महादेव की मानस पूजा:- (प्रेम शंकर मिश्र)

पूरा का पूरा अध्यात्म जगत - भावों से भरा पड़ा है । आज के इस कलिकाल की व्यस्त आपाधापी मे साधनाभाव या समयाभाव के कारण यदि हम विस्तृत पूजन न कर पायें तो आद्य गुरु श्री शँकराचार्य जी ने अति सुन्दर मानसिक पूजा का विधान बताया है -
जो कि अति भावपूर्ण होते हुये श्रुतिपरक भी है जिसमे आप को कुछ भी नही करना है सिर्फ मानसिक रूप से भावना ही करनी है । भौतिक रूप से पूजन करने के लिये तो अनेकों खटपट करना पड़ती है , फिर भी कुछ न कुछ पूजन सामग्री या अन्य की कमी रह ही जाती है । जब कि भगवान तो प्रेम की भावना के आधीन हैं , न कि व्यर्थ के आडम्बर के , उन्हें तो प्रेम से अर्पित किया गया एक फूल भी स्वीकार है ।
" पत्रं पुष्पं फलं तो़यं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्त्युपह्रतमश्नामि प्रयात्मन: ।।
" When one offers to me with devotion a leaf , a flower , a fruit , water - that I eat . Offered with devotion by the pure minded . "
यदि भावना ही नही है तो सारे आयोजन , प्रयोजन , सब व्यर्थ हैं , जब कि भावना से एक पत्ता या एक पुष्प भी उन्हें सहर्ष स्वीकार हैं । आद्यगुरु शंकराचार्य ने इसी भाव जगत की महिमा को प्रधान्य देते हुये ' शिव मानस पूजा स्तोत्रम् ' की रचना की । भाव जगत मे जब भक्त भावविभोर हो कर धूर्जटी महादेव की मानसिक पूजन करता है तब वह " स्व " को विलीन कर महादेव शिवमय हो मानसिक कल्पना करता है ।
महादेव उत्तम अासन पर योगासन लगाये निर्मल पदमासन लगाये बैठे हैं । उनका समस्त सुगठित सुन्दर शरीर अनेकों आभूषणों की कांति से शोभायमान हो रहा है । नीले कण्ठ वाले महादेव का शरीर चमत्कृत श्वेत आभा लिये स्मित मुस्कान की मुद्रा मे है । महादेव के नेत्र खिले कमल के जैसे प्रतीत हो रहे हैं । नागों का कगंण , वासुकि सर्प का हार , चार भुजाओं से महादेव अत्यन्त सुशोभित हो रहे हैं । महादेव के दोनो हाथ अभय मुद्रा मे है एक हाथ मृग मुद्रा एवं एक हाथ मे टंक धारण किये हुये हैं ।
रत्नै: कल्पित मासनं हिमजलै: स्नानं च दिव्याम्बरम् ।
नाना रत्न विभूषितं मृगमदा मोदांकित चन्दनम् ।।
- अमूल्य दुर्लभ रत्नों ( नवरत्न - हीरा , माणिक , पुखराज , मूँगा ... ) की कल्पना कर के उनसे तो महादेव का आसन बनाया । अब अभिषेक के लिये साधारण नही कैलाश से विशेष रूप से हिम अर्थात बर्फ़ मंगवा कर उस बर्फ़ के जल से महादेव को स्नान करा कर दिव्य वस्त्र पहनाये ( अभिषेक प्रिय: - हलाहल पान कर नीलकण्ठ महादेव - कालकूट विष की अग्नि से तप्त होने के कारण ठण्डी वस्तुँए उन्हे अत्यन्त प्रिय हैं इसीलिये महादेव ने अपना मुख्यालय हिमाच्छादित कैलाश को बनाया है ) अनेकों तरह के रत्न जड़ित आभूषण धारण करवा कस्तूरी मृग से प्राप्त ' मृगमद ' कस्तूर को चन्दन के साथ घिस कर महादेव को लगाया ।
जाती चम्पक विल्वपत्र रचितं पुष्पं च धूपं तथा ।
दीपं देव दयानिधे पशुपते ह्रत्कल्पितं गृह्यताम् ।।
पारिजात ( स्वर्ग मे पाया जाने वाला वृक्ष ) पुष्प , चम्पक के पुष्प और ताज़े बिना कटे फटे मुलायम बेल पत्रों से श्रृंगार कर सुगंधित ( अगरु ) धूप समर्पित करी । दया के अखण्ड भण्डार वाले पशुओं के पति ' पशुपति ' महादेव को हम ने हमारे ह्रदय रूपी दिये से दीप को प्रज्ज्वलित करा महादेव को दीप दर्शन कराया ।
सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचित् पात्रे धृतं पायसं ।
भक्ष्यं पन्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।।
- क्राकरी भी साधारण नही - सोने , चाँदी , नवरत्न जड़े बर्तनों वाली - भक्ष्य अर्थात खाने वाले , चाटने वाले , चबाने वाले , पीने वाले अनेकानेक सामग्री - शुद्ध गौ दुग्ध ( भौतिकता मे तो बड़ी खटपट करनी पड़ेगी - मालूम नही दूध गाय का मिल रहा है या भैंस का , भैंस तो जानवर है - गौ माता हैं परंतु मानसिक पूजन मे तो शुद्धता अवश्य ही - मिलेगी ही मिलेगी , मानसिक रूप से सोचना तो ही है ) , दही , घी तथा अनेकों क़िस्म क़िस्म के फल हमारे मन से बनाये गये विचारों से युक्त ( सोचने मे तो कोई बन्धन है ही नही । संख्या का भी टोटा नही कि कितना कितना लेना है - जितना जितना हाथों मे आ सके , दोनो दोनो हाथों से भर भर के पुष्प या उतना उतना यथायोग्य लिया जा सकता है , इसमें तो कंजूसी ता भी कोई औचित्य नही है । फिर यह कोई देव पूजन तो है नही - देवाधिदेव ' महादेव ' पूजन हो रहा है ) इस प्रकार अनेकों अनेक पदार्थों को महादेव की सेवा मे अर्पित कर स्वीकार हेतु निवेदित किया ' तुम्हीं निवेदित भोजन करहिं .प्रभु प्रसाद पट भूषण धरहिं ' ।
शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्जवलं ।
ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ।।
- अब भोजन भी साधारण नही , ५६ भोग नही , अरे ! सिर्फ १०८ तरह की तो अलग अलग प्रकार की सब्ज़ियाँ ही बनायी गयी हैं । अच्छा अब भोजन के उपरांत जो पीने के लिये जल दिया वह जल भी साधारण जल न हो कर कर्पूर सुवासित शीतल रुचि बढ़ाने वाला जल है । अब महादेव ने भोजन कर लिया तो मुखशुद्धि तो करानी पड़ेगी इसलिये हे महादेव ! जैसे आप भक्तों के मन को विरचित करते हैं ' ताम्बूलम् ' बिल्कूल वैसा ही पान स्वीकार करने के लिये पुन: निवेदन किया - हे महादेव ! आप पान आरोगो ।
छत्रं चामरयोयुर्गं व्यंजनकं चादर्शकं निर्मलं ।
वीणाभेिरमृदंगकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।।
- भोजन प्रसाद आरोगते समय महादेव को गर्मी न लगे ( किसी किसी को भोजन करते समय या भोजन के बाद बड़ी गर्मी लगती है ) इसलिये चर्मयुत पंखा भी झला ( हिलाया ) जिसकी पुष्टता के लिये शीशा ( दर्पण ) भी दिखलाया जिसमे महादेव को एक भी स्वेद बिन्दु ( पसीने की बून्द ) नही दिखी । अब भोजन के बाद कुछ मनोरंजन हो जाये इसलिये महादेव के आमोद प्रमोद के लिये वीणा , भेिर , मृदंग ( पखावज ) , वादनद , गीत गायन एवं नृत्य का आयोजन करा ।
साष्टांग प्रणत्: स्तुतिबर्हुिवधा ह्येतत्समस्तं मया ।
संकल्पेन समर्पितं तव् विभो पूजां गृहाण प्रभो ।।
- महादेव की अनेकों स्तुतियों द्वारा - जय शँभो ! जय शिव शँभो !! जय जय महादेव शँभो !!! अपने शरीर के आठों अंगों ( साष्टांग - सिर , माथा , नाक , ठुड्डी , छाती , कमर , घुटने , पंजे ) को भूमि मे स्पर्श करा नमस्कार अभिवादन किया । यह सब का सब हमारे मानसिक कल्पित विचार हैं , यही हमारी स्तुति है , और यही हमारी ओर से की गयी महादेव आपकी पूजा है , यह हमारी सेवा - हे महादेव आप ही को समर्पित है कृपया आप इसे स्वीकार करें ।
आत्मा त्वं गिरिजा मति सहचरा: प्राणा: शरीरं गृहं ।
पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थिति: ।।
- हे महादेव ! इस शरीर रूपी घर मे मेरे प्राणों की सहचर - आत्मा तो साक्षात माता पार्वती जी ही हैं । हमारे इन मानसिक विचारों को आपकी सेवा के अतिरिक्त कहीं स्थान न मिले ये नित्य निरंतर आप ही की सेवा की ओर सदैव लगा रहे । किसी भी प्रकार के भोग , विषय , रचना , स्वाद , सुखों की ओर हमारा मन जा भी न सके । हे महादेव जब हम शयन ( सोयें ) करें - तो वह और कुछ न हो आप ही की समाधि मे रहें ।
संचार: पदयो: प्रदक्षिणविधि: स्तोत्राणि सर्वागिरो ।
यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ।।
- हम जहाँ जहाँ भी पैरो से चलें - वहाँ वहाँ हम आप ही की प्रदिक्षणा ही कर रहे हों । इसी तरह - जो जो भी हम बोलें , वह सब भी आप ही के स्तु्तिपरक श्लोक ही बोल रहे हों । संक्षेप मे तो सार रूप यही है - हे मेरे महादेव ! भोलेनाथ ! हम जो जो भी कर्म कर रहे हों वह सब के सब आप ही का आराधना कर रहे हों ।
करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा , श्रवणनयनजं वाँ मानसं वापराधम् ।
विहितंविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व , जय जय करुणाब्धे श्री महादेव शम्भो ।।
- हे उमापति , हे गिरिजापति हे महादेव - हम अपने दोनो हाथों को जोड़ कर आपके चरणों मे विनती करते हैं कि , अगर हमारे ( सामान्यतः सभी - सभी कुछ अच्छा अच्छा करने के बाबजूद भी कहीं न कहीं कोई न कोई किसी भी प्रकार की चूक तो हो ही जाती है ) - करने मे , कहने मे , सुनने मे , या अन्य कोई भी किसी भी प्रकार की जाने या अनजाने मे मानसिक अपराध हो गया हो तो हमें अाप सभी प्रकार से क्षमा कर दीजियेगा - हम आपकी हर प्रकार से शरण मे हैं - शरण मे हैं - शरण मे हैं , हे करुणानिधान महादेव करुणा करें - करुणा करें - करुणा करें - कृपा करें , कृपा करें ' कृपा मात्र केवलम् ।
हे पन्चानन करुणा वरुणालय श्री महादेव शम्भो आपकी जय हो , जय जय हो , जय ही जय जय हो ।