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भोजपुरी कहानिया

शारदा बाबू की गर्जना

शारदा बाबू की गर्जना
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"कैसी व्यवस्था है इनकी ये?" शारदा बाबू की गर्जना सुनकर अनवरत चलने वाला समय भी जैसे रुक गया। " कैसे असभ्य लोगों के यहां रिश्ता करवा दिया तुमने रमाशंकर?इन्हें तो ये तक नहीं पता कि अतिथि सत्कार क्या होता है, मेहमान नवाजी क्या होती है?"-विवाह के मध्यस्थ रमाशंकर सिंह की ओर देखकर वो चिल्लाए।

" बाबू जी शांत हो जाइए प्लीज!"-रमाशंकर ने बड़े ही विनीत स्वर में धीरे से कहा।

"शांत हो जाऊँ? मेरी पूरी प्रतिष्ठा धूल में मिल गई और मैं शांत हो जाऊं? पूरे समाज के सामने मेरी नाक कट गई,मुझे नीचे देखना पड़ा और तुम कहते हो कि मैं शांत हो जाऊं? ये जो बाराती अपने रिश्तेदारों तक से बड़े गर्व के साथ कहकर आए थे कि शारदा बाबू के बेटे की बारात में जा रहे हैं वह कल से मेरे नाम पर थूकेंगे। मुझसे जलने वाले मुझ पर तंज करेंगे कि जो शारदा बाबू दूसरों के आयोजनों की शान कहे जाते थे उन्हीं के बेटे की शादी में आने वाले मेहमानों को समय से भोजन तक नहीं मिला और तुम कहते हो कि शांत हो जाऊं?"-शारदा बाबू जलती निगाहों से रमाशंकर को घूरते हुए बोले। बैंड बाजे बंद हो गए। आर्केस्ट्रा पर 'मिले हो तुम हमको....' की मनमोहक जुगलबंदी को विराम लग गया। 'क्या हो गया' की सहज मानवीय उत्सुकता से पीड़ित लोग अपना काम-धाम छोड़ कर भीड़ लगाने लगे। मंडप में विवाह की तैयारियों की देखरेख में लगे शिवशरण जी के यहां खबर पहुंची तो बेचारे गिरते पड़ते हुए दौड़े।जनवासे में बुरी तरह से बिफरे समधी शारदा बाबू को देखकर उनके होश ही उड़ गए। "समधी जी!.." किसी तरह से हिम्मत जुटाकर बस इतना ही बोल पाए थे कि शारदा बाबू के व्यंग-विशिख अंतस्थल को चीरने लगे-" क्यों महाशय!! दीपक जलाने की औकात नहीं है आपकी और पहुंच गए चांद को मुट्ठी में लेने? बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी की थी आपने और यहां रात के 10:30 बजे तक भी बारातियों के लिए भोजन तक की व्यवस्था नहीं है।रात का भोजन कितने बजे किया जाता है आपके यहां?" शिवचरण जी को पहले तो कुछ नहीं सूझा फिर घबराहट छुपाते हुए बगल में खड़े अपने बड़े बेटे मुकेश को देखते हुए बोले- "मुक्कू क्यों देर हो रही है भोजन में?"

" बस 5 मिनट और पापा!" मुकेश ने सकपकाते हुए उत्तर दिया।

"अरे वह क्या बताएगा मैं बताता हूं।"शारदा बाबू फिर से चीखे।संस्कार नहीं है आप लोगों में! बड़प्पन नहीं है!कभी बड़े लोगों के साथ रहे हों, उनका सत्कार किया हो तब तो पता चले की आवभगत कैसे होती है? गलती आपकी नहीं गलती हमारी है जो हमने गली के कीचड़ को कुमकुम समझने की भूल की।सच्चाई तो यह है कि आपकी औकात ही नहीं थी अपनी बेटी हमारे घर......."

" समधी जी!!"- शिव शरण जी की सहनशक्ति अब हार गई उनका विनय भरा स्वर अब विद्रोही हो गया-" यह सत्य है कि हम आप जितने बड़े आदमी नहीं हैं लेकिन यह भी सत्य है कि यदि भोजन में 5 मिनट विलंब होने से ही बड़प्पन खतरे में आ जाता है तो मैं गर्व से कहता हूं कि मैं बड़ा आदमी नहीं हूं। बड़े लोगों का बड़प्पन क्या होता है यह मैं बताता हूं आपको।सुनिए। शिव शरण बाबू थोड़ी देर के लिए चुप हो गए और एक गहरी सांस लेकर बोलना शुरू किया ।

"उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में एक स्थान है "तमकुहीराज"। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम महानायक वीरवर फतेह बहादुर शाही जी ने इस राज्य की स्थापना की थी।उनके पश्चात उनकी ही वंश परंपरा में राजा इंद्रजीत प्रताप बहादुर शाही जी वहां से राजा हुए थे।उनके ही जीवन की घटना है, ध्यान से सुनिएगा। काशी नरेश ने अपने राज्याभिषेक के शुभ अवसर पर अन्य राजाओं के साथ राजा साहब को भी आमंत्रित किया था। उनके निमंत्रण पर राजा साहब अपने कुछ विशेष लोगों के साथ उनके उत्सव में सम्मिलित होने के लिए काशी गए थे ।वहां सभी अतिथियों को ठहरने के लिए अलग-अलग शिविर बनाए गए थे और उनके भोजन से लेकर विश्राम तक की पूरी व्यवस्था उनके शिविरों में ही की गई थी।सभी शिविरों का अपना अपना अलग रसोईघर था और उसमें भोजन बनाने के लिए अलग रसोइए भी नियुक्त किए गए थे।काशी नरेश के द्वारा प्रतिदिन प्रत्येक शिविर में भोजन की सामग्री भिजवा दी जाती थी जो अतिथियों के द्वारा स्वयं नियुक्त किए गए रसोइयों के द्वारा पकाई जाती थी। एक दिन की बात है,राजा साहब अपने सभागार में बैठे कुछ आगंतुकों से बातें कर रहे थे तभी उनके प्राइवेट सेक्रेट्री लल्लन बाबू बड़े रोष में आए और हाथ जोड़कर खड़े हो गए।राजा साहब ने उनकी ओर देखा और मुस्कुराते हुए "पूछा क्या बात है लल्लन बाबू! इतने क्रोध में क्यों हैं आप?"

सुनते ही फट पड़े लल्लन बाबू -"काशी नरेश ने हमें यहां बुलाकर हमारा अपमान किया है हुजूर!"

" क्यों? ऐसा क्या कर दिया उन्होंने?"-राजा साहब ने आश्चर्य के साथ पूछा।

" हुजूर उन्होंने आज सब्जी के लिए हमारे रसोई में कोहड़ा (कद्दू) भेजा है। अब आप ही बताइए! क्या हम लोग छोटे लोगों की तरह कद्दू खायेंगे?हुजूर मेरी तो इच्छा है कि उनका भेजा हुआ सारा सामान वापस कर दिया जाए।"

" नहीं उनका सामान आप रख लीजिए और अपनी रसोई में जो रोज बनता हो या जो रुचिकर लगे वह बनवा लीजिए।"- राजा साहब ने शांतिपूर्वक लल्लन बाबू को समझाया।

" लेकिन हमें और लोगों की रसोई का भी पता लगाना चाहिए हुजूर!"- पास बैठे एक सज्जन ने सलाह दी-" ऐसा भी हो सकता है कि काशी नरेश ने केवल हमें ही अपमानित करने के लिए हमारे यहां कोहड़ा भेज दिया हो।"

उनकी बात सुनकर राजा साहब हंस पड़े और विनोदपूर्ण स्वर में बोले -"तो क्या आप यह कहना चाहते हैं कि मेरा सम्मान और अपमान अब कोहड़े के अधीन हो गया है? यदि हम दूसरों के रसोईघर में यह देखने के लिए कि उनके यहां क्या बन रहा है ताक झाँक करते फिरें और प्रचार करते फिरें की काशी नरेश ने मुझे खाने के लिए कोंहड़ा भेजा है,उन्होंने मेरा अपमान किया है तो क्या इससे मेरा बड़प्पन बढ़ जाएगा? यदि उन्होंने मेरा अपमान किया भी होगा तो क्या यह सब करने से वह सम्मान में परिवर्तित हो जाएगा? भाई बड़प्पन इतना कोमल नहीं होता है कि वो भोजन के निवालों के रंग रूप को देखकर टूटता रहे ।बड़प्पन पीढ़ियों द्वारा संजोई गई सहनशीलता युक्त प्रतिष्ठा रूपी सिकता-कणों से निर्मित वह मजबूत चट्टान होती है जो बड़े-बड़े झंझावातों में भी अडिग रहती है। यदि किसी को अपने बड़प्पन को प्रदर्शित करने के लिए शब्द या किसी अन्य साधन का सहारा लेना पड़े तो वह बड़प्पन नहीं नीचता होती है।स्वयं को बड़ा समझकर छोटी-छोटी बातों में अपना अपमान समझने वाले व्यक्ति से अधम और नीच दूसरा कोई नहीं होता।व्यक्ति का बड़प्पन उसके द्वारा स्वयं का बखान करके प्रदर्शन करने से अपना परिचय नहीं देता बल्कि उस का मूक आचरण ही उसके बड़प्पन का परिचय दे देता है। बड़प्पन तो उस पुष्प की तरह होता है जो खुद को तोड़ने वाले के हाथों को भी सुगंध से भर देता है।लल्लन बाबू! जाइए यदि कोहड़ा खाने की इच्छा नहीं है तो अपनी इच्छा अनुसार रसोई में जो कुछ रखा है वही बनवा दीजिए और काशी नरेश का भिजवाया हुआ सारा सामान चुपचाप रख लीजिए।"-लल्लन बाबू सिर झुका कर चले गए।"

शिवचरण बाबू चुप हो गए।चारों ओर सन्नाटा छाया था और शारदा बाबू की झुकी हुई नजरें अपने जूते की नोक को निहारे जा रही थीं।

-संजीव कुमार त्यागी

लट्ठूडीह, गाजीपुर

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