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भोजपुरी कहानिया

फिर एक कहानी और श्रीमुख "छड़ी"

फिर एक कहानी और श्रीमुख    छड़ी
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आज बड़े दिनों बाद मिसिराइन खुश थीं। अलमारी से अपने कपड़े निकाल कर सूटकेस में रखती मिसिराइन को लग रहा था जैसे हवा में उड़ी जा रही हों। गाँव की स्त्रियाँ अब भी खुश होती हैं तो गीत गाती हैं। मिसिराइन ने शुरू किया- चउका बइठल राजा दशरथ चेरिया अरज करे हो... राजा सोनवे के हंस बनइतs त राम मोरे खेलितें..."

किचेन में पकौड़ी तल रही बहू ने गीत सुना तो चुपचाप आ कर कमरे के दरवाजे पर खड़ी हो गयी, और मुस्कुरा कर उन्हें निहारने लगी। कुछ देर बाद जब मिसिराइन की दृष्टि बहू पर पड़ी तो उन्होंने गाना बन्द कर दिया। बहू ने उन्हें अँकवार में भरते हुए कहा, " आपके कंठ में जादू है मम्मी! गाइये न... छोड़िये यह कपड़े लत्ते, वहाँ इसकी कमी है क्या! पहुँचते ही आपके लिए मॉल से दसों साड़ियां ला दूंगी। आप गीत पूरा कर दीजिए।

मिसिराइन बहू को बहुत प्रेम करती थीं। उन्होंने गाल पर प्यार से थपकी दे कर कहा, " चल हट! पकौड़ी जल रही है। अब चल ही रही हूं तो रोज सुनाती रहूंगी..."

मिसिराइन गाँव मे अकेली रहती थीं। मिसीर जी का चार साल पहले देहांत हो गया था। दो बेटियां थीं, जो ब्याह के बाद अपने अपने परिवार में रम गयी थीं। एक बेटा था जो लखनऊ में नौकरी करता था, और पत्नी बच्चों के साथ वहीं रहता था। बेटे बहू हमेशा उन्हें भी साथ ले जाने की जिद्द करते थे, पर मिसिराइन हर बार टाल जाती थीं। उनका घर छोड़ कर जाने का कभी मन नहीं होता था।

पर अब शरीर थकने लगा था। अब न अकेले रहने का मन होता था, ना ही शरीर से कुछ काम ही हो पाता था। सो उन्होंने फोन पर बेटे को बताया, और तीसरे ही दिन बेटे-बहू गाड़ी ले कर घर पहुँच गए। बेटे को बस एक दिन की ही छुट्टी मिली थी, सो अगली सुबह ही सबको निकल जाना था। मिसिराइन शाम को ही सारी तैयारी कर लेना चाहती थीं।

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मिसिराइन का जीवन बड़ा सुखमय कटा था। वे एक सम्पन्न परिवार की बेटी थीं, और दूसरे सम्पन्न परिवार की बहू बन कर आयीं थीं। मिसीर जी बड़ा प्रेम करते थे पत्नी को... बिना उनकी सहमति के कोई काम नहीं करते, उनकी हर इच्छा को पूरा कर के ही मानते, जीवन में कभी उनके साथ अभद्रता नहीं किये। कुल मिला कर कहें तो पूरी निष्ठा से जीवन भर सातों वचन निभाते रहे थे। मिसिराइन कभी मायके जातीं तो बहनें और भौजाइयाँ चिढ़ातीं, "जीजी तो एक दिन के लिए आई है! जीजा इन्हें छोड़ेंगे थोड़े, पीछे पीछे आते ही होंगे।" सचमुच अगले दिन मिसीर जी ससुराल में हाजिर हो जाते थे। विवाह के बाद कभी मिसिराइन सप्ताह भर भी मायके नहीं रहीं।

शादी के बाद जब सारे बच्चे अपने अपने घोसलों में अलग बस गए तब भी मिसिराइन को कोई कष्ट नहीं हुआ। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी साथ थे तो आनन्द ही आनन्द था। बुढ़ऊ के पास खूब पैसा था, सो मिसिराइन आस पड़ोस के लोगों की सहायता करती रहती थीं। इस नाते पड़ोस की महिलाएं भी मिसिराइन का बड़ा सम्मान करती थीं। हमेशा कोई न कोई उनके पास बैठी ही रहती...

मिसीर जी जब मरे तो मिसिराइन का राज पाट उजड़ गया। हालांकि सबकुछ तो था ही, खाते में रुपये थे, जमीनें थीं, हर समय साथ रहने वाली पड़ोसिनें थीं। बस मिसीर जी नहीं थे। मिसीर जी के न होने का अर्थ केवल मिसिराइन जानती थीं।

मिसीर जी के श्राद्ध के बाद बेटे ने कई बार कहा, "अम्मा लखनऊ चली चलो... यहाँ अकेले कैसे रहोगी..." पर मिसिराइन नहीं मानीं। कैसे जातीं मिसीर जी का घर छोड़ कर, उन्हें तो अब भी वे घर के हर कमरे में दिखाई देते थे। नहीं गयीं।

मिसीर जी नहीं थे, पर मिसिराइन के पास उनकी असँख्य सुखद यादें थीं। उनकी जिह्वा पर हर समय उन्ही के किस्से थे। घर के ओसारे में अब भी मिसीर जी की छड़ी टँगी रहती थी। मिसिराइन रोज सुबह छड़ी को अपने आँचल से पोंछ कर टांग देतीं।

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सुबह जब घर के सारे कमरों में ताला लगा कर सब निकलने लगे तो मिसिराइन ने याद किया, "कुछ छूट तो नहीं रहा??" उन्हें कुछ याद आया, वे अपना कमरा खोल कर दुबारा घुसीं और दीवाल पर टँगी मिसीर जी की तस्वीर उतार लाईं। बहू ने मुस्कुरा कर उनके हाथ से तस्वीर ले ली और अपने बैग में रख लिया।

मिसिराइन का जाना सुन कर पड़ोस की कई महिलाएं आ गयी थीं। मिसिराइन नाते में उनकी सास होती थीं, सो सबने आँचल से उनका पैर छू कर आशीर्वाद लिया। वे सबसे कुछ-कुछ कह कर निकलने लगीं।

सब ओसारे में आये तो मिसिराइन की नजर दीवाल पर टँगी मिसीर जी की छड़ी पर गयी। उनके मन में एकाएक कुछ चुभ सा गया। अनायास ही उनके हाथ दीवाल पर चले गए और उन्होंने छड़ी उतार ली। एक पल को वे रुकीं, पर तुरंत ही छड़ी को रोज की तरह आँचल से पोंछ कर दुबारा वहीं टांग दिया। बहू ने कहा, "चलिये मम्मी, देर हो रही है।"

मिसिराइन के पैर आगे नहीं बढ़ रहे थे। उन्होंने कहा, "कुछ छूट तो नहीं रहा बहू? जरूर कुछ छूट रहा है, तनिक याद करो तो..."

बहू ने मुस्कुरा कर कहा, "कुछ नहीं छूट रहा मम्मी! आप चलिये, कुछ छूटा भी तो वहाँ खरीद लाऊंगी मैं..."

मिसिराइन ने धीरे से कहा, "सब कुछ तो छूट ही रहा है बहू! क्या क्या खरीद सकोगी तुम? हर चीज खरीदी भी तो नहीं जा सकती..." बहू ने देखा, सास की आँखे भर गई थीं। वह बहुत बातूनी थी, पर कुछ बोल नहीं सकी। मिसिराइन ने कहा, "लगता नहीं कि यह घर छोड़ कर कहीं रह सकूंगी बहू... तू जा! मैं यहीं रहूंगी।"

दूर खड़े बेटे ने सुना तो कहा, "यह क्या बेवकूफी है मम्मी! चलिये भी... यहाँ आपको बहुत कष्ट होगा।"

मिसिराइन ने कातर निगाहों से देखा बहू की ओर, जैसे भीख मांग रही हों कि मुझे यहीं छोड़ दे। बहू ने उनका चेहरा देखा तो उसका भी गला भर आया। आखिर स्त्री थी वह भी... उसने दो पल को सोचा, फिर चाभी ले कर घर का बन्द ताला खोल दिया। सास की आंखों में तो लोर भरा हुआ था, पर चेहरे पर सुकून लौट आया। बहू ने कहा," दोष मेरा ही है मम्मी! मैं ही वहाँ जा कर बस गयी थी। अब हर महीने आती रहूंगी। आप मन को न मारिये, यहीं रहिये..."

मिसिराइन ने बहू का माथा चूम लिया।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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