मैदानोें से क्यों अलग होती हैं पहाड़ों की आपदाएं:- (धीरेन्द्र कुमार दुबे)
पहाड़ों में प्राकृतिक आपदा क्षति मूल्यांकन और उस पर आधारित प्रभावितों के लिए आर्थिक व पर्यावरणीय भरपाई, एक सीधी गणित नहीं हो सकती है। वहां व्यक्तियों, समुदायों और परिवारों की प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरता, मैदानों की अपेक्षा ज्यादा होती है। यह बाहरी जगत से मुश्किल संपर्क-संबध और आर्थिक कमजोरियों के कारण भी होता है। आपदाओं में जब प्राकृतिक संसाधन स्रोत नष्ट या क्षीण हो जाते हैं, तो राष्ट्रीय मानकों के अनुसार यह सामुदायिक क्षति होती है, और यह व्यक्तिगत क्षति के साथ नहीं जोड़ी जाती। परंतु किसी पहाड़ी परिवेश में आपदाएं स्थानीय परिवारों की आर्थिकी, आजीविका विकल्प व उनके घरों, खेतों, जानवरों आदि की सुरक्षा पर भी असर डालती हैं। इसलिए वहां जंगल, जल-स्रोतों जैसे प्राकृतिक संसाधनों की क्षति वास्तव में सामुदायिक क्षति के साथ-साथ व्यक्तिगत क्षति भी होती हैं।
पहाड़ों में अमूमन आबाद गांवों से अलग, अलग-अलग ऊंचाइयों में या कई बार दूसरे ही सूक्ष्म जलागम क्षेत्र में उस गांव के खेत, जंगल, छानियां, चुगान क्षेत्र व जल-स्रोत होते हैं। वहां ऐसी भी स्थितियां आ सकती हैं, जब गांव तो आपदा में सुरक्षित बच जाएं, लेकिन उन गांवों के सामूहिक जंगल, पेयजल-स्रोत या खेत नष्ट हो जाएं। पहाड़ों में निर्माण-कार्यों में छिपी कीमत भी शामिल होती है। यानी इसका आकलन सामने दिखने वाली क्षति में नहीं होता। पहाड़ों में लगभग सभी निर्माण-कार्यों में, चाहे वे मकानों, दुकानों, खेल मैदानों या सड़कों के हों, यह लागत लगती है। ढलावों पर निर्माण के पहले चौड़ी समतल जमीन पाने के लिए पहाड़ को पीछे गहराई में काटना पड़ता है, तब जाकर निर्माण के लिए सौ-दो सौ मीटर समतल जगह मिल पाती है। इस काम में हजारों-लाखों रुपये लग जाते हैं। आगे भी उस आधार को पाने के लिए गहराई से ऊपर तक बड़े-बड़े पत्थरों की चिनाई करके दीवार जैसी बनानी पड़ती है। उत्तराखंड में स्थानीय लोग इन्हे पुस्ता कहते हैं। इनके निर्माण में भी हजारों-लाखों रुपये तक खर्चा आता है। सीढ़ीनुमा खेतों या नई टिहरी, मसूरी, नैनीताल जैसे शहरों के बसने में इन पुस्तों का बहुत महत्व रहा है।
पहाड़ों में क्षति आकलन के तरीके भी अलग होते हैं। मैदानों में हवाई सर्वेक्षण कुछ हद तक जमीन पर नुकसान के क्षेत्रों का जायजा दे सकते हैं, क्योंकि नुकसान का क्षैतिजिक विस्तार मुख्य होता है। मगर पहाड़ों में लंबवत नुकसान भी बहुत महत्व रखता है। स्थिर ढलानों के नुकसान से भविष्य के नए भूस्खलन क्षेत्र बनते हैं, जिसका सीधा जायजा किसी हवाई सर्वेक्षणों से नहीं लग सकता है। वहां बादल फटने, भूस्खलन, बाढ़ जैसी आपदाओं में कई बार जमीन के बड़े-बड़े खंड हमेशा के लिए टूटकर अलग हो जाते हैं। वहां जाने पर या हवाई सर्वेक्षणों में आपको कुछ भी नहीं दिखेगा। जमीन का यह टूटा क्ष्ोत्रफल नक्शे व स्थानीय जमीन से सदा के लिए खत्म हो जाता है। बिना रिकॉर्डों व नक्शों को देखे या जमीन के किनारे तक पहुंचे बिना इसका आकलन नहीं किया जा सकता, न इसके लिए राहत तय की जा सकती है। ऐसी जमीन, जो आपदा के बाद ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगी, वह सरकारी जमीन भी हो सकती है और निजी जमीन भी।
पहाड़ों में औसतन 60 प्रतिशत से ज्यादा भूभाग में जंगल है। इन पर किसी भी प्रकार के निर्माण-कार्यों के लिए केंद्र की अनुमति लेनी होती है। यह अनुमति कानूनों व पर्यावरणीय कारणों से मुश्किल होती है। इसी कारण पहाड़ों में बरसों तक पेयजल, स्कूल, अस्पताल, सड़क, बिजली आदि की योजनाएं शुरू नहीं हो पातीं। इसलिए आपदा के बाद के पुनर्वास व निर्माण-कार्यों में केंद्र को वन भूमि उपयोग के मानकों में भी पहाड़ों में बदलाव के प्रावधान करने होंगे। पहाड़ी क्षति आकलन को भारत के भूभौमिकीय यथार्थ के संदर्भ में भी समझे जाने की आवश्यकता है। पहाड़ों की आपदाओं से मैदानी क्षेत्रों की परिसंपत्ति, कृषि उपज व संसाधन आदि भी क्षतिग्रस्त होते हैं, इसलिए मैदानी आपदाओं के निदान ढूंढ़ने के लिए पहाड़ों में भी आर्थिक व मानवीय संसाधनों पर व्यय करने की जरूरत है।