स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि पर विशेष : मोची मछुआरों और भंगी के दिल से नए भारत का उदय हो…
BY Suryakant Pathak4 July 2017 3:57 AM GMT

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Suryakant Pathak4 July 2017 3:57 AM GMT
आज ४ जुलाई को स्वामी विवेकानंद जी की पुण्यतिथि है। आज ही के दिन 1902 में, 39 साल की आयु में स्वामी जी का देहांत हो गया था।
स्वामी विवेकानंद हर तरह की विविधता के समर्थक थे। बहुलता पर आधारित राष्ट्रवाद उनका लक्ष्य था।उनका कहना था कि-
हल पकङे हुए किसानो की कुटिया से नए भारत का उदय हो…मोची मछुआरों और भंगी के दिल से नए भारत का उदय हो… पंसारी की दुकान से नए भारत का जन्म हो… बगीचों और जंगलो से उसे निकलने दो… पर्वतो और पहाङों से उसे निकलने दो…
विवेकानंद जी का मानना था कि, नैसर्गिक और स्वस्थ राष्ट्रवाद का विकास तभी होगा, जब न सिर्फ धर्मों के बीच, बल्की पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों के बीच बराबरी का आदान-प्रदान हो।
1893, में शिकागो की धर्मसभा में दिया गया विवेकानंद जी का भाषण उनकी विश्व बंधुत्व की सोच को बिलकुल स्पष्ट करता है। उनकी पहली पंक्ति थी, "अमेरिकी बहनों और भाइयों।" जो विश्व को एक सूत्र में एक दृष्टी से देखता है, ऐसे महान व्यक्ति को यदा-कदा हिन्दु राष्ट्रवाद की बहस में एक उग्र धार्मिक राष्ट्रवाद की परिकल्पना में पेश किया जाता है। यदि विवेकानंद जी के जीवन दर्शन को ध्यान से समझा जाये तो ऐसे मनगढ़ंत और भ्रामक व्यक्तत्व बिलकुल ही निराधार नज़र आते हैं।
सिस्टर निवेदिता ने भी कई बार कहा है कि, जब स्वामी जी को खासतौर से हिंदू धर्म के अनुयायियों की बात करनी होती थी, तब वे 'वैदिक या वेदांतिक' शब्द का इस्तेमाल करते थे। सिस्टर निवेदिता ने अपनी किताब 'नोट्स ऑफ सम वांडरिंग विद स्वामी विवेकानंद' में उनको सांस्कृतिक संश्लेषक की उपाधी दी है।
विवेकानंद जी का राष्ट्रवाद मिश्रित और बहुलतावादी था। स्वामी जी अपनी एक घटना का जिक्र बार-बार करते थे, जो उनकी उदार सोच को बयान करती है।
जब विवेकानंद जी विश्व भ्रमण पर थे, तब वे अलमोङा पहुँचे। एक दिन वे एक दरगाह के सामने बेहोश हो गये थे, तब दरगाह की रखवाली करने वाले फकीर जुल्फिकार अली ने उनकी जान बचाई थी और उनको खाने के लिये ककङी दी थी।
विवेकानंद जी अपनी मातृभूमि के उत्थान के लिये जिस राष्ट्रवाद की कल्पना करते हैं, उसके मूल में मानवतावाद, आध्यात्मिक विकास और सांस्कृतिक नवजागरण है। इसे हासिल करने के लिये उन्होने वेदांतिक दर्शन को अपना उपकरण बनाया। विवेकानंद जी जिस भूमिका को समझने की बात करते थे, वह नए मनुष्य और नए समाज की भूमिका थी। करुणा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और विश्वबंधुत्व पर आधारित आधुनिक शक्तिशाली भारत के निर्माण की भूमिका थी।
शिकागो धर्मसभा के विदाई भाषण में विवेकानंद जी ने कहा था,
धर्मों के बीच एकता के बारे में बहुत कुछ कहा गया है लेकिन अगर कोई ये सोचता है कि एक धर्म के दूसरे धर्म पर जीत स्थापित करने से एकता स्थापित होगी तो ये गलत है। मैं उन्हे कहना चाहता हूँ कि बंधु आप गलत उम्मीद लगा बैठे हैं। क्या मुझे यह उम्मीद लगानी चाहिये कि क्रिश्चियन हिंदू हो जाये या फिर हिंदू और बौद्धों को क्रिश्चियन हो जाना चाहिये। ईश्वर माफ करे।
'स्वामी विवेकानंद एंड मॉडर्नाइजेशन ऑफ हिन्दुज़्म' में हिलटुड रुस्टाव ने लिखा है कि, विवेकानंद एक ऐसा समाज चाहते थे, जहाँ बङे से बङा सत्य उद्घाटित हो सके और हर इंसान को देवत्व का अहसास हो। विवेकानंद सच को अपना देवता मानते थे और कहते थे कि पूरी दुनिया मेरा देश है। राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता उनके लिये किसी संकीर्णता का नाम नही था।
विवेकानंद जी तो ऐसे राष्ट्रवादी संत थे, जिन्हे भारत की मिट्टी के कण-कण से प्यार था। उनका कहना था,
मैं भारतीय हूँ और हर भारतीय मेरा भाई है। अज्ञानी हो या फिर गरीब हो, अभावग्रस्त हो या ब्राह्मण या फिर अछूत हो वो मेरा भाई है। भारत का समाज मेरे बचपन का पालना है और मेरे जवानी के आनंद का बगीचा है। मेरे बुढापे की काशी है। भारत की मिट्टी मेरे लिये सबसे बङा स्वर्ग है।
ऐसे सात्विक और विश्व बंधुत्व की भावना वाले स्वामी विवेकानंद जी का नाम जैसे ही जह़न में आता है, मन में उनके प्रति श्रद्धा की अनुभूति होती है। भारत के नैतिक मूल्यों को विश्व के कोने-कोने में पहुँचाने वाले स्वामी विवेकानंद जी के राष्ट्रीय विचार हमारे अंदर देशप्रेम की भावना का संचार करते हैं। विदेशों में भारतीय संस्कृति की सुगंध फैलाने वाले स्वामी विवेकानंद जी को शत् शत् वंदन और नमन करते हुए उनकी कही बात, 'मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है' को जीवन में अपनाने का संकल्प करते हैं।
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