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रस्म बनकर रह गया है मई दिवस भी

रस्म बनकर रह गया है मई दिवस भी
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" मई दिवस मजदूरों के उस बलिदानों का नाम है।

जिनसे बदला जग का नक्शा उनको लाल सलाम है।।

शोषण पर आधारित अपना जो ये वर्ग समाज है।

इस समाज को बदलो साथी यह उनका पैगाम है।।

यह कविता शंकर शैलेंद्र ने लिखी और मजदूरों के शोषण पर लिखी। अब कवि तो इस दुनियां में नहीं हैं पर जिस संदर्भ में लिखी गई वह मौजूद है वह भी पूरी मजबूती के साथ। यानी मजदूरों का शोषण भी जस का तस है और उनकी मजबूरी भी। अब जब कवि ने अपनी रचना में मई दिवस का उल्लेख किया है तो इसे ही केंद्र में रखना चाहिए। न तो मई दिवस का इतिहास पुराना है और न ही मजदूरों का शोषण। आज से 136 साल पहले अमेरिका जो कि आज खुद को दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र कहता है के शिकागो में मालिकों के शोषण से त्रस्त श्रमिकों ने काम के घंटे आठ करने के लिए तीन दिन की हड़ताल की थी। हड़ताल के दौरान हिंसक घटनाओं में चार श्रमिकों को मार डालने के बाद बेकाबू श्रमिकों ने शिकागो के से मार्केट स्क्वायर में एक रैली का आयोजन किया गया। रैली शांतिपूर्ण रही पर अंतिम क्षणों में किसी ने बम फेंक दिया। पुलिस रैली को तितर-बितर करने के लिए आगे बढ़ी तो किसी ने पुलिस पर बम फेंक दिया। इस घटना में सात पुलिसकर्मियों सहित कम से कम एक दर्जन लोगों की मौत हो गई। एक सनसनीखेज ट्रायल के बाद चर विद्रोहियों को सरेआम फांसी दे दी गई। यह घटना पूरी दुनिया के मजदूरों के गुस्से का कारण बनी। हालांकि बाद में अमेरिका में काम करने का समय आठ घंटे का कानून बना। तब अमेरिका सहित अधिकतर विकसित देशों में भी श्रमिकों को 16 से 18 घंटे कमरतोड़ मेहनत करनी पड़ती थी वो भी नाममात्र की सेवाशर्तों या यूँ कहें कि नाममात्र की सुरक्षा के बीच।

यहाँ यह बताना जरूरी है कि जब शिकागो के श्रमिक शोषण के खिलाफ संघर्ष कर रहे थे तब आज के सबसे बड़े लोकतंत्रिक देश कहे जाने वाले भारत के श्रमिक भी आम नागरिकों की तरह ही अंग्रेजों के गुलाम थे और औद्योगीकरण भी न के बराबर था। बावजूद इसके कि उनके अंदर भी आग धधक रही थी।

देश की आजादी के बाद अधिकतर देशों के श्रमिकों की तरह यहां के श्रमिक भी समय-समय पर सड़कों पर उतर रहे थे। हालांकि यहाँ के श्रमिकों को पहले आजादी के लिए गोरे अंग्रेजों से लड़ना पड़ा और बाद में अपने ही देश के उद्योगपतियों से। तब उनका शोषण विदेश से आये गोरे अंग्रेज कर रहे थे तो आज अपने ही कर रहे हैं। यानी देश को अंग्रेजों की गुलामी से तो आजादी मिल गई लेकिन मजदूरों को, किसानों को, कर्मचारियों को मई दिवस के 136 साल बाद और देश की आजादी के 75 साल बाद भी। यहां यह भी ध्यान देने वाली बात है कि इस मई दिवस के बीच श्रमिक भी आजादी का अमृतकाल मना रहे हैं। अपने देश भारत में 1923 से श्रमिक दिवस मनाने की शुरुआत हुई। लेबर किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान ने मद्रास में इसकी शुरुआत की। प्रतीक के तौर पर यहां के मजदूरों ने भी लाल झंडे का इस्तेमाल किया। यूं भी लाल झंडे का अपना इतिहास है।

गौरतलब है कि, आज से 136 साल पहले श्रमिकों ने जिन समस्याओं को लेकर आंदोलन शुरू किया था क्या वे समस्याएं समाप्त हो गईं। उस समय श्रमिकों की मुख्य समस्या काम के काम के घंटे घटाकर आठ करना था। क्या पूरे देश में काम के घंटे आठ श्रमिकों, खेत श्रमिकों, किसानों व सरकारी/अर्द्धसरकारी, निजी क्षेत्र के कर्मचारियों, असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूरों व ठेका कर्मियों से आठ घंटे ही काम लिया जा रहा है व काम के अनुसार वेतन दिया जा रहा है। उदाहरण के तौर पर भारत में छपने वाले अखबारों को ही लें। शायद ही ऐसा कोई अखबार होगा जो अपने कर्मचारियों से आठ घंटे से कम की ड्यूटी लेता हो। एक ऐसा मीडिया घराना है जो घोषित कर चुका है कि, उसके यहां न कोई मालिक है और न कोई नौकर। सब कर्तव्ययोगी कार्यकर्ता हैं। यह संस्थान भी आठ घंटे की ड्यूटी लेता है। जबकि श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम के तहत पत्रकारों के काम का समय छह घंटे का है।

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस की तरह अंतरराष्ट्रीय श्रमिक दिवस भी रस्म बन कर रह गया है। जिस तरह से महिला दिवस पर महिलाएं पुरस्कृत की जाती हैं, उनका गुणगान किया जाता है उसी तरह से श्रमिक दिवस पर श्रमिकों को पुरस्कृत किया जाता है उनके गुणगान कर उसकी महत्ता बताई जाती है वो भी हर साल।

तभी तो किसी कवि ने लिखा कि...

" आधी दुनिया में अंधियारी आधी में अंधियारा है।

आधी में जगमग दीवाली आधी में दीवाला है।

जहां-जहां शोषण है बाकी वहां लड़ाई जारी है।

पूरी दुनिया में झंडा फहराने की तैयारी है।

हमने अपने खून से रंग कर ये परचम लहराया है।

जिसकी किरणों से छनकर लाल सवेरा आया है ...





अरुण श्रीवास्तव

देहरादून।

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