रामनामी
पहले भक्ति आंदोलन समझिये। ग्यारहवीं शताब्दी से जब बर्बर तुर्क अफगान अरबी भारत में घुसे तो उन्होंने लगातार सनातन की नियामक संस्थाओं को ध्वस्त किया। मन्दिर तोड़े गए, विद्यालय जलाए गए, विद्वान और प्रभावशाली ब्राह्मणों को पकड़ पकड़ कर काटा गया। नालन्दा, विक्रमशिला, तक्षशिला, अजयमेरु, मेहरौली... धार्मिक शिक्षा का हर बड़ा केंद्र टूट गया। हर उस व्यक्ति या संस्था को समाप्त कर दिया गया जिसके प्रभाव में सनातन धर्म फल फूल रहा था। जो मठ मन्दिर या धाराएं बचीं वे भी अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए संघर्ष कर रही थीं। फिर उसके बाद? उसके बाद आया आध्यात्मिक रूप से नेतृत्वविहीन हो चुके हिन्दू समाज पर जबरन धर्मपरिवर्तन कराने का मुगलिया दबाव...
पर भाई साहब! इतनी आसानी से मिट जाने वाले होते तो नाम सनातन थोड़े न होता... आध्यात्म से कट रहे आम जनमानस तक धर्म को ले जाने के उद्देश्य से तभी प्रारम्भ हुआ भक्ति आंदोलन। पंद्रहवीं शताब्दी से प्रारम्भ हो कर अबतक चलने वाला आंदोलन...
तब इस इतने बड़ी जनसंख्या वाले समाज को एक सूत्र में बांधने वाली कोई नई व्यवस्था बना लेना सम्भव नहीं था, क्योंकि अधिकांश हिस्से पर आतंकियों का राज था। सो हर क्षेत्र के आध्यात्मिक गुरुओं ने अपनी एक परम्परा बनाई और अपने शिष्यों को आम जनमानस के बीच उतार कर एक नए सम्प्रदायों का सृजन किया जो उस क्षेत्र के हिंदुओं को धर्म से जोड़े रखने के प्रयत्न करते थे।
इन सबके विधि विधान में थोड़ा थोड़ा अंतर था, पर आत्मा सबकी एक थी सनातन! और लक्ष्य भी सबका एक था कि विधर्मी सत्ता के आतंक में भी धर्म का ध्वज फहराता रहे। देश में इसी तरह बने असंख्य सम्प्रदायों में एक था- रामनामी! वर्तमान छतीसगढ़ के वन में महानदी के तट पर बसी एक नई आध्यात्मिक धारा...
कबीर की भांति राम को मन्दिर की मूर्ति से निकाल कर जीवन का अंग बना लेने के ध्येय के साथ शुरू हुए इस सम्प्रदाय के लोगों ने पूरे शरीर पर रामनाम लिखवाना शुरू किया। शरीर पर राम, वस्त्रों पर राम, सम्बोधन में राम, आचरण में राम, बस राम ही राम... सियाराम मय सब जग जानी वाला भाव...
शराब, जुआ, चोरी, व्यभिचार जैसे अपराधों से पूर्णतः मुक्त राम नाम में रमें रहने वाले सरल लोगों की यह परम्परा लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुरानी है।
प्रारम्भ में इस परम्परा में चमार जाति के लोगों की ही बहुतायत थी, पर बाद में हर जाति के लोग आ गए और एक नया समाज ही बन गया रामनामियों का... यह रामनामी सम्प्रदाय का ही प्रभाव था कि छतीसगढ़ के आसपास के क्षेत्रों में चमार जाति के लोगों ने अपना उपनाम "राम" लिखना शुरू कर दिया।
धीरे धीरे यह परम्परा टूट रही है। नई पीढ़ी पूरे शरीर पर रामनाम गुदवाने से बच रही है। अन्य नियम भी टूट रहे हैं। पर सनातन परंपरा में टूटने का अर्थ समाप्त होना नहीं बल्कि नए स्वरूप के साथ नया जन्म लेना होता है।
नए सम्प्रदायों का बनना भी रुकेगा थोड़े... विधर्मियों का मन्दिर, विद्यालय और विद्वान पर प्रहार तो अब भी निरन्तर जारी ही है। भरोसा नहीं होता तो बीएचयू वाली घटना को ध्यान से निहार लीजिये....
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।