा था। लेकिन, इसका कोई फायदा नहीं हुआ। नाम न छापने की शर्त पर उसने बताया, 'हमें घाटी छोड़ देने या मुसलमान बन जाने को कहा जा रहा था। या फिर मरने के लिए तैयार रहने को कहा गया।' रात गहरी होने के साथ ही सड़कों पर भीड़ भी बढ़ती जा रही थी।
यह वह समय था, जब इस शहर के लोगों के दिल में 1987 के विधानसभा चुनाव के विवाद की टीस गहरी हो चुकी थी। इसी बीच विवादित नौकरशाह जगमोहन को राज्य का राज्यपाल बना दिया गया। शहर में हो रहे शोर-शराबे के बीच फारुख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली सरकार के प्रशासन में फूट पड़ने की अफवाहें तेजी से फैल रही थीं। इन हालात का फायदा उठाकर जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के नेतृत्व में आतंकवादी घाटी में अपनी जड़ें गहरी करने लग गए थे। उनका मकसद कश्मीर को भारत से अलग करना था।
इस भयावह मंजर का सामना करने वाली आशा खोशा ने बताया, वह डरावना माहौल था। लोगों के इसी डर का फायदा आतंकी तत्वों ने उठाया। मुझे याद है हम लोगों में से किसी ने भी रातभर झपकी तक नहीं ली। ऐसा लग रहा था कि आज की रात हमारे भाग्य का फैसला हो जाएगा। मुस्लिम बहुलता वाले शहर के एक मुख्य इलाके में आशा की एक रिश्तेदार ने भी पूरी रात खौफ में गुजारी। उन्होंने खुद को अपनी बेटी के साथ एक कमरे में बंद कर लिया था। उन्हें भीड़ के किसी भी समय उनके घर में घुस आने की आशंका थी।
वह काली रात जैसे-तैसे बीती, लेकिन सुबह का उगता सूरज भी घाटी के 3,50000 कश्मीरी पंडितों के लिए अच्छी खबर लेकर नहीं आया। एक डरे सहमे परिवार ने सुबह होते ही अपने विश्वसनीय ट्रक ड्राइवर को बुलाया और हमेशा के लिए घाटी को छोड़ दिया। इस परिवार के मन में उस काली रात का इतना खौफ था कि श्रीनगर से जम्मू तक के आठ घंटे के सफर में किसी ने खाना तक नहीं खाया।
ऐसे हुई आतंक की शुरुआत
घाटी में आतंकवाद की पहली वारदात 14 सितंबर 1989 में हुई, जब वरिष्ठ वकील और भारतीय जनता पार्टी के नेता टीका राम टपलू की दिनदहाड़े श्रीनगर में उनके घर के बाहर ही गोली मारकर हत्या कर दी गई। हत्या से तीन दिन पहले टपलू अपने बेटे आशुतोष से मिलने दिल्ली गए थे। उन्होंने बेटे को मां का ख्याल रखने की हिदायत भी दी थी। आशुतोष के मुताबिक, मैंने अपने पिता को घाटी न लौटने को कहा था। लेकिन, उन्होंने यह कहते हुए मेरी बात नहीं मानी कि इससे दुश्मनों को लगेगा कि हम डर गए हैं। इस घटना के बाद यह परिवार 1996 में घाटी लौटा। तब आशुतोष की मां सरला ने अनंतनाग से विधानसभा का चुनाव लड़ा था। चुनाव के अगले ही दिन वे लौट गए।
सुनील शकधर के मुताबिक 1986 की गर्मियों में अनंतनाग र्में हिंदुओं के कई मंदिरों में तोड़फोड़ के साथ ही घाटी के हालात खराब होने शुरू हो गए थे। इसके बाद लक्षित हत्याएं और हमले शुरू हुए। हालांकि, इस संकट के पैदा होने को लेकर कुछ असहमतियां भी थीं। कश्मीरी पंडितों का एक बड़ा वर्ग मानता है कि बहुसंख्यक मुस्लिम समुदाय ने आतंकवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अनूप कौल के मुताबिक, हम मुगालते में थे कि सरकार, पुलिस और सेना हमारी है। ये मिलकर हमारी सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे। ऐसा सोचना हमारी गलती थी। दूसरा वर्ग पलायन के लिए तत्कालीन गवर्नर जगमोहन को जिम्मेदार ठहराता है, जिन्होंने पूरे घटनाक्रम पर कथित रूप से त्वरित प्रतिक्रिया नहीं की।
कश्मीर में तैनात रहे एक वरिष्ठ आईएएस वजाहत हबीबुल्ला का कहना है कि 1984 में चुनी गई सरकार को बर्खास्त कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के बाद ही घाटी में अलगाववाद के संकट की शुरुआत हुई थी। आगे चलकर पाकिस्तान ने भी इसका फायदा उठाया। उनके मुताबिक, राजनीतिक अस्थिरता और अलगाववादियों के सिर उठाने से कश्मीरी पंडित निशाना बनाए जाने लगे। चूंकि पंडित सरकार में बड़े ओहदों पर जमे थे, इसलिए जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट द्वारा यह कहा जाने लगा कि पंडित जो चाहते हैं वो उन्हें मिल जाता है। मुस्लिमों को कोई देखना तक नहीं चाहता।
1990 तक और उग्र हो गया था विरोध
जनवरी 1990 तक यहां पंडितों का विरोध और उग्र हो गया। सड़कों पर प्रदर्शन होने लगे। आतंकी बंदूकों के साथ सड़क पर मार्च कर रहे थे। सरकार के भीतर भी असंतोष बढ़ गया था। यहां तक कि चार जनवरी को घाटी एक अखबार 'आफताब' में आतंकियों का संदेश प्रकाशित किया था, जिसमें पंडितों को घाटी छोड़ने को कहा गया था।
पंडितों को शरण देने के लिए जम्मू और दिल्ली जैसे शहरों का आधारभूत ढांचा भी पूरी तरह तैयार नहीं था। घाटी की ठंडी वादियों में रहने के आदी हो चके विस्थापितों को जम्मू में रहने के लिए छोटे-छोटे टेंट मिले, जो गर्मियों में 40 डिग्री तापमान में आग उगलते थे। यहां भोजन और पानी भी बड़ी मुश्किल से मिलता था। जरूरी सामान की आपूर्ति भी ठीक से नहीं हो पाती थी। दिल्ली में शकधर और अन्य लोगों ने राहत कैंप बनाने के लिए सरकार में लॉबिंग शुरू की। फंड जारी करने के लिए फरवरी 1991 में लाल किला तक मार्च भी किया। मार्च में साउथ एक्सटेंशन, मालवीय नगर, पटेल नगर और अन्य जगहों पर कैंप स्थापित हुए। तीन महीने बाद सरकार ने प्रत्येक विस्थापित को 125 रुपए मासिक भत्ते की शुरुआत भी कर दी थी।
कुछ ने घाटी न छोड़ने का फैसला किया
जनवरी के अंत तक लाखों पंडित घाटी छोड़ चुके थे। लेकिन संजय टिक्कू जैसे कुछ लोग थे, जिन्होंने अपनीे माटी को नहीं छोड़ा। अगले दो से तीन महीनों में कुछ और प्रमुख कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी गई। कश्मीरी पंडितों के संगठन पनुन कश्मीर का अनुमान है कि हत्याओं का यह आंकड़ा 350 के करीब होगा। इसके बावजूद कुछ पंडितों ने घाटी न छोड़ने का फैसला किया।