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असंख्य घात-प्रतिघातों के बीच युगों बाद एक आशा की किरण, कश्मीर में 74 वर्ष के पण्डित रौशनलाल मावा ने 30 वर्षों बाद अपनी बन्द दुकान दुबारा खोली

असंख्य घात-प्रतिघातों के बीच युगों बाद एक आशा की किरण, कश्मीर में 74 वर्ष के पण्डित रौशनलाल मावा ने 30 वर्षों बाद अपनी बन्द दुकान दुबारा खोली
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चुनाव के असंख्य घात-प्रतिघातों के बीच युगों बाद एक आशा की किरण इस रूप में दिखाई पड़ी है, कि कश्मीर में एक पूर्व व्यवसायी 74 वर्ष के पण्डित रौशनलाल मावा ने 30 वर्षों बाद अपनी बन्द दुकान को दुबारा खोला है।

30 वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर हो कर पल-पल तड़पने की पीड़ा आप चाह कर भी नहीं समझ सकते। अपनी जड़ों से कटने की पीड़ा वही जानता है जिसकी जड़ें काट दी गयी हो। जड़ों से कटने की पीर जानता है वह बिहारी मजदूर, जिसकी माँ ने जङ्गल राज के दिनों में यह सोच कर उसे परदेश भेज दिया था कि पैसा कमाए न कमाए, कमसे कम जियेगा तो... जीने के लिए ही कश्मीरी भी भागे थे। दोनों की पीर एक है, या कहें तो बिहार का कश्मीर से पीर का नाता है।

पण्डित रौशनलाल मावा और उनके जैसे दस लाख लोग देश के अन्य हिस्सों में बैठ कर अपनी मातृभूमि की ओर किस ललचाई और कातर दृष्टि से देखते होंगे यह वही जानते हैं।

30 वर्ष बाद अपने घर वापस आने का अर्थ समझ रहे हैं? इतनी लंबी प्रतीक्षा तो भगवान श्रीराम को भी नहीं करनी पड़ी थी। वे भी चौदह वर्ष में लौट आये थे...

तनिक सोचिये तो, 30 वर्ष बाद अपने खण्डहर से हो चुके घर में लौटी एक बुजुर्ग महिला क्या ढूंढती होगी? घर का वह सिलबट्टा, जिसपर पहली बार उसने हल्दी कुटी थी... घर का वह कमरा जिसमें उसने अपने बेटे को जन्म दिया था... घर की वह देहरी, जहाँ खड़ी हो कर वह रोज अपने पति को दुकान जाते देखती होगी... वह आंगन, जिसमें उसके बच्चों ने चलना सीखा होगा... या घर के वे ताले, जिनकी चाभियों का गुच्छा दे कर किसी दिन उसकी सास ने कहा होगा, "लो बहु! सम्भालो अपने घर को..." या वह सड़क, जिस पर भयभीत सी भागती उस महिला को उसी के पड़ोसी ने यह कहते हुए छेड़ा होगा, "अरे अपनी बेटी को तो छोड़ते जाओ..."

पता नहीं उस बुजुर्ग महिला को वह सब मिला भी होगा या नहीं! तीस साल बहुत होते हैं न...

अखबार वालों ने लिखा है कि दुकान खोलते समय रो पड़े पण्डित रौशनलाल... विवाह के छह महीने बाद ही मायके लौटने वाली लड़कियाँ माँ से लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगती हैं, रौशनलाल तो तीस वर्ष बाद लौटे थे। कैसे न रोते? रौशनलाल का दुर्भाग्य है कि तीस साल बाद उन्हें वहाँ एक भी ऐसा कन्धा नहीं मिला होगा जिसपर सर रख कर वे रो पाते... कौन होगा वहाँ? भाई, पटीदार, मित्र? कोई तो नहीं... अभाग यही न है...

हाँ, यह तय है कि कल कोई दूसरा रामलाल, श्यामलाल वापस श्रीनगर जाए तो रोने के लिए उसे रौशनलाल का कन्धा मिलेगा।

मैं नहीं जानता कि रौशनलाल जी की घर वापसी से मुझे कितना उत्साहित होना चाहिए। मैं नहीं जानता कि उनको देख कर कल कितने लोग वापस अपने घरों की ओर लौटेंगे। मैं यह भी नहीं जानता कि कल वापस लौटने वालों में कितनों को उनका घर वापस मिलेगा... पर मैं इतना जानता हूँ कि कश्मीर में एक आशा तो जगी है।

कश्मीर में किसी रौशन लाल की घर वापसी इस सदी का सबसे सुंदर समाचार है। इसका स्वागत होना चाहिए। जैसे इनके दिन लौटे वैसे उन दस लाख लोगों के भी दिन लौटें... ईश्वर...

कश्मीर में मिठाई की दुकान उस कश्मीरी बूढ़े ने खोली है, पर इस खुशी में मिठाई आज यह बिहारी खायेगा। बना रहे मेरा देश....

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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