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लेख

डांस बार के सन्दर्भ में महिला विमर्श -डॉ. मनीष पाण्डेय

हाल ही में माननीय उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र में डांस बार के समर्थन में कहा कि सड़क पर भीख मांगने और कुछ गलत करने से अच्छा है कि महिलाएं डांस करके अपनी रोजी रोटी कमाएं। इसके साथ ही प्रतिबन्ध की जगह नियमन को महत्वपूर्ण बताया। इससे कुछ महीने पूर्व भी उच्चतम न्यायालय ने महाराष्ट्र सरकार द्वारा शायद जानबूझकर पेश किये गए कमजोर क़ानूनी तर्कों को दरकिनार करते हुए डांस बार को लाइसेंस जारी करने का आदेश यह उद्धृत करते हुए दिया कि डांस बार भी एक प्रकार की कला है,जो सदियों से सम्मानित मानी जाती रही है और अनुच्छेद 19 के तहत् स्वीकृत भी है। देश के ही कुछ राज़्यों में शराब को प्रतिबंधित करने पर बड़ी प्रसंशनात्मक चर्चा है। बार भी एक प्रकार का मदिरालय है, जहाँ धनिक वर्ग उसके साथ युवा महिलाओं के नृत्य एवं अभिव्यक्ति में कामुकता का लुत्फ़ उठाना चाहता है। समाज व्यापक बदलाव के दौर में है। वैश्वीकरण और बाज़ार अर्थव्यवस्था में वास्तविकता यही है, कि इसे नियंत्रित नही किया जा सकता। बाज़ार की अपनी चाल है, वही समाज का चरित्र और मूल्य अपने मुनाफ़े के हिसाब से तय करता है। इस हिसाब से इसे नैतिकता के परिप्रेक्ष्य से बांधने के सवाल पर प्रश्न खड़े हो सकते हैं लेकिन इसके सामाजिक परिणामों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है और न ही नैतिकता के व्यापक परिप्रेक्ष्य को उठाकर समाज के अन्य क्षेत्रों की गिरावट से तुलना कर बार डांस के दूरगामी दुष्परिणामों को झुठलाया जा सकता है।
फ़्रान्स की चर्चित नारीवादी लेखिका सिमोन ने कभी महिलाओं के तमाम परम्परागत कार्यों की आलोचना करते हुए कहा कि स्त्री के पास ऐसे विकल्प ही नहीं होने चाहिए। यदि उनके पास यह विकल्प होगा तो बहुत सी उसे चुन लेंगी। इस मामले में भी यह वाक्य बड़ा प्रासंगिक है। बार डांस का विकल्प होने पर बहुत सी महिलाओं को स्वेच्छा अथवा विवशता में इसे चुनना पड़ेगा। व्यक्ति की अस्मिता के लिए अपमानजनक स्थिति है कि कोई एनर्जी ड्रिंक्स, वाइन, स्कॉच, रम, वोदका और सिगरेट के धुएँ में महिलाओं के नृत्य में अपने अहं को संतुष्ट करे। पिछले 10 वर्षों से महाराष्ट्र में डांस बारों पर प्रतिबन्ध है, जिसकी विशेष सामाजिक और मानवीय वजहें हैं। हालाँकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मोरल पोलिसिंग को लेकर एक वर्ग की चिन्ता और समर्थन भी है, फ़िर भी इसके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले दूरगामी परिणाम की अनदेखी नहीं की जा सकती। व्यावहारिक रूप से देखा जाये तो बार डांसर्स अपेक्षाकृत युवा होती हैं। प्रतिबन्ध के वक्त जिनकी उम्र 25 वर्ष की थी, वह अब 35 वर्ष की होंगी और जो 30 की रही होंगी वह 40 वर्ष की हो चुकी होंगी, तो यह निश्चित है, कि नए लाइसेंस मिलने के बाद बार में लड़कियों की नई खेप लाइ जायेगी, जो स्वयं कुछ वर्षों के बाद अपने शारीरिक ढलान के पश्चात उसी स्थिति में होंगी, जहाँ होने का तर्क इसके प्रतिबन्ध लगने के बाद का दिया जाता है। वह फिर शायद वेश्यावृत्ति और बिकने के लिए मजबूर होगी, जिसे यह समाज अपरिहार्य मानकर अपनी वासनात्मक संतुष्टि करता है। पुरानी बार बालाएं तो निश्चित ही अपनी तथाकथित योग्यता खो चुकी होंगी। हालाँकि बौद्धकाल की चर्चित वैशाली की नगर वधुओं की कथा से लेकर दक्षिण की देवदासियों एवं वर्तमान की बॉलीवुड अभिनेत्रियों तक इनकी सामाजिक प्रतिष्ठा रही है, लेकिन आम्रपाली से लेकर दक्षिण की देवदासियों एवं परवीन बॉबी और प्रत्युषा बनर्जी तक की मनः स्थिति और हालात को कौन समझना चाहता है? हम 12वीं सदी में बेशक नही जी रहे लेकिन आज के ही समाज में वह कौन है जो बार बालाओं को सम्मान की नज़र से देखता है और कौन तथाकथित सम्मानित व्यक्ति उन्हें अपने परिवार में शामिल करने का साहस कर सकता है! जो भी ऐसा कर सकता है, वह करे बार डांस और शहर से लेकर गाँव तक में होने वाले आर्केस्ट्रा की महिलाओं के अश्लील नृत्य और उसके पीछे की मनोदशा का समर्थन! इसे सिर्फ कला या व्यक्तिगत अभिरुचि या रोज़गार के आवरण से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यह समाज में विचलन का परिणाम है।यही तर्क तो वेश्यावृत्ति को भी वैधता देने की मांग में भी छिपा है। पारसंस जैसा समाजशास्त्री इसे विवाह बचाने की द्वैतीयक संस्था की अपरिहार्यता स्पष्ट करते है, लेकिन स्त्री जाति के गौरव के लिए यह विकल्प क्यों होना चाहिए? राज्य की ज़िम्मेदारी है, कि वह अपने नागरिकों को सुरक्षा, संरक्षा एवं सम्मानित रोज़गार मुहैया कराये। इस दृष्टि से यह प्रतिबंधित होनी चाहिए और रोजगार के तमाम नए विकल्प पैदा किये जाने चाहिए। अगर ऐसा नहीं है तो फिर गुजरात और बिहार जैसे राज़्यों में शराब पर लगे प्रतिबन्ध पर भी सवाल खड़े होने चाहिए। एक दृष्टि में प्रतिबन्ध दमनकारी है लेकिन मूल्यगत बदलाव में इसका भी अपना एक महत्व है। समय और परिस्थिति के अनुरूप ही मानदंड तय होते हैं तो फिर सकारात्मक उम्मीद की जा सकती है कि इन प्रतिबंधों से व्यक्ति की सोंच बदलेगी और यह भी एक तथ्य है कि समय के साथ कानूनों को सामाजिक स्वीकृति मिलती रही है।
स्त्री को कला की आड़ में मनोरंजनात्मक एवं बाज़ार का उत्पाद बनाने में उदारीकरण की नीतियों का बड़ा हाथ रहा है। यह आधुनिक जीवन शैली का अंग बन गया है। महिलाएं स्वयं भी काफी सीमा तक इन परिस्थितियों के लिए दोषी हैं। उनकी सोंच भी उसी पितृसत्तात्मक सांचे में ढल रही है, जिसे सारी समस्याओं का दोषी का माना जाता है। उनकी प्रस्थिति और भूमिका में तेजी से हो रहे बदलाव से बड़ा असमंजस पैदा हो गया है। समाज में भूमिकाओं के हो रहे बदलाव से सामंजस्य बिठाने में स्त्री-पुरुष दोनों का एक बड़ा हिस्सा अवसाद का शिकार हो रहा है। इन सबके बीच अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से अभावग्रस्त परिवारों की युवा लड़कियों की, देश के चमकते हुए शहरों से लेकर गांवों तक में, शारीरिक नुमाइश की जाती है और ऐसे में इन लाखों की तुलना किसी बॉलीवुड अभिनेत्री, मॉडल, डांसर या कलाकार से करना न्याय नहीं है। शराब पर प्रतिबन्ध जायज है तो उसी से जुड़ा बार व्यावसाय सही नहीं हो सकता। शराब से जुड़े लोगों के सामने भी प्रतिबन्ध के बाद रोज़गार की समस्या खड़ी है, तो क्या इस आधार पर यह जायज है? बार डांस बनने में स्वेच्छा और दबाव के अंतर की पहचान करना भी बड़ा दुष्कर काम है और रोज़गार का सवाल सिर्फ यहीं तक सीमित भी नहीं है।
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