भारत को जितना गंगा ने देखा उतना क्या किसी ने देखा ...
BY Suryakant Pathak8 Aug 2017 1:00 PM GMT

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Suryakant Pathak8 Aug 2017 1:00 PM GMT
कल शाम को अकेले अस्सी घाट पर बैठे थे। अकेलापन भी कभी कभी बहुत सुकून देता है।सब जोड़े में थे, सो एक दूसरे में व्यस्त थे, मैं अकेला था, सो गंगा को निहार रहा था। गंगा माँ है, व्यक्ति अपने जोड़ीदार से ऊब सकता है, पर माँ बेटे को ऊबने नहीं देती।
मैं सोच रहा था, क्या नहीं देखा गंगा ने। भारत का जन्म, उसका उत्थान, पतन, फिर पुनरुथान; सब गंगा की आँखों के सामने हुआ है। भारत को जितना गंगा ने देखा उतना अन्य किसी ने नहीं देखा। "ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते.." से "ॐ साईं नमो नमः" तक की लंबी यात्रा की एकमात्र साक्षी रही है गंगा। गंगा ने अपने तट पर अरबी तलवारों के समक्ष आत्मोत्सर्ग करते तपस्वी योद्धाओं को देखा, तो क्रूर तलवारों के भय से कलमा पढ़ते निरीहों को भी देखा। फिर उन्हीं तटों पर सुदूर पश्चिम के गोरों को "ॐ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु..." का जाप करते भी देखा। गंगा ने अपने तटों पर द्वैत और अद्वैत का द्वन्द देखा, तो दोनों को एक साथ "विश्व का कल्याण हो" का उद्घोष करते भी सुना। गंगा ने सनातन से उलझते बौद्ध को देखा, तो सनातन में विलीन होते बौद्ध की साक्षी भी वही रही। भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ, जिसे गंगा ने न देखा हो। गंगा आज भी भारत को देख रही है। उस दोमुहे भारत को, जो एक तरफ उसे माँ कहता है तो दूसरी तरफ अपना सारा अवशिष्ट उसी में फेंकता है। मैं सोचता हूँ, प्रदूषण के कारण जहर हो चुकी गंगा आज के भारत को किस तरह देखती होगी?
दो दिन पहले मध्य रात्रि को चंडीगढ़ में एक लड़की के साथ अभद्रता होती है, तो " यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवताः " भजने वाला भारत दो भागों में बंटा दीखता है। इस विभाजन से कोई पीड़ा नहीं, किसी भी विषय पर बुद्धिजीविता का दो हिस्सों में बटना उस संस्कृति की जीवंतता का चिन्ह है। पर राष्ट्र की बुद्धिजीविता वैचारिकी की जगह राजनैतिक आधार पर विभाजित हो तो यह राष्ट्र के दुर्भाग्य की पराकाष्ठा होती है। क्या इससे बड़ा भी दुर्भाग्य हो सकता है, कि विमर्श के केंद्र में स्त्री का अपमान नहीं, बल्कि आरोपी की राजनैतिक स्थिति है? सत्ता के समर्थक आरोपी के पक्ष में सिर्फ इसलिए खड़े हो जाते हैं, क्योंकि वह उनके पसंदीदा राजनैतिक दल का सदस्य है, तो सत्ता के विरोधी सिर्फ इस लिए मुखर हैं क्योंकि उन्हें विरोध का एक अवसर मिला है। यह अपनी तरह का एक अलग ही विमर्श है, जिसके केंद्र में विचार नहीं, बल्कि राजनीति है। पक्ष और विपक्ष ऐसे लड़ रहे हैं जैसे वे एक स्वतंत्र व्यक्ति नहीं, बल्कि राजनैतिक दलों के गुलाम हैं। उनका अपना कोई विचार नहीं, उनकी अपनी कोई सोच नहीं, जो है सो राजनीति ही है।
अपने तटों पर दर्शन के सूत्रों पर असंख्य विमर्श देख चुकी गंगा ने क्या भारतीय इतिहास के किसी कालखण्ड में भी देश की बौद्धिकता का ऐसा पतन देखा होगा?
गंगा अगर उत्तर देती तो पूछता- असंख्य बर्बर आक्रमणों को झेलने के बाद भी स्वयं को बचा लेने वाले हम, इस स्वतंत्र कालखण्ड में ऐसे क्यों हो गए माँ?
पर गंगा उत्तर कब देती है। वह तो चुपचाप राष्ट्र को निहारती रहती है।
मैं हाथ जोड़ कर उठा हूँ। माँ, हमारी रक्षा करो... हमारी बुद्धिजीविता का पतन हमें ले डूबेगा।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।
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